नरपत दान बारहठ
सृष्टि की संरचना में सभी चर-अचर चीजों का योगदान रहा है। अब वो चीजें चाहे सूक्ष्मता ग्रहण किये हुए हों या विशालता, ब्रह्माण्ड से लेकर धरती के गठन में सब वस्तुओं का अपना-अपना महत्व रहा है। मगर आदमी की फितरत ऐसी है कि वह धरती का कर्ताधर्ता अपने आपको या फिर उन वस्तुओं को मानने लगा है जो चीजें मनुष्य की नजर में अच्छी या सुंदर हैं। अब जैसे हम फूल को अहमियत देते हैं मगर कांटों को नहीं। हम पेड़ को जीवनदाता मानकर पूजते हैं मगर पत्थर को तिरस्कृत मान लेते हैं। पत्थर को तो निर्दयता से तोड़ दिया जाता है। अगर कोई व्यक्ति किसी का दिल तोड़ दे या विश्वासघात कर दे तो उसे पत्थर दिल की संज्ञा दे दी जाती है।
हम किसी को श्रेष्ठ तो किसी को तुच्छ मान बैठते हैं। ये सब अधूरे मानक हम अपने मन से तय कर देते हैं कि कौन-सी चीज अहमियत रखती है और किस चीज की अहमियत नहीं है। मगर विज्ञान और व्यवहार की दृष्टि से सही तथ्य यही है कि इस धरा पर कण-कण की अपनी अहमियत है। बात उस अहमियत को समझने और स्वीकार करने तक की है। अगर हम अपनी सोच और समझ का दायरा बढ़ाकर देखें तो हम पायेंगे कि हर वस्तु चाहे वह सजीव हो या निर्जीव, सबका हमारे जीवन में बहुत महत्व है। ऐसी ही एक कहानी से इसे समझ सकते हैं।
एक समृद्ध व्यक्ति किसी पहाड़ी गांव में हरे-भरे पहाड़ों के बीच नदी के किनारे बने आलीशान घर में रहता था। पास में ही भगवान का मन्दिर भी था। हर सुबह-शाम वह व्यक्ति नदी में तैरता, फिर पहाड़ों के शिखर पर बैठकर उदय और अस्त होते सूर्य के अप्रतिम नजारे को निहारता। उसने घर में भी तरह-तरह के फूलों के पौधे लगा रखे थे। रोज सुबह-शाम मन्दिर में भगवान की आराधना किया करता था। एक दिन बारिश की ठण्डी रात में गहरी नींद सोया कि सुबह सूर्योदय से पहले नहीं जाग सका। देर से उठा और भागता हुआ पहाड़ी के तरफ चला। बीच में नदी का बहाव था। उसे नदी पार करके पहाड़ी पर जाना होता था। उसने नदी में छलांग लगाई तैरकर उस पार जाने लगा।
बीच नदी के पानी का तेज बहाव आया। वो हड़बड़ाया और फिर एक बड़े पत्थर को पकड़ लिया। बहाव ज्यों ही कम हुआ तो उसने नदी पार की। अब भागता हुआ पहाड़ी पर चढ़ने लगा कि अचानक पैर नुकीले पत्थर से लगा। उसे चोट लगी। खून बहने लगा। वह बैठ गया और तिलमिलाते हुए पत्थर पर चिल्लाते हुए बोला—ये पत्थर भी न बीच रास्ते पड़े रहते हैं, नीरस और बेहूदा। कुछ काम के नहीं। रास्ते से दूर नहीं रह सकते। मैं कल इसे उखाड़कर फेंक दूंगा। वह आदमी इतना बोला ही था कि पत्थर से आवाज आई—महाशय! माफ़ कीजिये। आपको चोट लगी। मगर इसमें मेरा कोई दोष नहीं है। अगर तुम देखकर चलते तो हादसा नहीं होता। व्यक्ति पहले तो सकपकाया फिर क्रोधित हुआ और पत्थर को कल देख लेने की धमकी देकर घर की तरफ चला। चोट पर मरहम पट्टी की।
रात हुई। वह अनमने मन से सो गया। कुछ-कुछ नींद आई ही थी कि उसे लगा कि घर की दीवारें हिलने लगीं और दीवार का पत्थर-पत्थर बोलने लगा—हम इस आदमी के साथ नहीं रहना चाहते। इसकी नजर में हमारा कोई महत्व नहीं है। हम जा रहे हैं। यह सुनकर आदमी घबराया और हड़बड़ाकर उठा। पसीने से तरबतर। घर से बाहर निकला और मन्दिर की तरफ भागा। भगवान की मूर्ति के आगे हाथ जोड़कर याचना करने लगा– ‘हे भगवान, ये सब क्या हो रहा है। घर पूरा हिल रहा है। कृपया रक्षा करो। दया करो, घर बच जाए मेरा।’ तभी मूर्ति से आवाज आई—हे मनुष्य! मैं तुम्हारी सहायता नहीं कर सकता क्योंकि यहां मेरा मूर्तरूप भी पत्थर का बना है। तुम्हें पत्थरों से कोई मतलब भी नहीं है। इसलिए तुम यहां से चले जाओ। अब मन्दिर भी हिलने लगा। आदमी का डर दोगुना हो गया। वह गिड़गिड़ाते हुए बोला—क्षमा करो प्रभु। बहुत बड़ी गलती हो गई। मैं अंधा हो गया था। मूर्ति से आवाज आई–ठीक है, तुम्हें माफ़ी मिलेगी लेकिन पहले तुम मेरी बात ध्यान से सुनोगे। व्यक्ति बोला—जो आज्ञा प्रभु। मूर्ति ने कहा—हे मनुष्य! मेरा यह मूर्तरूप पत्थर का ही बना है। तुम जिस आलीशान घर में रहते हो वह भी पत्थर का बना है। एक दिन नदी में डूबते वक्त तुमने जिसे पकड़कर जान बचाई थी, वह भी पत्थर ही था। और तो और जिन पहाड़ों पर घंटों बैठकर तुम आनंद का अनुभव करते हो वह भी पत्थरों से ही बने हैं।
इस कहानी से यह बात निकलकर सामने आती है कि इस धरती पर सबकी अपनी-अपनी अहमियत है। तुच्छ कुछ भी नहीं है। तुच्छ मनुष्य की सोच है। कण-कण से सृष्टि से है। जिस दिन मनुष्य अन्य चीजों की अहमियत समझने लगेगा तभी उसके मन से अहम खत्म होगा। जैसे कि उस आदमी की आंखें खुल गई थीं। कहानी का सार यूं तो भगवान की मूर्ति के बयान से समझ गए हैं। फिर भी इस कहानी का सार यह भी है कि हमें ‘मेरा’ शब्द अपने जीवन से निकालकर ‘हमारा’ शब्द इस्तेमाल करना चाहिए और सबके साझे सहयोग की अहमियत को स्वीकार करना चाहिए। तभी हमारा अस्तित्व बना रहेगा।