पुष्परंजन
मंगलवार शाम सूर्य अस्त था, नेपाल मस्त था। बालुआटार स्थित प्रधानमंत्री निवास गुलजार था। के.पी. शर्मा ओली 70वें जन्मदिन की बधाइयां ले रहे थे। पीएम आवास पर ओली के लिए चौथी बार भव्य आयोजन रखा गया था। इसे अब आखि़री बार मानकर चलिये। नेपाली कैलेन्डर के अनुसार, 2074 फागुन 3 गते को पीएम ओली जीवन के 70वें वसंत में प्रवेश कर चुके थे। उधर, सर्वोच्च अदालत में संसद की फिर से बहाली को लेकर सुनवाई चल रही थी। जश्न का माहौल और उसमें शिरकत करने वाले तमाम मंत्री-शिखर अधिकारी सुनिश्चित थे कि फैसला प्रधानमंत्री के पक्ष में आएगा, चुनाव होकर रहेगा। मगर, कोर्ट के फैसले ने रंग में भंग की स्थिति पैदा कर दी। सर्वोच्च अदालत का निर्णय था, ‘प्रतिनिधिसभा का विघटन संबंधी आदेश को हम असंवैधानिक मानते हैं। संसद के निचले सदन की फिर से बहाली हो।’
लोगों को भरोसा नहीं था कि प्रधान न्यायाधीश चोलेन्द्र शमशेर जबरा इस तरह का फैसला देकर इतिहास रचेंगे। सुप्रीम कोर्ट की पांच सदस्यीय पीठ ने यह फैसला देकर लोकतंत्र को अधिनायकवाद से बचाने की चेष्टा की है। प्रधान न्यायाधीश चोलेन्द्र शमशेर जबरा के नेतृत्व वाली पीठ में जस्टिस विश्वंभर प्रसाद श्रेष्ठ, अनिल कुमार सिन्हा, सपना मल्ल और तेज बहादुर केसी जैसे चार और न्यायमूर्ति शामिल थे। 17 जनवरी से 19 फरवरी, 2021 तक इस महत्वपूर्ण मामले की सुनवाई पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने की थी।
यों, वहां नेता और जनता ने मान लिया था कि ओली की कृपा से चीफ जस्टिस का पद प्राप्त करने वाले चोलेन्द्र शमशेर जबरा वही फैसला देंगे, जो ‘बालुआटार’ चाहेगा। ओली का अक्खड़ अंदाज़ अभी बदला नहीं है। उन्होंने अपने प्रेस सचिव सूर्य थापा के माध्यम से बयान दिलवाया है कि सर्वोच्च अदालत का फैसला विवादास्पद है। इससे देश में अस्थिरता बढ़ेगी। प्रधानमंत्री ओली प्रतिनिधिसभा का सामना करेंगे और तत्काल इस्तीफा नहीं देंगे।
इस समय देश के समक्ष सबसे बड़ा सवाल संसद के निचले सदन ‘प्रतिनिधि सभा’ की पुनर्स्थापना का है। नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी (नेकपा) के दाहाल-नेपाल समूह ने संसदीय दल की बैठक बुलाई है। बुधवार शाम को आहूत इस बैठक में संभव है कि ओली गुट से टूट कर कुछ सभासद आ जाएं। सर्वोच्च अदालत की पांच सदस्यीय पीठ ने 13 दिनों के भीतर संसद सत्र बुलाने का आदेश दिया है। पीठ ने अपनी टिप्पणी में कहा कि नेपाली संविधान के अनुच्छेद 76 (7) के तहत नई सरकार के गठन की संभावना अब भी है। हालांकि, यह दिलचस्प है कि अनुच्छेद 76 (7), अनुच्छेद 85, 76 (1) के हवाले से ओली कैबिनेट ने संसद भंग की सिफारिश की थी। ओली ने कहा था कि दाहाल और नेपाल की जोड़ी हमें सरकार चलाने नहीं दे रही, बार-बार संसद में बाधा उत्पन्न कर रही है।
275 सदस्यीय नेपाली संसद के निचले सदन ‘प्रतिनिधि सभा’ में बहुमत सिद्ध करने के वास्ते 138 सदस्य चाहिए। नेकपा जब विभाजित नहीं थी, और सत्ता में थी, तब निचले सदन में इनकी सदस्य संख्या 174 थी। इस समय ओली खेमे में 81 सांसद हैं, और दाहाल-नेपाल गुट के पास 93 सांसद हैं। ज़ाहिर-सी बात है, विभाजित नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी का कोई भी गुट सरकार बनाने की हालत में नहीं है। क्या इस वास्ते 63 सभासदों वाली नेपाली कांग्रेस का आसरा है? नेकां अध्यक्ष शेर बहादुर देउबा इसके लिए तैयार हैं और यदि हैं भी तो महत्वपूर्ण मंत्रालयों में कौन से महकमे के लिए यह समूह सौदेबाज़ी करेगा।
एक दूसरा समूह जनता समाजवादी पार्टी नेपाल (पीएसपी-एन) है, इसके 34 सभासद निचले सदन में हैं। महंथ ठाकुर, उपेन्द्र यादव और राजेन्द्र महतो जैसी त्रिमूर्तियों को साधने के बाद ‘पीएसपी-एन’ से समर्थन की उम्मीद बनती है। प्रचंड व माधव कुमार नेपाल गुट के 93 संासदों के साथ 34 ‘पीएसपी-एन’ सदस्यों के आ जाने पर भी सरकार नहीं बन पायेगी। इनके अलावा चार निर्दलीय सांसद प्रतिनिधि सभा में हैं, इनके किसी भी गुट में आ जाने से कोई फर्क़ नहीं पड़ता है।
ओली यदि पद से इस्तीफा नहीं देते हैं, तो दूसरा रास्ता उनके विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव ही दिखता है। नेपाली संविधान के अनुच्छेद 100 (4) के अनुसार, ‘प्रधानमंत्री के निर्वाचित होने के दो साल बाद तक उनके विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव नहीं ला सकते।’ ओली इस अवधि को पार कर चुके हैं। चुनांचे उन पर अनुच्छेद 100 की उपधारा 1 व 2 के अनुरूप अविश्वास प्रस्ताव सदन में रखा जा सकता है। पीएम ओली के विरुद्ध पहले से ही संसद के सचिवालय में यह प्रस्ताव दर्ज़ है, उसी के आगे-पीछे उन्होंने निचले सदन को भंग किये जाने की सिफारिश राष्ट्रपति विद्या देवी भंडारी से की थी।
इस पूरे प्रकरण में राष्ट्रपति की भूमिका अहम हो जाती है। संसद की बैठक भी उन्हें आहूत करनी है, नई सरकार को शपथ भी उन्हें दिलानी है। इसके उपरांत एक निश्चित अवधि में नई सरकार को सदन में संख्या बल भी साबित करना है। मगर, क्या राष्ट्रपति विद्या देवी भंडारी इस तरह की प्रक्रिया के वास्ते स्वयं को सहज कर पायेंगी? पूरा देश जानता है कि केपी शर्मा ओली उनकी कमज़ोरी रहे हैं। इसे कमज़ोरी कहें अथवा ‘बालुआटार’ की बलजोरी, मगर 20 दिसंबर, 2020 को निचले सदन को भंग करने और अप्रैल-मई, 2021 में मध्यावधि चुनाव कराने का आदेश राष्ट्रपति के हस्ताक्षर से ही जारी हुआ था। विद्या देवी भंडारी की भी ज़िम्मेदारी बनती है कि ऐसे आदेश देने से पहले क़ानूनविदों की राय लेनी चाहिए थी। राष्ट्रपति के इस आदेश के विरुद्ध 13 याचिकाएं सर्वोच्च अदालत में सुनवाई के वास्ते थीं।
काठमांडो इस समय राजनीतिक रूप से गर्माया हुआ है। पुष्पकमल दाहाल ‘प्रचंड’ और उनके मित्र माधव कुमार नेपाल को लग रहा है कि सरकार बनाने में देर नहीं करनी चाहिए। दोनों ने बुधवार को ‘विजय रैली’ निकाली। इस बीच नेकपा के उपाध्यक्ष बामदेव गौतम के दो बयान अर्थपूर्ण हैं। पहले बयान में वामदेव गौतम ने कहा कि केपी शर्मा ओली अविलंब इस्तीफा दें। दूसरे में कहा कि राष्ट्रपति विद्या देवी भंडारी को सर्वोच्च अदालत के आदेश का स्वागत करना चाहिए। इस पूरे प्रकरण में बामदेव की भूमिका ढुलमुल रही थी। उन्हें प्रचंड का करीबी माना जाता था, मगर संसद भंग करने के दौरान ओली के बैठक में उनकी उपस्थिति को देखकर लोग हैरान हो गये थे। अब उन्होंने ओली से इस्तीफा मांगकर इस कैंप को हतप्रभ किया है। राजनीति में ऐसे लोग बेपेंदी का लोटा ब्रांड कर दिये जाते हैं, इस बात को बामदेव गौतम को समझना चाहिए। आने वाले दिनों में सबसे बड़ी दिक्कत का सामना राष्ट्रपति भंडारी को करना है। वो महाभियोग से बचने की मन्नतें मांगती रहें।
लेखक ईयू-एशिया न्यूज़ के नई दिल्ली संपादक हैं।