दीपिका अरोड़ा
गेहूं की कटाई का सिलसिला आरम्भ हो चुका है, मंडियों में गेहूं के अंबार लगने लगे हैं। मगर इसके साथ ही मौसम भी मनमानी करवटें ले रहा है। कभी सुनहरी धूप, कभी धूल भरी आंधी, तो कभी अकस्मात ही रिमझिम की बौछारें। कृषि व्यवसाय से मौसम का गहरा नाता रहा है। फ़सली चक्र के अनुरूप मौसम की अनुकूलता रोपित फ़सल के संवर्द्धन में जहां अत्यधिक उपयोगी सिद्ध होती है वहीं अतिवृष्टि, अनावृष्टि, ओलावृष्टि एवं तुषारापात आदि संभावित उपज दर के लिए प्रतिकूलता का पर्याय बनते हैं। खा़सतौर पर कटाई से ढुलाई तक के अंतिम पड़ाव पर मौसम का साफ रहना अनिवार्य हो जाता है।
लेकिन यदि देश की मंडी व्यवस्था की बात करें तो बड़े दु:ख के साथ कहना पड़ता है कि विभिन्न क्षेत्रों में विकास के नए आयाम स्थापित करने पर भी मंडियों की अवस्था में संतोषजनक परिवर्तन नहीं आ पाया। अभी भी फ़सलों के उचित रखरखाव एवं भंडारण हेतु अपेक्षित सुविधाएं उपलब्ध नहीं। हाल ही में व्यवस्था का सत्य दर्शाती कुछ तस्वीरें भी प्रकाशित हुईं। विडंबना की पराकाष्ठा है कि प्रति वर्ष करोड़ों टन अनाज सरकारी कुप्रबन्धन की बलि चढ़ जाता है। भारत में अनाज का अनुमानित उत्पादन 30 करोड़ टन है। एफसीआई मात्र 8 करोड़ टन की ख़रीद करता है जो कि कुल उत्पादन का क़रीब एक-चौथाई बनता है। बचे हुए खाद्यान्न का अधिकतर भाग खुले में ही पड़ा रहता है।
वर्षा की बौछारें कहर बनकर आती हैं, न केवल किसान के अनथक परिश्रम पर ही पानी फिरता है अपितु लाखों-करोड़ों की संख्या में लोगों की भोजन उपलब्धता पर भी प्रश्नचिन्ह लग जाता है। जो अनाज भुखमरी एवं कुपोषण के आंकड़े को शून्य तक पहुंचाने में सहायक सिद्ध हो सकता था, अभक्ष्य हो जाने के कारण फेंकना पड़ता है। संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में हर साल 50 किलो प्रति व्यक्ति भोजन की बर्बादी होती है। प्रति वर्ष भारत के कुल गेहूं उत्पादन में से क़रीब 2 करोड़ टन गेहूं नष्ट हो जाता है। यही कारण है कि प्रचुर मात्रा में खाद्य उत्पादन होने पर भी ‘वैश्विक भूख सूचकांक 2020’ में सर्वाधिक भूख से पीड़ित देशों की सूची में भारत 94वें स्थान पर रहा तथा 27.2 अंकों के साथ ‘गंभीर’ श्रेणी में दर्ज किया गया।
प्राप्त आंकड़े दर्शाते हैं कि भारत की 14 प्रतिशत जनसंख्या कुपोषणग्रस्त है तथा देश के बच्चों में स्टंटिंग रेट 37.4 प्रतिशत है। विश्व बैंक की एक रिपोर्ट के अनुसार दुनिया भर में ग़रीब लोगों की बड़ी आबादी भारत में है। देश में व्याप्त भ्रष्टाचार की बात करें तो खाद्यान्न बर्बादी का मामला संज्ञान में आने पर यदि संबंधित अधिकारियों के विरुद्ध जांच के आदेश होते हैं तो यह प्रक्रिया तब तक जारी रहती है, जब तक कि वे सेवामुक्त नहीं हो जाते।
अन्न की बर्बादी के कारण भूखजनित समस्याअों में वृद्धि हो रही है। कृषि मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार भारत में लगभग पचास हज़ार करोड़ रुपये का अन्न हर साल बर्बाद होता है, जिसका मूल कारण भंडारण स्थान की कमी व उचित रखरखाव की सुविधाओं का अभाव है। इससे न केवल देश एवं वैश्विक अर्थव्यवस्था पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है अपितु वैश्विक पर्यावरण भी ख़ासा प्रभावित होता है। एक रिपोर्ट के अनुसार, खाद्य पदार्थों की बर्बादी से ग्रीनहाउस गैस में लगभग 8 प्रतिशत की वृद्धि हुई।
किसानों पर भी इसका सीधा असर पड़ता है। देश में चल रहा किसानों का विरोध-प्रदर्शन इस बात का गवाह है कि अधिक मात्रा में उत्पादन होने पर भी, कारग़र नीतियों के अभाव में, किसानों को अपने अथक परिश्रम का उचित मूल्य नहीं मिल पाता। करीब 40 प्रतिशत अनाज खेतों से घरों तक पहुंच ही नहीं पाता। मंडियों में अनाज व अन्य खाद्य पदार्थों को संभाल कर रखने के लिए सही मूलभूत ढांचा ही नहीं, जिस कारण खाद्य सामग्री सड़-गल कर बर्बाद हो जाती है। यही सामग्री यदि लोगों तक अपनी पहुंच बना पाए तो निश्चित तौर पर भुखमरी का आंकड़ा कम होगा।
कोई भी सरकार जब सत्ता में आती है तो विकास का लक्ष्य अधिकतर बड़ी योजनाओं पर केंद्रित रहता है। किंतु सोचने की बात है कि देशवासियों की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति हुए बग़ैर देश का विकास भला कैसे संभव है? भोजन जीवन की सर्वाधिक महत्वपूर्ण आवश्यकता है। प्रति वर्ष 25.1 करोड़ टन खाद्यान्न उत्पादित होने के बावजूद जहां हर चौथा भारतीय भूखा सोए और देश के 19 करोड़ लोगों को दो वक़्त का खाना तक न मिल पाए, वहां तकनीकी विकास के क्या मायने रह जाते हैं?
खाद्यान्न की बर्बादी को कम करना है तो देश की उत्पादन क्षमता के अनुसार ही, खाद्य उत्पादन प्रसंस्करण, संरक्षण और वितरण प्रणालियों को भी विकसित करना होगा। स्मरण रहे, जब तक अन्न के हर दाने को सहेजने हेतु उचित प्रबन्धन नहीं होगा, तब तक भारत को कुपोषण एवं भुखमरी मुक्त राष्ट्र बनाने की कल्पना भी नहीं की जा सकती।