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कामकाजी संस्कृति को मानवीय बनाने की पहल

द राइट टू डिस्कनेक्ट बिल

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सुप्रिया सुले का यह विधेयक अगर स्थायी समिति को भेजा जाता है तो उसके पास मौका होगा कि वह भारत के कामकाजी संस्कृति को वाकई मानवीय बनाए। यह नींद, परिवार, स्वास्थ्य और सम्मान की बात है।

लोकसभा के शीतकालीन सत्र में बारामती की सांसद सुप्रिया सुले ने ‘द राइट टू डिस्कनेक्ट बिल, 2025’ पेश किया। पहली बार कोई विधेयक उनके अपने 24×7 बजते फोन को चुप कराने की बात कर रहा था। यह निजी सदस्य विधेयक कर्मचारियों, अधिकारियों और विधायकों-सांसदों को कार्य-समय के बाहर फोन कॉल, ई-मेल या किसी भी काम से जुड़े इलेक्ट्रॉनिक संचार का जवाब देने से कानूनी रूप से पूरी तरह मुक्त करता है। यह प्रस्ताव करोड़ों थके-हारे कर्मचारियों और जनप्रतिनिधियों की चैन की नींद के लिए आवाज़ है।

विधेयक के प्रमुख प्रावधानों में उल्लेख है कि कार्य-समय के बाद अवकाश के दौरान नियोक्ता कर्मचारी से काम का संचार करने का दबाव नहीं डाल सकेगा। उल्लंघन पर संगठन के कुल वार्षिक वेतन बिल का एक प्रतिशत तक जुर्माना लगाने का प्रस्ताव है। एक नई ‘एम्प्लॉयी वेलफेयर अथॉरिटी’ प्रावधान होगा, जो डिस्कनेक्ट पॉलिसी लागू करवाएगी, डिजिटल डिटॉक्स सेंटर चलाएगी और काउंसलिंग मुहैया कराएगी। हर कंपनी को साल में कम से कम एक बार अपनी डिस्कनेक्ट पॉलिसी की समीक्षा करनी होगी। साथ ही, कर्मचारी यूनियन या प्रतिनिधियों से लिखित सहमति लेनी होगी।

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अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन की 2024 रिपोर्ट के अनुसार, भारतीय औसतन 2,277 घंटे सालाना काम करते हैं—जापान से 600 घंटे और जर्मनी से 900 घंटे अधिक। नैसकॉम के सर्वे में 62 प्रतिशत आईटी कर्मचारियों ने माना कि उन्हें रात दस बजे के बाद भी काम के मैसेज आते हैं। सीईडीए-सीएमआईई के आंकड़े बताते हैं कि बर्नआउट की वजह से हर साल 46 प्रतिशत युवा कर्मचारी नौकरी छोड़ रहे हैं। एक आरटीआई जवाब में खुलासा हुआ कि 2020-2024 के बीच केंद्रीय सचिवालय के अठारह कर्मचारियों ने अत्यधिक कार्य-दबाव के कारण आत्महत्या की।

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सांसदों-विधायकों की स्थिति भी दयनीय है। एक सांसद के फोन में औसतन 300-400 वॉट्सएप ग्रुप होते हैं। रात दो बजे भी कोई मरीज अस्पताल में भर्ती कराने की गुहार लगा दे तो जवाब देना ‘राजनीतिक मजबूरी’ बन जाता है। सुप्रिया सुले ने स्वयं स्वीकार किया कि वे रात में फोन साइलेंट नहीं कर पातीं।

सुप्रिया सुले का यह दूसरा प्रयास है। वर्ष 2019 में भी उन्होंने विधेयक पेश किया था, लेकिन आगे नहीं बढ़ सका। वर्ष 2024-25 में केंद्र सरकार ने चार नए श्रम संहिता लागू किए, लेकिन उनमें ‘राइट टू डिस्कनेक्ट’ का कोई उल्लेख नहीं है। उल्टे ओवरटाइम की सीमा बढ़ा दी गई। इसी सत्र में शशि थरूर, मनीष तिवारी और कनिमोझी ने भी काम के घंटे और मानसिक स्वास्थ्य से जुड़े विधेयक पेश किए हैं। वर्ष 2024 में केरल सरकार ने सरकारी कर्मचारियों के लिए ‘शाम छह बजे के बाद नो वॉट्सएप’ का सर्कुलर जारी किया था, पर अफसरों के विरोध के कारण उसे वापस लेना पड़ा। तेलंगाना और कर्नाटक के आईटी हब और कुछ स्टार्टअप्स ने स्वेच्छा से ‘इवनिंग डिस्कनेक्ट पॉलिसी’ शुरू की है। भारत की 92 प्रतिशत श्रमशक्ति असंगठित क्षेत्र और छोटे-मध्यम उद्योगों में है, वहां न्यूनतम मज़दूरी भी मुश्किल से मिलती है। यहां तो डिस्कनेक्ट का सवाल ही नहीं उठता।

फ्रांस ने वर्ष 2017 में सबसे सख्त कानून बनाया और 50 से अधिक कर्मचारियों वाली हर कंपनी को डिस्कनेक्ट पॉलिसी अनिवार्य की। बेल्जियम, स्पेन, पुर्तगाल, इटली, आयरलैंड और हाल ही में ऑस्ट्रेलिया (2024) ने भी इसे कानूनी अधिकार बना दिया। इन देशों से तीन बड़ी सीखें हैं– पहली, कानून से ज़्यादा प्रवर्तन तंत्र मायने रखता है। दूसरी, छोटे उद्यमों को शुरुआती छूट और ट्रेनिंग ज़रूरी है। तीसरी, जुर्माना कंपनी के टर्नओवर से जोड़ा जाए ताकि छोटी कंपनियां दिवालिया न हो जाएं–ऑस्ट्रेलिया ने यही किया।

भारत के लिए आगे तीन रास्ते संभव हैं। पहला, इस विधेयक को सरकारी विधेयक बनाकर श्रम संहिता-2020 में संशोधन के रूप में लाया जाए। दूसरा, शुरुआत में इसे सरकारी क्षेत्र और 250 से अधिक कर्मचारियों वाली कंपनियों पर ही लागू किया जाए। तीसरा, फ्रांस की तर्ज पर हर कंपनी को अपना ‘डिस्कनेक्ट चार्टर’ बनाने को बाध्य किया जाए, जिसमें कर्मचारी प्रतिनिधि भी शामिल हों।

सुप्रिया सुले का यह विधेयक अगर स्थायी समिति को भेजा जाता है तो उसके पास मौका होगा कि वह भारत के कामकाजी संस्कृति को वाकई मानवीय बनाए। यह नींद, परिवार, स्वास्थ्य और सम्मान की बात है। इंसान को यह अधिकार तो मिलना ही चाहिए कि वह रात में चैन की नींद सो सके। अगर यह कोशिश कानून बन गई तो भारत की करोड़ों थकी आंखों के लिए यह सबसे बड़ा तोहफा होगा।

लेखक असिस्टेंट प्रोफेसर हैं।

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