अरुण नैथानी
‘आप हमारा बच्चा ढूंढ़ दीजिए। हम मजदूरी करके आपका अहसान चुका देंगे।’ ऐसी टिप्पणियां सुनकर, मां-बाप को रोते देख सीमा ढाका भी भावविह्वल हो जाती है। उनके दुख देखकर उसकी बच्चे तलाशने की मुहिम तेज हो जाती है। ढाई महीनों में 76 लापता बच्चों को खोजकर उन्हें उनके मां-बाप के हवाले करने वाली सीमा ढाका पिछले दिनों सुर्खियों में थी। इन बच्चों, जिनमें 56 बच्चे 14 साल से कम उम्र के थे, को ढूंढ़ने के लिए जहां सीमा को आत्मसंतुष्टि मिली, वहीं दिल्ली पुलिस ने उसे हेड कांस्टेबल से अफसर बना दिया। उसे समय से पहले असिस्टेंट सब इंस्पेक्टर का पद दिया गया है।
रहस्यमय ढंग से बच्चों का लापता होना, पूरे देश में आम है। राजधानी दिल्ली का ही उदाहरण लें तो वर्ष 2019 में 5412 बच्चों की गुमशुदगी की प्राथमिकी दर्ज हुई, जिनमें से दिल्ली पुलिस 3336 बच्चों को तलाश कर उनके परिजनों को सौंप चुकी है। वहीं वर्ष 2020 में लापता 3507 बच्चों में से 2629 बच्चों को तलाशा जा चुका है। इनकी तलाश को शुरू की गई मुहिम में ही सीमा ढाका ने यह कामयाबी हासिल की है। वह उन पुलिसकर्मियों के लिए प्रेरणा बन गई है जो अच्छे काम में विश्वास करके अपना भविष्य संवारना चाहते हैं।
नि:संदेह कोरोना काल की विषम परिस्थितियों में इस मुहिम को सार्थक करना आसान नहीं था। सीमा को जिन बच्चों की तलाश थी, वे उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल व पंजाब में तलाशे गये। ये बच्चे जिस तबके से आते हैं, उनके माता-पिता मजदूरी व काम के चलते घर व काम बदल लेते हैं, यहां तक कि फोन नंबर तक बदल लेते हैं, सो उनसे संपर्क करना बेहद मुश्किल हो जाता है।
दिल्ली में समयपुर बादली में तैनात सीमा अपनी इस कामयाबी का श्रेय अपने सहयोगियों और परिजनों को देती है। उनका आठ साल का बेटा भी है, जिसे उसके सास-ससुर संभालते हैं। पति भी पुलिस में ही सेवारत है। राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र बड़ौत, उ.प्र. में जन्मी सीमा का ससुराल शामली में है। बचपन में सीमा अपने परिवार के कई शिक्षकों की तरह शिक्षक ही बनना चाहती थी। किसान परिवार में जन्मी सीमा का पढ़ाई के प्रति जुनून इतना अधिक था कि कई किलोमीटर साइकिल से कॉलेज पढ़ने जाती थी। इसी बीच उसकी नजर दिल्ली पुलिस में निकली भर्तियों पर गई और उसने फार्म भरा और संयोग से चुन ली गई।
सीमा को इस कार्य की खुशी एक मां को उसके वर्षों से खोये बच्चे से मिलाकर मिलती है। वह कहती है कि इससे बड़ी खुशी कुछ नहीं हो सकती। ऐसे बच्चे वर्षों बाद अपने मां-बाप से मिलते हैं। यह मेरे लिए खुशी की बात होती है, मैं किसी बच्चे के जीवन संवारने की प्रक्रिया का हिस्सा बनी।
सीमा बताती है कि कई बार बच्चों को ढूंढ़ने में तमाम मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। ऐसे ही एक अभियान में अक्तूबर के दौरान एक बच्चे को छुड़वाने पश्चिम बंगाल जाना पड़ा। बच्चा इतने दुर्गम इलाके में था कि बाढ़ के दौरान दो नदियों को नौका से पार करना पड़ा,तब जाकर पुलिस दल वहां पहुंच पाया। बच्चे तक पहुंचना मुश्किल था। उसकी मां ने दो साल पहले उसकी गुमशुदगी की रिपोर्ट लिखवाई थी। कालांतर अपना घर व फोन नंबर भी बदल लिया। बस इतनी ही जानकारी थी कि वह कहीं पश्चिम बंगाल में रहती है। इस तरह मुश्िकल से बच्चे को उसके किसी रिश्तेदार के कब्जे से छुड़ाया जा सका। ऐसी कई जटिलताएं हमारी मुहिम को चुनौतीपूर्ण बना देती है।
सीमा बताती है कि खोने वाले हर बच्चे की अपनी कहानी होती है। अधिकतर बच्चे आठ साल से अधिक के होते हैं, जिन्हें बहला-फुसलाकर ले जाया जाता है। ऐसे बच्चों की बड़ी संख्या होती है जो गुस्से या विषम हालात में घर तो छोड़ देते हैं लेकिन घर नहीं पहुंच पाते। कई बार बच्चे मोबाइल फोन से अपने उपस्थिति स्थल की जानकारी देते हैं। लेकिन वे उस तबके से आते हैं, जहां लोग मेहनत-मजदूरी के लिए फोन नंबर और घर तक बदल देते हैं। यदि मां-बाप जागरूक हों तो बदले पते व फोन नंबर संबंधित पुलिस स्टेशन को बताना चाहिए।
दरअसल, सीमा ढाका यदि इतने कम समय में 76 लापता बच्चों का पता लगा पायी तो इसकी वजह उनका संवेदनशील व्यवहार भी है। आमतौर पर बच्चों के अभिवावक पुलिस से सहज संवाद में कतराते हैं। एक बच्चे की मां होने के कारण उन्हें अहसास था कि बच्चा खोने के एक मां के लिए क्या मायने होते हैं। यही वजह है कि सीमा ने एक पुलिसकर्मी से बढ़कर एक संवेदनशील स्त्री का किरदार निभाया, जिसमें उन्हें सकारात्मक प्रतिसाद भी मिला। अभिभावक लगातार उन्हें जानकारी देते रहते हैं। संवेदनशील सोच के चलते ही सीमा ने खुद गुमशुदा बच्चे तलाशने वाले सेल में काम करने की इच्छा दिखायी। बहरहाल, दिल्ली पुलिस की रचनात्मक पहल का भी इस मुहिम में योगदान है, इसमें पचास खोये बच्चे, जिसमें 15 बच्चे 8 साल से कम उम्र के हों, को तलाशने पर समय से पहले प्रमोशन की नीति बनाई गई थी, जिसको सीमा ढाका ने हकीकत में बदला। उसने सम्मान भी पाया और प्रमोशन भी।