गुरबचन जगत
मुझे अक्सर अचरज होता है कि हम में से अधिकतर झूठ क्यों बोलते हैं? नाना झूठ जैसे कि गैर-नुकसानदायक, दुर्भावनापूर्ण, तथ्यों को घुमाकर, कपोल-कल्पित, मतदाता को भरमाने वाले, अपने उच्च अधिकारी को खुश करने वाले, शरारत उपरांत डांट से बचने को बच्चों के झूठ इत्यादि-इत्यादि। छुटपन के मासूम झूठ से शुरू होकर वयस्कों के विद्वेषपूर्ण झूठ तक का यह सफर एक विकास-क्रम है। झूठ बोलने की काबिलियत का मुकाबला इस पर स्वेच्छा से यकीन करने वाले की क्षमता ही हो सकता है। यूं तो झूठ से हर किसी का वास्ता पड़ता है, लेकिन जब वरिष्ठ नेताओं को सुनें तो निरे झूठ से ही पाला पड़ता है। चूंकि एक पुलिस अधिकारी को नौकरी के आरंभ से ही राजनेताओं को नजदीक से देखने का मौका मिल जाता है, यहां तक कि मुख्यमंत्री को भी, तो वह पाता है कि सभा चाहे निजी हो या सार्वजनिक, सब कोई झूठ बोलने में शामिल हैं। वे बेझिझक भावुक अंदाज़ में इतने बड़े-बड़े झूठ बोलते हैं कि अभिभूत श्रोता भी भौचक्क हो सुनते थे। मुख्यमंत्री जानता था कि वह झूठ बोल रहा है, लोग भी जानते थे कि यह झूठ ही है, यह हमें भी पता था। लेकिन हरेक का चेहरा दिखावा करता था मानो कही बातों पर पूरा यकीन हो। क्या यह अविश्वास का स्वैच्छिक त्याग है? मुझे लगता है ‘ड्रामा’ शब्द यहां एकदम फिट बैठता है।
आगे बढ़ने से पहले, आइए पहले किसी व्यक्ति के बचपन से लेकर वयस्क होने तक और फिर किसी संस्थान, निजी या सार्वजनिक, में पहुंचने तक झूठ के विकास-क्रम पर विचार करें। वयस्क लोग धीरे-धीरे, होशो-हवास में या अनजाने में, दुनियावी सफलता पाने की चाह में झूठ को एक बड़ा हिस्सा बनाने लगते हैं। जिस समाज में वह विचरता है, उसे एकदम स्पष्टवादी और मुंह पर सच कहने वाले रास नहीं आते। आपको अपने उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु तथ्यों और विचारों को पुट देना ही पड़ता है, कई मर्तबा तो निपट झूठ तक गढ़ना पड़ता है। जैसे ही आप सरकारी नौकरी या किसी संस्थान में-निजी अथवा सरकारी- दाखिल होते हैं आपका वास्ता ‘दबाव डालने’ वाले गुटों से पड़ता है, जिनके कहे-अनकहे ध्येय होते हैं- ये चेहरे निजी हो सकते हैं या सरकारी। ऐसी ताकतों और उनके उद्देश्यों के साथ सहयोग करने या न करने का फैसला केवल आपका होता है। आपको सिर्फ अपना वजूद रखने की खातिर अपने आदर्शों और कानून के राज के प्रति निष्ठा का लेन-देन नहीं करना चाहिए। बेशक, यह राह वह है, जिसमें निजी आराम का कुछ त्याग करना पड़ता है, लेकिन यह पथ व्यक्तिगत निर्वाण की ओर लेकर जाता है… ‘सच आपको मुक्ति प्रदान करता है।’
सरकार एक विशालकाय तंत्र होता है और इसको बहुमुखी फर्ज निभाने पड़ते हैं, जिसके लिए बहुत सारे विभाग हैं। इसमें वित्तीय प्रबंधन, विकास कार्य और कानून एवं व्यवस्था (अंदरूनी और बाहरी सुरक्षा) बनाए रखने वाले मुख्य हैं। विकास कार्य करवाना बहुत बड़ा काम है, लेकिन फिर इसके लिए वादे भी उतने बड़े-बड़े करने पड़ते हैं। इन वादों को पूरा न कर पाने पर, बहुत बड़े स्तर पर परिष्कृत तरीकों से भ्रामक जनप्रचार का सहारा लेकर सच को छिपाकर और झूठ फैलाकर लोगों को बेवकूफ बनाया जाता है।
जहां तक वित्तीय कारगुजारी का संबंध है, वहां हमें ऐसा डाटा दिखाकर सिद्ध किया जाता है मानो जीडीपी, प्रति व्यक्ति आय बढ़ रही है और गरीबी के स्तर, मुद्रास्फीति में उतार-चढ़ाव में कमी हो रही है। नि:संदेह, डाटा और आंकड़ों का खेल उतना ही अच्छा-बुरा होता है, जितना इनको गढ़ने वाले लोग। सरकार जो आंकड़े बताती है, विपक्ष उनसे अलग पेश करता है, तो विश्व बैंक और एशियन बैंक, मूडी और अन्य निजी संस्थान कुछ और ही बताते हैं। आंकड़ों के हरेक समुच्चय पर किसी-न-किसी नामचीन अर्थशास्त्री, रिजर्व बैंक, कोलंबिया-हार्वर्ड सरीखी यूनिवर्सिटी के प्रोफेसरों की मुहर भी लगी होती है। हालिया विवादित प्रसंग जैसे कि टेलीकॉम और कोयला घोटाला, नोटबंदी, बड़े राष्ट्रीय संस्थानों के विनिवेश इत्यादि पर आये डाटा पर सवाल उठे और आंकड़ों की जादूगरी कहा गया। आप जिस पर यकीन करना चाहें, कर लें, कुछ सच, कुछ झूठ तो कुछ निजी विचारधारा के मुताबिक।
आइए, अब संक्षेप में अंदरूनी और बाहरी सुरक्षा आयाम पर नज़र डालें। सामान्यतः बावर्दी पुलिस विभागों से अपेक्षा होती है कि वे कानून एवं व्यवस्था बनाए रखने का अपना फर्ज निभाएंगे। लेकिन भारत में ये विभाग सत्तारूढ़ दलों के दास बन गए हैं, भले ही सरकार किसी भी पार्टी की हो। जांच-पड़ताल और केस दायर करने में सच को छिपाने वाले प्रारूप गढ़ना आज अपवाद न होकर सामान्य चलन बन गया है। फिर हमारे पास भारत सरकार की विशिष्ट एजेंसियां हैं जैसे कि आईबी, एनआईए, सीबीआई, ईडी, एनसीबी, रॉ इत्यादि। चूंकि ज्यादातर एजेंसियों का दर्जा वैधानिक नहीं है लिहाजा संसद को जवाबदेह नहीं हैं। उनका निर्माण विशेष उद्देश्यों के लिए हुआ था, लेकिन इन्हें भी सत्ताधारियों ने अपने निजी एजेंडे की पूर्ति हेतु लचीला और झुकने वाला बना डाला। वे यह सब करके भी इसलिए बच जाते हैं क्योंकि उन पर कोई जिम्मेवारी तय नहीं है। ज्यादातर देशों की विदेशी खुफिया एजेंसियां दूसरे मुल्कों में अदृश्य षड्यंत्र, अस्थिरता, विद्रोह को हवा देने में लिप्त होती हैं। इन सब कामों में अधिकांशतः पहला शिकार सच बनता है, भ्रामक सूचना का निर्माण और छद्म कहानियां इत्यादि गढ़ना इस खेल के अभिन्न अवयव हैं। अफगानिस्तान से सोवियत सेना को खदेड़ने की खातिर सीआईए ने आईएसआई की मदद से तालिबान तैयार किए, प्रशिक्षित किया और पैसा दिया।
बाद में 9/11 के आतंकी हमले के बाद उसी तालिबान और अफगानिस्तान पर 20 साल तक अमेरिका ने बम बरसाए, आज फिर से तालिबान सत्ता पर काबिज है। इस सामरिक क्षेत्र में अपने उद्देश्यों के लिए विभिन्न देशों के गुट नए-नए षड्यंत्र रचने में जुटे हैं। इसी तरह, खाड़ी में हुए दूसरे युद्ध में, अमेरिका, ब्रिटेन और उनके सहयोगी मुल्कों ने अपने सैनिक पूरी मारक शक्ति और आवेश के साथ उतारे थे– क्यों? उनके ‘सुबूतों’ के अनुसार इराकियों के पास जनसंहार के ऐसे अस्त्र थे, जो उनकी राष्ट्रीय सुरक्षा को खतरा थे। लेकिन संयुक्त राष्ट्र निरीक्षकों का निष्कर्ष था कि ऐसा कुछ नहीं है। फिर भी ब्रिटिश और अमेरिकी खुफिया एजेंसियां कहती रहीं कि उनके पास उपलब्ध भरोसेमंद जानकारी इसके उलट है। फिर इराक को मलबे में तब्दील कर दिया, सद्दाम हुसैन मारा गया और पेट्रोलियम स्रोतों पर कब्जा कर लिया गया। बाद में, खुद माना कि कोई जनसंहार अस्त्र बरामद नहीं हुआ। पुनः, सच क्या है और झूठ क्या,लोगों ने किस पर यकीन किया?
पुनः अपने घर की बात करें, तो आज चीन और पाकिस्तान से लगी सीमाओं पर और देश के अशांत क्षेत्रों में क्या घट रहा है? ये वह जगहें हैं जो ज्यादातर हमारी पहुंच से बाहर हैं, वहां के हालात की जानकारी हेतु सरकारी वक्तव्यों और इन पर आधारित मीडिया रिपोर्टों पर निर्भर रहना पड़ता है। स्वतंत्र पर्यवेक्षक, मीडियाकर्मी और विपक्षी दलों की इन इलाकों तक पहुंच नहीं है। सरकारी सूचनाएं दर्शाती हैं कि दोनों सीमा रेखाओं पर सब कुछ ठीक-ठाक है, वहीं अन्य सूचनाएं और सेटेलाइट तस्वीरें अलग हकीकत बयां करती हैं। विषय महत्वपूर्ण राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़ा होने के कारण, मैं सरकार के सच पर यकीन करना पसंद करूंगा, किंतु कुछ ऊहापोह के साथ।
गिनाने को ऐसी असंख्य घटनाएं हैं और जिनके घटित होने से पहले और बाद में झूठ का मायाजाल देखने को मिला। एक बहुत बड़े झूठ का उदाहरण, जो लोकतंत्र का प्रकाश स्तंभ कहे जाने वाले अमेरिका के पिछले राष्ट्रपति चुनाव का है। वहां बाइडेन को आधिकारिक रूप से निर्वाचित घोषित किया गया, लेकिन प्रतिद्वंद्वी डोनाल्ड ट्रंप ने इस परिणाम को स्वीकार करने से इंकार कर दिया। दावा किया कि विपक्षी डेमोक्रेट पार्टी ने उनकी जीत हड़प ली है। वे यह झूठ फैलाने लगे और व्हाइट हाउस पर सशस्त्र कब्जे को उकसाया। दूसरे लोगों ने इसको विद्रोह ठहराया और फिलहाल जांच चल रही है। तथापि, ट्रंप ने अपना दुष्प्रचार जारी रखा और उनके समर्थक इस पर यकीन भी करते रहे। इसलिए वहां एक सच था, जो आधिकारिक रूप से घोषित था, तो एक वह जो ट्रंप का गढ़ा था। लोग दलगत लीक पर बंटते गए। इस प्रसंग की पहली वर्षगांठ पर राष्ट्रपति बाइडेन ने कहा कि हमें सच की खातिर वही करना है जैसा महान राष्ट्र करते हैं ‘सच का सामना करो, इस पर अमल करो और आगे बढ़ो।’
यहां मैंने अपने देश के कुछ मामलों का जिक्र धार्मिक और भड़काऊ प्रवृत्तियों की वजह से नहीं छेड़ा है। फिर भी, नाटकीय चरित्र वाले राजनेता का अपना सच और झूठ है– आप अपनी पसंद का चुनिए, लेकिन सोच-समझकर। झूठ के अम्बार में सच को छांटना अभी भी मुश्किल है, लेकिन यह उनके लिए आसान है जो देखने के बाद झूठ को झूठ कहने में इच्छुक हैं। बच्चे आज भी मासूम झूठ बोलते हैं लेकिन बड़े लोगों के झूठ और भी दुर्भावनापूर्ण और मुखर होते जा रहे हैं। बच्चों के लिए हम किस किस्म की दुनिया छोड़कर जाएंगे– वह जहां सच और प्रकाश का स्तंभ हो या हर ओर झूठ के पुतले?
आखिरी पंक्तियां उन एजेंसियों के लिए, जिनकी स्थापना दूरद्रष्टा लोगों और संस्थानों ने बड़े आदर्शों और ध्येयों की खातिर की थी ताकि लोगों को मिथ्या और धोखे की भूलभुलैया में सच को ढूंढ़ने में मदद हो सके और वह है- मीडिया। यह माध्यम राज्यस्तरीय अखबारों-पत्रिकाओं से लेकर राष्ट्रीय स्तर का हो या दृश्य-श्रव्य से लैस सोशल मीडिया, उसके मूल आदर्शों की जगह आज सरकार और कॉर्पोरेट चालित मीडिया ने ले ली है। अब इस पर तथ्य और वक्र-तथ्य परोसे जाते हैं, मिथक और हकीकतें हैं, मनगढ़ंत और घुमाकर पेश किए सच की भारी खुराक है… अपनी छवि बरकरार रखने को कभी-कभार असली सच के कुछ दाने भी हैं। इनके बीच बचे-खुचे कुछ प्रकाश स्तंभ हैं जहां ‘सच्ची की रोशनी’ चमकती है। अपनी पूरी ‘आजादी’ के साथ उभरे सोशल मीडिया ने गंदलेपन में और इजाफा किया है और इस माध्यम पर भी वे लोग हावी हो चुके हैं जिन्होंने बड़ी ‘हड़काऊ फौज’ पाल रखी है। इससे आगे हम कहां जाएं और किस पर यकीन करें– सच है कहां? मैं, बतौर एक नागरिक, उम्मीद करता हूं कि मीडिया को होश आए और अपनी इस पुरानी लीक पर लौटे : ‘आप सच की शिनाख्त करें और सच आपको स्वतंत्र बनाएगा।’
लेखक मणिपुर के राज्यपाल,
संघ लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष एवं जम्मू-कश्मीर के पुलिस महानिदेशक रहे हैं।