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भारत के लिए जिनपिंग-बाइडेन भेंट के मायने अहम

गुरजीत सिंह भारत-अमेरिका के बीच पांचवीं 2+2 बैठक पिछले हफ्ते हो चुकी है। अब ध्यान अमेरिका के सैन फ्रैंसिस्को में होने वाली एशिया-प्रशांत आर्थिक सहयोग शिखर वार्ता के दौरान जिनपिंग-बाइडेन के बीच अलग से भेंट पर टिक गया है। चूंकि...

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गुरजीत सिंह

भारत-अमेरिका के बीच पांचवीं 2+2 बैठक पिछले हफ्ते हो चुकी है। अब ध्यान अमेरिका के सैन फ्रैंसिस्को में होने वाली एशिया-प्रशांत आर्थिक सहयोग शिखर वार्ता के दौरान जिनपिंग-बाइडेन के बीच अलग से भेंट पर टिक गया है।

चूंकि भारत-अमेरिका संबंधों का असर द्विपक्षीय संदर्भों से परे वैश्विक स्तर पर है, इसलिए जिनपिंग-बाइडेन भेंट के नतीजों पर भारत की काफी रुचि रहेगी। ‘2+2 बैठक’ के स्वरूप को मिली द्विपक्षीय सफलता के चलते, भारत और अमेरिका अपनी साझेदारी को निरंतर विस्तारित कर रहे हैं। इसका सबूत है 2+2 वार्ता के बाद जारी संयुक्त बयान, जिसमें भारत की ओर से विदेशमंत्री एस. जयशंकर, रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह तो अमेरिकी विदेशमंत्री एंथनी ब्लिंकन और रक्षामंत्री लॉयड ऑस्टिन उपस्थित थे। यह भेंट वार्ताएं समय-समय पर होती आई हैं और इन्होंने अपनी जगह बना ली है।

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फिलहाल वाणिज्य मंत्री पीयूष गोयल ‘हिंद-प्रशांत आर्थिक ढांचा’ विषय पर चर्चा के लिए अमेरिका गए हुए हैं, जिस पर काम तेजी से चल रहा है। इसलिए, भारत के तीन वरिष्ठ मंत्री इस वक्त अमेरिका से सीधा संवाद में हैं, उम्मीद है चीन से पुनः रिश्ते सुधारते वक्त अमेरिका भारत के हितों को ध्यान में रखेगा। जिनपिंग-बाइडेन भेंटवार्ता नई दिल्ली में सितम्बर माह में संपन्न हुए जी-20 शिखर सम्मेलन में नहीं हो पाई थी क्योंकि चीनी राष्ट्रपति ने अनुपस्थित रहना चुना था। चीनी-अमेरिकी राष्ट्रपतियों की आखिरी भेंट नवम्बर, 2022 में इंडोनेशिया के बाली में जी-20 की बैठक में हुई थी। उसके बाद एक साल बीत गया और इस दौरान दुनिया में बहुत कुछ घटा, यूक्रेन युद्ध के अलावा अब पश्चिम एशिया में संकट उभर आया है।

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चीन और अमेरिका एक-दूसरे का आकलन बहुत गहनता से कर रहे हैं और पुनः बातचीत से पहले उन पैमानों और शर्तों पर विचार कर रहे हैं, जो उनके हितों के माफिक बैठते हों। मुख्य बात यह है कि आगामी बैठक में ये किस हद तक फलीभूत हो पाएंगे। भारत भी, बड़े मुद्दे जैसे कि पर्यावरण बदलाव, अक्षय ऊर्जा, कोविड उपरांत आर्थिकी की पुनर्स्थापना, नौवहनीय सुरक्षा और सतत विकास ध्येय इत्यादि पर सहयोग बनाना चाहेगा। यह साफ नहीं है कि अमेरिका-चीन में किसका नज़रिया ज्यादा भारी रहेगा, क्योंकि इन मुद्दों पर चीन ने अपनी ओर से अलग लाइन अपना रखी है और उसे इन विषयों में अमेरिका का दबदबा स्वीकार्य नहीं है। चीन के साथ अपने विवादों के चलते, भारत अमेरिका का साझेदार बनने का इच्छुक है। बृहद वैश्विक मुद्दों पर, जनहित की खातिर, अवश्य ही अर्थपूर्ण साझेदारी बनकर उभरने की संभावना है।

फिर प्रतिद्वंद्विता वाला अवयव भी है। अमेरिका और यूरोपियन यूनियन को यकीन है कि चीन अपनी हैसियत से कहीं बड़ा होता जा रहा है, और वे उसकी आर्थिकी एवं तकनीकी तरक्की को नाथकर, विश्व व्यवस्था में अपने प्रतिद्वंद्वी की उभरने की संभावना घटाना चाहते हैं। साथ ही, वे चीन को लोकतंत्र, मानवाधिकार जैसे मुद्दे पर घेरकर चुनौती देना चाहते हैं। चीन भी अमेरिका को जमकर चुनौती दे रहा है और विश्व व्यवस्था को लेकर अपना नज़रिया आगे बढ़ा रहा है। तरक्की का उसका अपना रास्ता है और अपनी अलहदा राजनीतिक प्रणाली भी। भारत को भी उससे दरपेश चुनौतियों की ताव सहनी पड़ रही है इसलिए अमेरिका और उसके सहयोगियों के साथ निकटता बनाकर चलना चाहता है। जिस ढंग से क्वाड ने पिछले दो सालों से अधिक अवधि में अपनी जगह मजबूत की है, उससे वह चीन के तौर-तरीकों को अपनी चुनौती पेश कर रहा है। क्वाड का नज़रिया वर्तमान में हिंद-प्रशांत महासागर क्षेत्र में गैर-सैन्य साझेदारी का विकल्प बनाना है।

एक अवयव यह भी है कि कई बार ऐसा होता है कि परस्पर चुनौतियां दीर्घकालीन टकराव में तब्दील हो जाती हैं। भारत ने यह लद्दाख में होते देखा है। फिलहाल दक्षिण चीन सागर में फिलीपींस के साथ भी यही कुछ हो रहा है और सेंककाकू टापुओं पर अधिकार को लेकर जापान का चीन से विवाद चल रहा है। अगर चीन ताइवान को कब्जाने की कोशिश करेगा तो अमेरिका, जापान, ऑस्ट्रेलिया और फिलीपींस, सब मिलकर उसे तगड़ी चुनौती देना चाहते हैं।

लेकिन भारत को सबसे अधिक चिंता किस बात पर है? भारत जानता है कि जहां चीन एक आक्रामक चुनौती देने वाला है वहीं अमेरिका भारत की वैश्विक चढ़त का समर्थक है। जो भी है, भारत हिंद-प्रशांत महासागरीय क्षेत्र में, विशेषकर संभावित ताइवान के मामले में, चीन को संयुक्त रूप से सैन्य चुनौती देने वाले गठबंधन का हिस्सा नहीं बनना चाहेगा। यदि जिनपिंग-बाइडेन भेंट से ताइवान के मुद्दे पर तनाव घटता है तो यह भारत के लिए अवश्य सहायक रहेगा। भारत-अमेरिका के बीच जिस ढंग से रक्षा साझेदारी बढ़ रही है उससे अमेरिका की अपेक्षा बढ़ी है कि हिंद-प्रशांत महासागर क्षेत्र में भारत ज्यादा मुखर होकर भूमिका निभाए। यह उम्मीदें भारत द्वारा प्राकृतिक आपदाओं के समय मानवीय आधार पर किए सहायता अभियानों से परे जाकर कुछ करने की हैं। गठबंधन मुल्क हिंद-प्रशांत क्षेत्र को मुक्त और सबका बनाए रखने के लिए सहयोगियों से साथ की आस रखते हैं और जरूरत पड़ने पर चीन को सीधी चुनौती देने में भी। यह वह संदर्भ है, जिसको लेकर भारत देखना चाहेगा कि जिनपिंग-बाइडेन भेंट में क्या होता है। भारत चीन के साथ सैन्य टकराव में नहीं पड़ना चाहेगा और ठीक इसी वक्त उन नए बनने वाले क्षेत्रीय प्रबंधों से भी बाहर नहीं रहना चाहेगा, जिन पर अमेरिका-चीन के बीच सहमति बन सकती है। चीन का नज़रिया इस बारे में स्पष्ट है कि अमेरिका ताइवान का मुद्दा न उठाए। इसके अलावा, वह हिंद-प्रशांत क्षेत्र में बनी गुटबंदियां जैसे कि क्वाड या ऑकस को अमेरिकी समर्थन का विरोध करता है, जो कि उसे नागवार हैं। चीन अपने विकास मॉडल को दी जाने वाली चुनौतियों का भी विरोध करता है, इसमें ‘बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव’ परियोजना भी शामिल है। और वह अमेरिका से चाहता है कि वह चीन का मुकाबला करने को बनाई गई ‘चाईना प्लस वन’ नामक आर्थिक एवं तकनीकी नीतियों को शह देना बंद करे।

इसलिए, जब तक अमेरिका और चीन आपसी समझ बनाकर दुनिया की भलाई के लिए साझेदारी बनाते रहेंगे, भारत को इनसे लाभ मिल सकता है। जहां तक प्रतिद्वंद्विता की बात है, भारत नहीं चाहेगा कि जोखिम कम करने की एवज में आर्थिक और तकनीकी प्रगति दर को धीमा किया जाए। ‘चाईना प्लस वन’ नामक नीति को निरंतर प्रोत्साहन देने की जरूरत है ताकि भारत में और अधिक निवेश आ सके। यदि अमेरिका चीन के साथ उच्च तकनीक पर सहयोग करने पर लगाए प्रतिबंध उठा लेता है, तो इससे चीन में फिर से उन कुछ निवेशकों के पहुंचने की संभावना बनेगी, जो वर्ना भारत का रुख करते।

यूक्रेन युद्ध के बाद बनी भारत की स्थिति में पुनर्निधारण, इस्राइल में बने हालात और अफ्रीका में शांति वार्ता पुनः बनाने में अनुरूपता दिख रही है। इन मुद्दों पर चीन की भूमिका एकदम विपरीत है क्योंकि वह यूक्रेन मामले में रूस का समर्थन कर रहा है तो पश्चिम एशिया में अरबी मुल्क और ईरान के साथ खड़ा है और वहीं अफ्रीका के संबंध में वैकल्पिक वार्ताओं का हामी है। इन कुछ मामलों में भारत अमेरिका का सहयोगी बन सकता है, लेकिन ऐसा करते वक्त इन क्षेत्रों में अपने हितों का ध्यान रखना आवश्यक है। भारत चीन से जुड़े मामलों के अलावा अन्य मुद्दों पर भी अमेरिका से सहयोग बेहतर बनाने को बातचीत जारी रखना चाहेगा।

लेखक पूर्व राजनयिक हैं।

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