शुभ मुहूर्त की बहस को स्वयंभू धर्म-ज्योतिषविद् राजनेताओं के लिए छोड़ दें तो इस सच से शायद ही कोई इनकार करेगा कि अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के लिए भूमि पूजन एक ऐतिहासिक घटना है। यह भी कि आज पूरा विश्व ही जिस तरह की विडंबनाओं-परिस्थितियों से जूझ रहा है, उसके मद्देनजर मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम का जीवन चरित और आदर्श सबसे ज्यादा प्रासंगिक हैं। शताब्दियों के विवाद और लंबी अदालती प्रक्रिया के बाद आये सुप्रीम कोर्ट के फैसले से ही इस मंदिर निर्माण का मार्ग प्रशस्त हुआ है। इसलिए यह मान लेना चाहिए कि अयोध्या नरेश दशरथ के ज्येष्ठ पुत्र राम का जन्म यहीं हुआ होगा, जिन्हें करोड़ों हिंदू मर्यादा पुरुषोत्तम और अपना आराध्य प्रभु मानते हैं। कई दूसरे देशों में भी राम के जीवन का प्रभाव विभिन्न रूपों में दिखायी पड़ता है, जो उनके काल्पनिक पौराणिक या महाकाव्य पात्र होने के संदेहों को खारिज करते हुए उनके भक्तों की आस्था को बल प्रदान करता है। कुछ देशों में न सिर्फ राम-लक्ष्मण नामकरण मिलता है, बल्कि राम कथा का मंचन भी होता है। यह सच है कि वाल्मीकि रामायण और गोस्वामी तुलसीदास रचित रामचरित मानस के अलावा श्रीराम के जीवन को लेकर कोई प्रामाणिक लिखित दस्तावेज फिलहाल उपलब्ध नहीं हैं, लेकिन सीता को रावण की कैद से मुक्त कराने के लिए लंका पर चढ़ाई के लिए समुद्र पर जो पुल बनाने का प्रसंग आता है, उस 25 किलोमीटर लंबे रामसेतु की कार्बन डेटिंग में उसके पांच हजार वर्ष पुराना होने का अनुमान जताया गया है।
हिंदू मान्यताओं के अनुसार त्रेता युग में भगवान विष्णु ने दशरथ पुत्र राम के रूप में अवतार लिया। अभी जबकि काल गणना को लेकर मतैक्य नहीं है, यह दावा कर पाना तर्कसम्मत और स्वीकार्य नहीं होगा कि वास्तव में राम का जन्म कब हुआ, लेकिन जैसा कि ऐसी परिस्थितियों में होता है, विद्वान अपने-अपने तर्कों के सहारे आकलन और दावे करते रहते हैं। उदाहरण के लिए एक मराठी शोधकर्ता डॉ. पद्माकर विष्णु वर्तक ने हिंदू धर्मशास्त्रों, खासकर पौराणिक साहित्य में उपलब्ध आंकड़ों के आधार पर गणना करते हुए राम का जन्म आठ लाख अस्सी हजार सौ वर्ष पहले माना है। बाद में आई सर्व नामक एक शोध दल ने प्लेनेटेरियम गोल्ड सॉफ्टवेयर का प्रयोग करते हुए राम का जन्म 10 जनवरी, 5114 ईसा पूर्व बताया है। लिखित दस्तावेजों के अभाव में ऐसे मामलों में किसी सर्व स्वीकार्य निष्कर्ष पर पहुंचना आसान नहीं, पर यह तो सभी मानते हैं कि लेखन परंपरा से पूर्व भी जीवन था। यह भी कि लिखित के अलावा भी तमाम प्रसंग-परंपराएं श्रुत परंपरा के जरिये चली आती रही हैं। धार्मिक आस्थाओं के मामले में तो अक्सर ऐसा होता है। इसलिए जन्मकाल संबंधी बहस से बेहतर होगा कि उन जीवन मूल्यों और परंपराओं पर फोकस करें, जिनके लिए राम मर्यादा पुरुषोत्तम माने जाते हैं, और आराध्य हैं। इसलिए भी क्योंकि बदलते युग, शताब्दियों और वर्षों के बीच मानव जीवन ने विज्ञान की बदौलत भौतिक प्रगति चाहे जितनी कर ली हो, उन जीवन मूल्यों का निरंतर ह्रास ही हुआ है, जो उसे इस धरती पर अन्य जीवों से श्रेष्ठ बनाते हैं।
वाल्मीकि रामायण और गोस्वामी तुलसीदास रचित रामचरित मानस में उल्लिखित राम कथा को ही आधार मानें तो राम अपनी हर भूमिका में आदर्श हैं, आराध्य हैं, और अनुकरणीय हैं। दशरथ के ज्येष्ठ पुत्र होने के नाते वह राजपाट के स्वाभाविक उत्तराधिकारी थे। सर्वाधिक प्रिय भी थे ही। फिर भी अपने राजतिलक के घोषित कार्यक्रम से ठीक पहले पिता के वचन का मान रखते हुए सौतेले छोटे भाई भरत के लिए राजगद्दी छोड़कर 14 वर्षों के लिए वनवास में चले गये। वह भी कैकेयी या उनके पुत्र भरत के प्रति किसी भी तरह की दुर्भावना के बिना। मंथरा तक के प्रति उनके मन-व्यवहार में कहीं कटुता नजर नहीं आती, जिसके षड्यंत्र के चलते ही अंतत: दशरथ मृत्यु को प्राप्त होते हैं, राम-लक्ष्मण-सीता को वन जाना पड़ता है, भरत भी राजगद्दी नहीं संभालते यानी एक पूरा परिवार ही नहीं, राज व्यवस्था ही बिखर-सी जाती है। यही नहीं, कैकेयी के प्रति कठोर वचन बोलने पर पहले लक्ष्मण और बाद में भरत से नाराज भी हुए राम। क्या आज्ञाकारी पुत्र और स्नेही भाई का ऐसा आदर्श उदाहरण दूसरा मिलता है? बेशक भरत ने जिस तरह 14 वर्षों तक राम की खड़ाऊं सिंहासन पर रख कर उनके प्रतिनिधि के रूप में अयोध्या का राजकाज संभाला, उसकी मिसाल मिलना भी मुश्किल है। निषाद राज से लेकर सुग्रीव और विभीषण तक मित्रता का जैसा निर्वाह राम ने किया, वैसा कोई दूसरा उदाहरण न तो श्रुत कथाओं में मिलता है और न ही लिखित में। उच्च राजवंश में जन्मे होने के बावजूद ऊंच-नीच, भेदभाव राम चरित में कहीं नहीं दिखता। शबरी के झूठे बेर खाने का प्रसंग इसका सबसे बड़ा प्रमाण है।
रावण ने सीता का हरण किया। फिर भी राम ने उसे भूल सुधार के लिए कई बार प्रस्ताव भेजा। बार-बार इनकार कर युद्ध आमंत्रित करने वाले रावण की प्रजा यानी लंकावासियों से फिर भी राम को कोई द्वेष नहीं था। अपने शरणागत विभीषण को उन्होंने जैसा स्नेह-सम्मान-विश्वास दिया, वह भी उनके महामानवीय चरित्र का ही प्रमाण है। आम मान्यता है कि राम भगवान विष्णु के अवतार यानी खुद भगवान ही थे, जिन्होंने ऋणि-मुनियों की पूजा-अर्चना में व्यवधान डालने वाले राक्षसों समेत तमाम अनीतियों-कुरीतियों के अंत के लिए मानव रूप में जन्म लिया और अपनी लीलाओं के माध्यम से आदर्श प्रस्तुत किये, संदेश दिये। जाहिर है, वह सर्वशक्तिमान थे, पर लंका जाने के लिए रास्ता देने की प्रार्थना को समुद्र द्वारा बार-बार अनुसनी कर देने पर एक बार क्रोध में धनुष उठाने के अलावा राम ने कभी भी अपनी शक्तियों का उपयोग नहीं किया। मानव अवतार में उन्होंने हर मुश्किल से पार पाने के लिए मानवीय उद्यम ही किया। युवराज के रूप में हों या वनवासी के रूप में अथवा फिर अयोध्या नरेश के रूप में, राम ने कभी भी मर्यादा का उल्लंघन नहीं किया। सीता स्वयंवर सभा में तमाम देशों के राजा आये थे, लेकिन कोई उस धनुष को उठा तक नहीं पाया, जिसे राम ने तोड़ कर सीता का वरण किया। अपने गुरु शिव का धनुष तोड़ने पर क्रोधित महर्षि परशुराम पर लक्ष्मण तो अपने स्वभाव अनुसार क्रोधित भी हो गये, लेकिन राम विनम्रता की प्रतिमूर्ति ही बने रहे।
दरअसल, अपनी हर भूमिका में राम एक मानवोचित आचरण का उच्च आदर्श पेश करते नजर आते हैं। न वनवासी के रूप में उन्होंने अपने आदर्श छोड़े, न राजा के रूप में मर्यादा त्यागी। राज्य और प्रजा के हित को उन्होंने सदैव स्वयं और परिवार के हित से ऊपर माना। शायद इसीलिए राम राज की आदर्श राज्य के रूप में कल्पना की जाती है। अनुकूल में परिस्थितियों में आदर्श आचरण करना बहुत आसान होता है। इसीलिए कहा जाता है कि इनसान की असली परीक्षा प्रतिकूल परिस्थितियों में होती है। राम का जीवन ऐसी ही प्रतिकूल परिस्थितियों की अंतहीन कथा नजर आता है। यह सच है कि अब हम त्रेता युग में नहीं रह रहे। यह द्वापर युग भी नहीं है। यह विशुद्ध कलियुग है, जिसमें व्यक्ति आत्मकेंद्रित हो गया है। स्वहित और अंध भौतिक प्रगति की दौड़ में अनैतिक-अमर्यादित आचरण में भी कहीं कोई संकोच नजर नहीं आता। इसीलिए त्रेता के राम के आदर्श कलियुग में और भी ज्यादा जरूरी हो गये हैं। अयोध्या में राम मंदिर निर्माण ने विवाद का लंबा सफर तय किया है। कभी इसे राजनीतिक रंग देने की कोशिश की गयी तो कभी सांप्रदायिक तेवर देने की साजिश। यह इस देश की गंगा-जमुनी संस्कृति का ही परिणाम है कि अंतत: समाधान न्यायपालिका से निकला, जिसे सभी ने शांतिपूर्वक स्वीकार भी किया। इसलिए यह समय भूमि पूजन कर्ता या मुहूर्त पर अवांछित विवाद का नहीं, उन जीवन मूल्यों-आदर्शों को फिर से अंगीकार करने का है, जिनके लिए श्रीराम मर्यादा पुरुषोत्तम कहे जाते हैं, माने जाते हैं। मुझे नहीं लगता कि भारत में महात्मा गांधी से बड़ा धर्मनिरपेक्ष कोई और हो सकता है। जब उनके मुंह से निकलने वाला अंतिम शब्द ‘हे राम’ था, तब राम को सांप्रदायिक नजरिये से कोई बीमार मानसिकता वाला ही देख-दिखा सकता है।
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