दीपिका अरोड़ा
ग़ज़ल गायकी की बात छिड़ते ही अक्स में उभरने लगता है एक सजीला नौजवान। सादा मिजाज़ लेकिन अंदाज़ में पुरनूर कशिश। वाद्ययंत्रों की आरोही-अवरोही ताल पर दक्षतापूर्वक नर्तन करते पारंगत सुर और अश-अश करते श्रोतागण। अपनी मखमली आवाज़ के तिलस्म में सहज ही क़ैद कर लेने वाले इस सुरीले जादूगर का जन्म 8 फरवरी, 1941 को श्रीगंगानगर ज़िले में हुआ। नाम मिला ‘जगमोहन सिंह’, जोकि गुरुजी के परामर्श पर कालान्तर में ‘जगजीत सिंह’ बना।
प्रारंभिक शिक्षा श्रीगंगानगर में पूर्ण हुई, आगामी शैक्षणिक पड़ाव बने डी.ए.वी. कॉलेज जालंधर एवं कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय। पिता से विरासती रूप में मिले संगीत-प्रेम को पंडित छगनलाल के गुरुत्व ने शास्त्रीय आधार प्रदान किया। सैनिया घराने के उस्ताद जमाल ख़ान साहिब ने ख्याल, ठुमरी, ध्रुपद की बारीकियां सिखाईं। निरंतर रियाज़ की प्रवृत्ति वर्ष 1961 में उन्हें ऑल इंडिया रेडियो, जालंधर के संगीत-स्टुडियो तक पहुंचाने में क़ामयाब रही। इस दौरान न केवल उन्होंने गीत गाये बल्कि बहुत से नग़मे लिखे भी। पार्श्वगायक बनने की धुन उन्हें 1965 में स्वप्ननगरी मुंबई खींच लाई।
मंज़िल तक पहुंचने का जूनून था, मगर डगर आसान न थी। कभी विज्ञापनों में जिंगल्स गाकर ख़र्चा निकालते, कभी विवाह आदि में गायन करके। फिर 1967 में चित्रा से हुई मुलाक़ात ने जीवन ही बदल डाला। संयुक्त प्रस्तुतियों के माध्यम से लाखों दिलों की धड़कन बना यह सुरीला जोड़ा 1969 में दांपत्य के अटूट बंधन में बंध गया। 1980 के दशक में आया एलबम ‘द अनफॉरगेटेबल्स’ एक स्थापित पहचान लेकर आया। दूसरे रिकॉर्ड ‘कम अलाइव’ को भी भरपूर सराहना मिली। उनके लाइव कॉन्सर्ट भी ख़ासे लोकप्रिय हुए। दूरदर्शन पर प्रसारित धारावाहिक ‘मिर्जा ग़ालिब’ ने उनके गायन को एक विशिष्ट पहचान दी, उनके उत्कृष्ट कार्य को भारत सरकार द्वारा ‘साहित्य अकादमी पुरस्कार’ से नवाज़ा गया। फ़िल्मी सफ़र ने उनकी उम्दा गायकी को शोहरत की बुलंदियों तक पहुंचाया।
बंदिशों में दबी-घुटी ग़ज़ल गायकी को मुक्त करके, एक अनूठी उड़ान देने का श्रेय भी जगजीत सिंह को ही जाता है। तबला, सारंगी, हारमोनियम आदि परम्परागत साज़ों के कुनबे में उन्होंने गिटार, सेक्सोफोन, वॉयलिन, ऑक्टोपेड, कीबोर्ड आदि आधुनिक वाद्ययंत्रों को भी यथेष्ट स्थान दिया। उनकी ‘कहकशां’ तथा ‘फ़ेस टू फ़ेस’ संग्रह की कुछ ग़ज़लों में कोरस का अनोखा प्रयोग देखने को मिलता है। ‘लीला’ फ़िल्म के गीत ‘जाग के काटी रैना’ में उन्होंने गिटार के स्वर का अद्भुत समावेश किया।
तकनीक के साथ नए प्रयोग करना जगजीत सिंह को बेहद भाता था। वे पहले ग़ज़ल गुलुकार थे, जिन्होंने चित्रा के साथ भारत की प्रथम डिज़िटली रिकॉर्डेड कैसेट ‘बीयॉन्ड टाइम’ जारी की। प्रयोगात्मकता के इसी जनून ने उन्हें ‘ग़ज़ल सम्राट’ कहलवाने का हक़ दिलाया। वर्ष 1998 में मध्य प्रदेश सरकार ने उन्हें ‘लता मंगेशकर’ पुरस्कार प्रदान किया तथा राजस्थान सरकार ने ‘साहित्य कला अकादमी पुरस्कार’ से अलंकृत किया। 2003 में भारत सरकार द्वारा वे ‘पद्म भूषण’ से सम्मानित किए गए।
वर्ग विशेष के लिए संरक्षित समझी जाने वाली ग़ज़ल को खुला आसमां देकर जगजीत सिंह ने इसे अत्यंत लोकप्रिय बनाया। करोड़ों लोगों को अपना दीवाना बनाने वाले जगजीत ने मीरो-ग़ालिब से लेकर फ़ैज़-फ़िराक तक और गुलज़ार-निदा फ़ाज़ली से लेकर राजेश रेड्डी तथा आलोक श्रीवास्तव तक, हर दौर के शायर को अपनी आवाज़ दी। ‘अब मैं राशन की कतारों में नकार आता हूं…’, ‘मैं रोया परदेस में…’, जैसी रचनाओं ने ग़ज़ल न सुनने वालों का ध्यान भी आकर्षित किया। दशमेश गुरु गोबिंद सिंह जी के ‘मितर प्यारे नूं हाल मुरीदां दा कहणा’ को रूहानी आवाज़ देना हो या शिव बटालवी के क़लमबद्ध जज़्बातों को नाज़ुक सुरों में पिरोना, दिवंगत प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी लिखित कविता ‘क्या खोया, क्या पाया’ को अपना सुमधुर स्वर देना या फिर हस्तीमल ‘हस्ती’ जैसे उभरते शायरों को लोगों से परिचित कराना, जगजीत हमेशा ही आगे रहे। ‘हे राम’ उनका बेहद मक़बूल भजन संग्रह रहा। उनकी गाई ‘वारिस शाह की हीर’ सुनकर श्रोता अपनी सुध-बुध भूल बैठते।
ज़िंदगी में इम्तेहान भी कम न थे। पुत्र विवेक तथा पुत्री मोनिका की असमय मृत्यु ने चित्रा के सुर छीन लिए लेकिन जगजीत ने नियति की इस विडंबना को सुरों के सुपुर्द कर दिया। 70 वर्ष की वय में दैहिक विछोह देने वाले जगजीत सिंह अपनी 83वीं जन्म जयंती के अवसर पर मानो गुनगुना रहे हों :-
कभी ख़ामोश बैठोगे,
कभी कुछ गुनगुनाओगे।
मैं उतना याद आऊंगा,
मुझे जितना भुलाओगे।