धर्मेन्द्र मलिक
पिछले 15 दिनों से कृषि क्षेत्र के लिए बनाये गये तीन कानूनों को लेकर सड़क तक हंगामा हो रहा है। राज्यसभा के 8 सांसदों को निलंबित किया गया। पंजाब से लेकर कर्नाटक तक किसान सड़कों पर हैं। इसकी तपिश दिल्ली तक भी पहुंच रही है। एक तरफ सरकार का दावा है कि इन कानूनों से बिचौलिए खत्म होंगे, भंडारण के क्षेत्र में निवेश बढ़ेगा और किसानों को उनकी फसलों का उचित मूल्य मिलेगा। दूसरी तरफ विपक्ष, किसानों संगठनों के नेता और किसान इसे न्यूनतम समर्थन मूल्य को समाप्त किए जाने की कोशिश मान रहे हैं।
राष्ट्रपति द्वारा भी इन सुधारों को स्वीकृति प्रदान करने के बावजूद किसान पीछे हटने को तैयार नहीं हैं। वहीं भाजपा के पुराने सहयोगी दल अकाली दल ने राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन से अपना नाता तोड़ लिया है। कई राज्यों के मुख्यमंत्री इसे संघीय ढांचे का उल्लंघन बता रहे हैं। कोरोना काल में अध्यादेश लाने में सरकार की नीयत पर सवाल उठे है। ऐसी स्थिति में किसान आन्दोलन आने वाले समय में चुनौती बन सकता है। तमाम बहस किसानों की आजादी और कृषि में पूंजीपतियों की दखल पर चल रही है। इसका तीसरा पक्ष आढ़ती व मजदूर अपनी जीविका के खतरे के रूप में देख रहा है। किसानों और उनके प्रतिनिधियों से बिना संवाद किये एवं राज्यों को विश्वास में लिये बगैर कोरोना जैसी महामारी के समय कृषि कानूनों को थोपना लोकतांत्रिक व्यवस्था का उल्लंघन है। केन्द्रीय मंत्रिमंडल से हरसिमरन कौर के इस्तीफे के बाद यह विरोध उजागर हुआ है। किसान भारी संख्या में सड़कों पर प्रदर्शन कर रहे हैं। संवैधानिक व्यवस्था में कृषि राज्य का विषय है, ऐसा कहकर कुछ राज्य इसे नकार रहे हैं। देश में 86 प्रतिशत किसानों के पास 2 हेक्टेयर से कम जमीन है, ऐसे किसानों को एक देश-एक बाजार का लाभ नहीं मिल सकता। ऐसे किसानों को अपनी फसल को आसपास के बाजार में भी बेचना पड़ता है।
वैसे भी कृषि में खुले बाजार की व्यवस्था बिहार राज्य में 2006 से लागू है। दुनिया के सबसे साधन सम्पन्न देश अमेरिका में भी यह व्यवस्था 60 सालों से लागू है। जहां इसका किसानों को नुकसान और कम्पनियों को फायदा हुआ है। अमेरिका का एक किसान 2018 में ट्वीट कर लिखते हैं कि जो मक्का का भाव आज मिल रहा है, उससे ज्यादा कीमत उसके पिताजी को 1972 में मिली थी। यह मॉडल अमेरिका और यूरोप में किसानों के लिए घाटे का सौदा साबित हो चुका है।
विषय यह है कि 2006 में बिहार में एपीएमसी एक्ट को समाप्त कर दिया गया और सरकार द्वारा दलील दी गयी कि इससे निजी निवेश बढ़ेगा, निजी मंडियां खुलेंगी, किसान को अच्छा दाम मिलेगा। आज बिहार का किसान 1300 रुपये कुन्तल गेहूं बेचने को मजबूर है। दूसरी तरफ पंजाब की मंडी में इसी गेहूं को न्यूनतम समर्थन मूल्य 1925 रुपये में पिछले वर्ष बेचा गया।
हालांकि भारत सरकार के मंत्रियों और प्रधानमंत्री द्वारा न्यूनतम समर्थन मूल्य और मंडी व्यवस्था को बनाये रखने का भरोसा दिया गया है, लेकिन किसान न्यूनतम समर्थन मूल्य को कानून बनाये बगैर पीछे हटने को तैयार नहीं है। किसानों की मांग है कि देश में एक देश-एक भाव व्यवस्था लागू करनी चाहिए। भारत सरकार द्वारा 23 फसलों का न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित किया जाता है, लेकिन मुख्यतः दो फसलों गेहूं और चावल की खरीद की जाती है। किसान इस व्यवस्था को फल, सब्जी सहित सभी फसलों में लागू किये जाने की मांग कर रहे हैं। न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित होने के बावजूद भी दलहन, तिलहन और कपास के किसानों को खरीद न होने के कारण इसका लाभ नहीं मिल पाता है।
अंतर्राष्ट्रीय संस्था ओसीईडी की 2018 की रिपोर्ट के अनुसार भारत के किसानों को वर्ष 2001 से 2016 के बीच फसल का समर्थन मूल्य न मिलने के कारण 45 लाख करोड़ रुपये का नुकसान हुआ। प्रधानमंत्री अगर देश के किसानों को आश्वस्त करना चाहते हैं तो उन्हें चौथा कानून भी अनिवार्य रूप से बनाना होगा। फसल न्यूनतम समर्थन मूल्य कानून से घोषित समर्थन मूल्य से कम पर सभी कृषि विपणन को गैरकानूनी बनाते हुए खरीद की गारंटी दी जाए, जिससे देश में न्यूनतम समर्थन मूल्य स्थिर हो सके। चौथे कानून के बिना तीनों कानून निरर्थक साबित होंगे।
कांट्रेक्ट फार्मिंग में कुल उत्पादन खरीदने व ग्रेडिंग पर रोक लगाये जाने, जीएम बीजों का प्रयोग न करने, किसानों को सिविल कोर्ट जाने की आजादी जैसे प्रावधान किये बिना यह कानून भी किसानों विरोधी साबित होगा। भारत सरकार पर न्यूनतम समर्थन मूल्य को समाप्त करने का दबाव है। भारत को पैसे की आवश्यकता है। बिना विश्व व्यापार संगठन की शर्तों को मानें यह कर मिलना मुश्किल है। इसलिए आननफानन में तीनों कानून लाये गये हैं।