अरुण नैथानी
एक तलाकशुदा स्त्री और दो बच्चों की परवरिश की जवाबदेही। छोटी उम्र में शादी के चलते सिर्फ इंटरमीडियट तक ही पढ़ पाई। सेना में अफसर बनने का जो सपना था उसे दफन करके ससुराल चली गई। लेकिन बड़े परिवार में जीवन सामान्य नहीं रहा। शादी के पांच साल उपरांत तलाक होने पर दो बच्चों के साथ मायके भेज दी गई। इन मुश्किल हालात में आशा और विश्वास का संकल्प लिये आशा कंडारा ने बीस साल बाद फिर से पढ़ाई शुरू की। पहले स्नातक किया और फिर अपने सपनों को परवाज दी। एक तलाकशुदा स्त्री का जीवन दकियानूसी समाज में कितना मुश्किल भरा है, यह आशा ने गहरे तक महसूस किया। उसने जातिवादी सोच के दंश भी झेले। लोगों ने ताने मारे—बड़ी कलेक्टर लगी है? तेरे घर वाले कलेक्टर हैं? ये ताने उसके संकल्प को और मजबूत कर गये। उसने इन तानों को प्रेरणा के तौर पर लिया।
दरअसल, आशा कंडारा ने मशहूर साहित्यकार टॉलस्टॉय के उस कथन को जीवन का अस्त्र बना लिया था, जिसमें उन्होंने कहा था कि धैर्य व समय के जरिये हर बड़ी लड़ाई जीती जा सकती है। उसने इन हथियारों को जीवन-युद्ध लड़ने का जरिया बना लिया। लोगों के तानों ने उसे प्रेरित किया कि वह बड़ी अधिकारी बनकर समाज के वंचितों के लिये काम करेगी। अनुसूचित जाति से आने वाली आशा अपने पिता को अपनी प्रेरणा बताती है, जिन्होंने शिक्षा के महत्व को दर्शाया और अपने जीवन का मकसद हासिल किया। आशा उन लोगों में शामिल नहीं रही जो अपनी मुश्किल समय के लिये किस्मत को दोष देते हैं, सिस्टम को कोसते हैं। सही मायनों में आशा ने पूरे देश की महिलाओं को आशा की नई किरण दिखायी है कि चूल्हे-चौके से बाहर भी बड़ी दुनिया है, जिसे संघर्ष व धैर्य से हासिल भी किया जा सकता है।
अपने बच्चों के भरण-पोषण के लिये जोधपुर में एक सफाईकर्मी का काम करने वाली आशा भारतीय बेटियों के लिये एक जीवंत मिसाल बन गई हैं। चालीस साल की उम्र में आशा राजस्थान प्रशासनिक सेवा के लिये चुनी गईं। उसने कड़ी मेहनत के बाद बेहद कठिन माने जाने वाली इस प्रशासनिक सेवा में 728वां रैंक हासिल किया है। उसकी कामयाबी कई मायनों में बेमिसाल है। हालांकि, कोरोना संकट के चलते परीक्षा का अंतिम परिणाम आने में करीब दो वर्ष का समय लगा, लेकिन आशा ने धैर्य नहीं खोया। आरएएस की प्रारंभिक परीक्षा देने के बाद उसे जोधपुर में सफाई कर्मचारी की नौकरी मिली। उसने मन लगाकर काम किया। आशा कहती है कि कोई काम छोटा-बड़ा नहीं होता। सुबह छह बजे सड़कों पर सफाई के लिये निकलना। ड्यूटी पूरी करके घर का काम करना, बच्चों की देखभाल करना और फिर आरएएस की परीक्षा की तैयारी करना। सही मायनों में कितना बड़ा संघर्ष था आशा का? समय कम पड़ता तो अपनी नींद में कटौती करती। काम पर भी जाती तो किताब लेकर जाती ताकि समय मिले तो कुछ पढ़ सके। दरअसल, जब बत्तीस साल की उम्र में तलाक हुआ तो वह दो बच्चों की मां थी। उसके बाद स्नातक स्तर की पढ़ाई पूरी की और आरएएस की तैयारी। उस पर तलाक लेने की वजह से रिश्तेदारों व रूढ़िवादी समाज के ताने। आशा ने इन तानों को ही अपना हथियार व प्रेरणा बनाया। वंचित समाज से आने के बावजूद पिता ने शिक्षा के महत्व को बताया और उसे पढ़ने को प्रेरित किया। पिता राजेंद्र कंडारा एफसीआई से लेखाकार के पद से सेवानिवृत्त हुए थे। आशा कहती है कि मेरा लोगों से आग्रह है कि वे अपने बच्चों को पढ़ाएं, बिना पढ़ाई के कुछ भी हासिल नहीं होता।
वहीं समाज में जड़ें जमाने वाला जातिवाद भी कहीं न कहीं आशा को टीस देता रहा है। आशा कहती है कि समाज में ही नहीं, सरकारी तंत्र में जातिवाद गहरी पैठ बनाये हुए है। लेकिन इसके बावजूद उनका मानना है कि उच्च पद पर रहते हुए वह लोगों की भलाई के लिये हर हाल में कार्य करती रहेगी। युवाओं को आगे बढ़ने के लिये निरंतर प्रेरित करती रहेगी।
निस्संदेह, चुनौतियों को अपनी ताकत बना लेने वाली आशा अंतत: अपनी उम्मीदों को उड़ान देने में सफल हुई है। उसने उलाहनों को अपनी प्रेरणा बना लिया, जो लोग उसे टोका करते थे यहां न बैठो, वहां न बैठो। तुम्हारा बाप कलेक्टर लगा है। तो उसने दुनिया को कलेक्टर बनकर दिखा दिया है। लेकिन अपनी सोच को हमेशा बड़ा रखा। चुनौतियों से हार नहीं मानी। आशा स्वयं कहती है कि कोई काम छोटा या बड़ा नहीं होता। हमारे जीवन का लक्ष्य बड़ा होना चाहिए। निस्संदेह, इतनी विषम परिस्थितियों में भी कठिन संघर्ष से एक महिला का अपना आसमां हासिल करना बड़ी बात है। आशा की यह कामयाबी उन तमाम महिलाओं के लिये प्रेरणादायक है जो कई तरह की त्रासदियों से गुजरते हुए भी हालात को अपनी किस्मत मानकर इसे चुपचाप सह रही हैं।