पांच नदियों वाले पंजाब ने सदियों तक उथल-पुथल झेली है–अधिकांश आक्रांता यहीं से आए-गए। यहां के लोगों ने बहुत सहा है, फिर भी तरक्कीयाफ्ता रहे। आक्रमणकारियों से गुर सीखकर, वक्त पर उन्हें काबू किया। यह धरती नानक की है, जिनके दर्शन ने इस धरा व लोगों की आत्मा को स्वरूप दिया। अनेकानेक भ्रमणों के बाद, गुरु नानक ने जिंदगी के आखिरी 17 साल अपने खेत जोतते हुए बिताए। आज समाज के अन्य वर्गों में, शायद यह देहाती ही हैं, जो गुरुजी के सिद्धांतों के सबसे अच्छे पहरूआ हैं। ‘लंगर’ और ‘सेवा’ के माध्यम से उन्होंने आस्था का प्रकटीकरण अनगिनत बार किया, जब कभी गंभीर हालात बने, लोग नि:स्वार्थ होकर इस कार्य में जुटते और सदा आगे रहे हैं।
यह ग्रामीण तबका, जो नानक के ‘नाम जपो-कीरत करो-वंड छको’ वाले सिद्धांत में ढला है, वह देश की हरित क्रांति और खाद्यान्न आत्मनिर्भरता का धुरा बना। देश की सीमाओं के अडिग पहरेदार भी इन्हीं की संतानें हैं, इसीलिए हमारी सेना की अधिकांश रेजीमेंटों में सबसे ज्यादा संख्या इसी देहात से है। चूंकि ये धरतीपुत्र, कठोर हालात से सख्त जान बने, किंतु सहृदय हैं, जैसा कि नानक एवं भक्ति लहर के अन्य सूफियों कबीर, फरीद और बुल्ले आदि के दर्शन ने उन्हें होना सिखाया है। किसान आंदोलन के किसी भी चरण पर वे हिंसक नहीं हुए हैं, भले ही अपनी सरकार ने उन पर आतंकवादी होने का ठप्पा लगाया है। सेना की सिख-जाट-पंजाब रेजीमेंट और अन्य बहुत से सैन्य बलों में अधिकतर फौजी गांवों से हैं। रंज है जब लखीमपुर खीरी कांड हुआ, तो मीडिया कश्मीर में शहीद हुए सैनिकों और लखीमपुर में मारे गये किसानों की तुलना करके इसे विंडबना के तौर पर दर्शाने लगा।
कोई साढ़े पांच सौ साल पहले बाबर ने भारत पर चढ़ाई की (उत्तर-पश्चिमी दिशा से) और लोगों पर अकथनीय जुल्म ढहाए। सैदपुर (वर्तमान गुजरांवाला के पास अमीनाबाद) को मटियामेट कर वहां नरसंहार मचाया। यह गुरु नानक ही थे, जिन्होंने उसके खिलाफ आवाज़ उठाई, जिसका जिक्र उन्होंने ‘बाबर वाणी’ में किया है। नतीजतन उन्हें जेल में डाला गया, बाद में रिहा किया गया। लेकिन जुल्म के शांतिपूर्ण विरोध का बिगुल बज चुका था, जैसा कि आगे चलकर गुरु अर्जुन देव और गुरु तेग बहादुर की शहादतों में दिखा। ये गुरु नानक के सिद्धांत हैं, एकदम सरल, किंतु अत्यंत प्रभावशाली, जिन्होंने इस धरा के लोगों को जगाया, जिससे प्रेरित होकर शायर इकबाल ने अपने कलाम में कहा :‘फिर उठी सदा तौहीद की पंजाब से/ हिंद को एक मर्द-ए-कामिल ने जगाया ख्वाब से।’
इसी परंपरा में पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश और अन्य प्रांतों के किसानों का आंदोलन चल रहा है, इतना लंबा खिंचने पर भी कुल मिलाकर यह शांतिपूर्ण और उद्देश्य पर केंद्रित रहा है। आंदोलनकारियों में भांति-भांति के लोगों की शिरकत के बावजूद न्याय और व्यवस्था नहीं टूटी, सिवाय भड़काऊ एजेंटों की करतूतों से उत्पन्न इक्का-दुक्का प्रसंगों के। आंदोलनरत किसानों ने परिवार सरीखी एकजुटता दिखाई , जिसके चलते यह सफल रहा है। धरने पर बैठने वालों को रोजमर्रा की जरूरी चीजों का इंतजाम करना बहुत बड़ा काम है। मसलन, भोजन, रिहायश, कपड़े, परिवहन, पानी, सफाई समस्याएं इत्यादि। हजारों लोगों के लिए इनका प्रबंध करना होता है। इस बारे में नेतृत्व बहुत बढ़िया रहा है और खुद मौजूद रहता है, जिसमें सभी किसान यूनियनों के नेता शामिल रहे। नेतृत्व विभिन्न सार्वजनिक मंचों से किसानों को जानकारी देता रहा, उसने पर्दे के पीछे सौदेबाज़ी नहीं की। निर्णय पर पहुंचने से पहले भरोसा हासिल किया।
हमें जो मूल्य सिखाए गए हैं, जन्म से सभी मनुष्य बराबर हैं, महिला-पुरुष के अधिकार समान हैं, और रूढ़ियों का त्याग करें। फिर ‘संगत और पंगत’ वाला महत्वपूर्ण सिद्धांत भी है, यानी सब एकसाथ बैठकर, बिना किसी भेदभाव, सामूहिक भोज ग्रहण करें। यहीं सिद्धांत आंदोलन चलाने का मंत्र है। सब लोग मिल-जुलकर रह रहे हैं, इकट्ठा खाते हैं, लंगर, मंच और चिकित्सालय प्रबंधन इत्यादि संभालने में महिलाएं बराबर की भूमिका में हैं।
आंदोलन शुरू हुए एक साल बीत चुका है, सरकार को लगा कि गुरु पर्व के अवसर पर प्रधानमंत्री द्वारा तीनों कृषि बिल वापस लेने की घोषणा करवाना सही रहेगा। साथ ही स्वीकारोक्ति आई कि सरकार किसानों के कुछ वर्ग को कृषि बिलों की महत्ता सही ढंग से नहीं समझा पाई। लेकिन प्रधानमंत्री ने अपने संबोधन में किसानों की अन्य मांगें यानी न्यूनतम समर्थन मूल्य, आंदोलनकारियों पर दर्ज केसों की वापसी, आंदोलन के दौरान मरे किसानों को मुआवज़ा, लखीमपुर कांड में न्याय इत्यादि के बारे में एक शब्द नहीं कहा। तथ्य है कि दिल्ली की सीमाओं पर धरने पर बैठे या दिल्ली आने-जाने के दौरान 700 से ज्यादा किसानों की मौत हो चुकी है, फिर भी उसका जिक्र तक नहीं आया। सच तो यह है कि केंद्रीय गृह राज्यमंत्री, जिसकी गाड़ी से किसानों को लखीमपुर में कुचला गया है, उसके आधार पर पूछताछ करना और बयान करवाने बनते थे, क्योंकि वाहन आपराधिक वारदात को अंजाम देने का एक हिस्सा है।
किसानों की मांग पर वापस आते हैं, मैं इस क्षेत्र के जाने-माने खाद्य एवं कृषि विशेषज्ञ देविंदर शर्मा के ‘द ट्रिब्यून’ में 22 नवम्बर को छपे एक लेख का अंश उद्धृत करना चाहूंगा ‘प्रस्तावित मंडी सुधार अमेरिका, कनाडा से लेकर चिली और फिलीपींस तक के देशों में असफल हो चुके हैं, देश या महाद्वीप कोई भी हो। उक्त मंडी व्यवस्था ने पहले से मौजूद कृषि संत्रासों में इजाफा ही किया है। अमेरिका, कनाडा और अन्य जगहों पर अपनाई उक्त मंडी व्यवस्था ने कृषकों को या तो कर्जाई किया या फिर खेती से बाहर धकेलने का कारक बनी, तिस पर नए तरीकों से कृषि को ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन का मुख्य कारक बना डाला है। यह विश्वास करना कि वही मंडी व्यवस्था भारत में चमत्कार कर दिखाएगी, एक भ्रम है… वर्ष 2018 में अमेरिकी कृषि विभाग ने हिसाब लगाया था कि कृषि उत्पाद खरीदने को उपभोक्ता द्वारा चुकाए गए प्रत्येक डॉलर में किसान तक पहुंचने वाला हिस्सा गिरकर महज 8 सेंट तक जा पहुंचा है, लिहाजा लगातार उनका वजूद लुप्त होने की तरफ निरंतर अग्रसर है।’ देख-परख किया गया विश्लेषण किसी किसान नेता या उनके हमदर्द का न होकर उस विशेषज्ञ का है, जिनका इस विषय वस्तु पर ज्ञान पिछले कुछ दशकों से मान्य है।
वैसे भी, किसानों को नए कृषि कानूनों से डर यह है कि कृषि पर सरकार के ‘मित्र-कॉर्पोरेट्स’ का कब्जा बन जाएगा। जमींदारी व्यवस्था खत्म करने का मकसद खेती पर हावी कुछ सामंती जमींदारों के वर्चस्व को तोड़ना था। उक्त कृषि कानूनों ने भय बनाया कि कहीं किसान फिर से भू-स्वामी से भूमिहीन मजदूर न बन जाए, जो कि घड़ी की सुइयां फिर से पीछे ले जाने जैसा है। जिस तरह की हालत अर्थव्यवस्था की है, करोड़ों की संख्या में किसान बेरोजगारों में शामिल हो जाते, जिससे आगे नशेड़ियों व अपराध की तादाद बढ़ती।
लेकिन क्या सिर्फ कानून वापसी काफी है? किसान यूनियनों से सलाह कर एक ऐसा तंत्र सुनिश्चित किया जाए, जिससे काश्तकार को अपनी उपज कुछ मानकों के आधार पर तय की गई कीमत से कम पर न बेचनी पड़े। यदि कृषक को प्रकृति और मंडी शक्ति की दया पर छोड़ा गया तो उसे संकटों का सामना करना पड़ेगा। चूंकि उसकी उपज जल्द खराब होने वाली जिंस है, इसलिए खरीदारी जल्द से जल्द होने की जरूरत है। उसके उत्पाद बारिश, आंधी-ओले, सूखा, तापमान, प्रदूषण इत्यादि से भी खराब होते हैं। आज मौसम में अप्रत्याशित बदलाव वाले दौर में ये कारक पहले से नाजुक बनी खेती में और जटिलता जोड़ रहे हैं। विकसित देशों को इसका पता है और वे सब्सिडी देकर अपने कृषकों को आर्थिक रूप से सुरक्षित करते हैं, क्योंकि उन्हें पता है कि यह किसान द्वारा पैदा किया अन्न है जिस पर मानवता जिंदा और पल-बढ़ सकेगी। यह फसल की गुणवत्ता और मात्रा है जो मोटे तौर पर विकसित और गरीब देशों के बीच का फर्क बता देती है।
इसके अलावा कृषि क्षेत्र करोड़ों लोगों को रोजगार देता है, वरना उन्हें शहरों में छोटे-मोटे काम कर मलिन बस्तियों में सड़ने को मजबूर होना पड़ेगा। भारत में विविध किस्में उगाने वाले किसानों को संरक्षण मिले, हमारे पास विविधता भरी और जैविक खेती की अमीर विरासत है। आगे के कृषि सुधार कानून या इनके अंतर्गत बनाए जाने वाले नियमों में कृषि यूनियनों से सलाह-मशविरा और क्षेत्रीय विविधता को ध्यान में रखें। वहीं अन्य मांगें, जो आंदोलन के दौरान वे उठाते रहे हैं, उन पर विचार कर न्यायोचित हल निकालें।
कोविड महामारी से उबरने के दौर में, इस प्रलंयकारी घटना ने बहुत कुछ बदला है, फिर हम मौसम में हो रहे बदलाव वाले दौर से वाकिफ हैं। इस दोहरी मार का असर दुनियाभर के वित्तीय तंत्र पर हो रहा है और मुद्रास्फीति बढ़ी है। वस्तुओं की कीमतें आसमान छू रही हैं। ऐसे में भारत की आत्मनिर्भरता और भी महत्वपूर्ण हो जाती है। इस वित्तीय उथल-पुथल के राजनीतिक असरात भी हैं। हमारी खेती, जो कि ग्रामीण भारत और देहाती तबके से जुड़ी है, वह देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ है, यह न सिर्फ हमें खाद्यान्न में आत्मनिर्भर बनाती है बल्कि हमें और हमारी औलादों को जीने के लिए जरूरी प्राण-शक्ति व पुष्टता भी प्रदान करती है। इन्हीं ग्रामीणों में से बड़ी संख्या में युवा सेना व अर्धसैनिक बलों में भर्ती होकर देश की रक्षा करते हैं। देश के इस हृदयस्थल में अराजकता बनाकर, हमें जीवनदायिनी पुष्टता से महरूम करना गलती होगी।
मैं ऑलीवर गोल्डस्मिथ के शब्दों के साथ आपसे विदा लेता हूं :- ‘एक निर्भीक कृषक वर्ग, अपने देश का गौरव/ एक बार तबाह हुआ तो, फिर न उठ पाएगा/ किंतु समय बदला है, व्यापार की निष्ठुर चालें उसके खेत हड़पकर किसान को बेदखल कर रही हैं।
लेखक मणिपुर के पूर्व राज्यपाल,
संघ लोकसेवा अध्यक्ष एवं जम्मू-कश्मीर में पुलिस महानिदेशक रहे हैं।