कई माह पहले की बात है। सोसायटी के पार्क में बैठी थी। सर्दी के कारण धूप भी बहुत अच्छी लग रही थी। कि तभी एक परिचित महिला आ गई। उनके साथ उनकी युवा बेटी भी थी। बेटी तो घर चली गई, महिला पास ही बैठ गई। पता चला कि बेटी को डाक्टर को दिखाकर आ रही हैं। क्या हुआ पूछने पर माथे पर हाथ मारकर बोलीं-क्या बताऊं, अगर इसके सिर में दर्द हो जाए, एक छींक भी आ जाए तो पूरे घर को सिर पर उठा लेती है। फौरन डाक्टर के पास जाने को कहती है। पिछले दिनों खांसी हुई थी तो मैंने कहा शहद, काली मिर्च, अदरक दे देती हूं, खांसी-जुकाम ठीक हो जाता है, मैं बचपन से खाती आ हूं, मगर नहीं मानी। कहने लगी अगर तुम्हारे इलाज से ही सब ठीक हो जाएं तो डाक्टर तो अपनी प्रैक्टिस छोड़कर घर बैठ जाएं। तुम ही डाक्टर बन जाओ। मुझे नहीं खाना शहद, अदरक। डाक्टर के पास चलो। डाक्टर के पास ले गई। वहां ऐसी दवा मिली कि खांसी सूख गई।
वह और परेशान है। कहती है कि पता नहीं मुझे क्या हो गया है। रात-रात भर खांसती है। कहती है कि अगर दो दिन में ठीक नहीं हुई तो अस्पताल में दाखिल हो जाएगी। डाक्टर ने दवा बदली है, मगर यह इलाज को भी टू मिनट नूडल समझती है कि इधर गोली खाए और उधर एकदम से ठीक हो जाए। ऐसा भी कहीं होता है। डाक्टर के पास कोई जादू थोड़े ही है। दवा को भी असर करने में वक्त लगता है। इस जेनरेशन में अधिकांश युवाओं का यही हाल है। मामूली चीजों के लिए भी किसी इमरजेंसी की तरह डाक्टर के पास भागते हैं, जबकि बहुत-सी चीजें घरेलू ढंग से भी ठीक हो सकती हैं।
मैंने कहा-हां, यूरोप और अमेरिका में तो बुखार के लिए भी बहुत से डाक्टर दवा तक नहीं देते। कहते हैं कि घर जाकर आराम करो। अपने आप ठीक हो जाएंगे। जबकि अपने यहां हर जगह यही सलाह दी जाती है कि जल्दी से जल्दी डाक्टर के पास जाएं। कई बार डाक्टर भी ऐसे मरीजों से तंग आ जाते हैं। फिर गम्भीर बीमारियों को लेकर दुनियाभर में डर इतना ज्यादा है कि लगता है कि कहीं कोई फोड़ा हो जाए, कोई गिल्टी हो जाए, कहीं से खून निकलने लगे तो पहला खयाल यही आता है कि कहीं कैंसर तो नहीं।
कई साल पहले अमेरिका में रहने वाले एक भारतीय युवा को रात में पेट दर्द हुआ। अगली सुबह डाक्टर ने बहुत से टेस्ट्स लिखे। टेस्ट्स की रिपोर्ट लेकर वह फिर डाक्टर के पास पहुंचा। डाक्टर को रिपोर्ट्स से कुछ समझ में नहीं आया तो उसने फिर टेस्ट्स लिखे। ऐसा कई दिन तक होता रहा। लड़का पेट दर्द से परेशान था। रह-रहकर दर्द हो रहा था। लड़के ने तंग आकर डाक्टर से पूछा कि आखिर उसे क्या लग रहा है। किस कारण से दर्द हो रहा है। डाक्टर ने कुछ झिझकते हुए कहा कि वह किसी तरह के कैंसर का शक कर रहा है। लड़का घबरा गया। घर वापस आकर सोचने लगा कि क्या करे। बूढ़े माता-पिता को यह खबर मिलेगी, तो उन पर क्या गुजरेगी। लेकिन क्या करता। अंत में उसने अपनी मां को पेट दर्द के बारे में बताया। मां ने कहा कि नीबू पानी में काला नमक और भुना जीरा डालकर दो-तीन दिन तक दिन में कई बार पिए और खाने में खिचड़ी, दलिया ही खाए।
युवा ने मां के बताए करना शुरू किया और आश्चर्य उसका पेट दर्द ठीक हो गया, लेकिन अभी असली किस्सा बाकी था। जिस डक्टर से इलाज कराया था और जिस लैब से टेस्ट्स, वहां का बिल आया, इक्कीस हजार डालर। जो रोग मामूली-सा था, काले नमक और नीबू पानी और खान-पान में परहेज से ठीक हो गया, उसके लिए युवा को इतनी बड़ी रकम चुकानी पड़ी।
यह हर बात पर जो इमरजेंसी और भयंकर रोग लगता है हो सकता है कि वह कुछ न हो जैसा कि उस युवक के साथ हुआ फिर भी भारी-भरकम रकम चुकानी पड़ी। क्योंकि पूरे विश्व में मेडिकल सेक्टर आजकल समाज सेवा नहीं पैसा कमाने का धंधा है।
हालांकि आज भी अपने देश में ऐसे बहुत से डाक्टर्स हैं जो बहुत मामूली फीस में इलाज करते हैं। अपने मरीजों की परवाह करते हैं। जरूरत से ज्यादा टेस्ट्स नहीं कराते। मरीजों की बात भी सुनते हैं। लेकिन अक्सर ये परिदृश्य से गायब रहते हैं। इनकी चर्चा करने की जरूरत भी कोई नहीं समझता। अक्सर मीडिया में भी ब्रांड वाले महंगे डाक्टर्स की चर्चा होती है। युवा किसी बीमारी में इन्हीं से समय मिलने की चाहत रखते हैं। फिर युवाओं में एक असुरक्षा की भावना भी होती है जो छोटी-मोटी तकलीफों में भी डाक्टर के पास जाना चाहते हैं।
कारण यह भी है कि जहां काम करते हैं, वहां भी बीमारी को किसी आफत की तरह देखा जाता है। अगर बीमारी की बात तक करें तो कह दिया जाता है कि यार बीमार ही पड़ते रहोगे तो नौकरी कैसे करोगे। कोई बीमारी की ज्यादा छुट्टी ले, तो उसे बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता है। इसलिए वे जल्दी से जल्दी ठीक होना चाहते हैं। इसीलिए जरा से जुकाम-खांसी को भी वे कोई खतरनाक बीमारी समझते हैं। जबकि बहुत-सी बीमारियों में घरेलू इलाज और उपाय भी बहुत कारगर होते हैं।
पहले कहा जाता था कि साल में एक बार पूरे शरीर का चैकअप करा लेना चाहिए, फिर कहा गया कि छह महीने में और अब तीन ही महीने में। हम जानते हैं कि इस तरह के टेस्ट्स में बहुत-सी पैथ लैब्स और बहुत से डाक्टरों की क्या भूमिका होती है। डाक्टर, पैथ लैब और दवा बनाने वाली कम्पनियों का ऐसा माफिया तैयार हो गया है कि हर बात पर भारी-भरकम कमीशन बंधा होता है। कई बार दवाएं और टेस्ट्स इतने महंगे होते हैं कि उन्हें साल भर में भी कोई मुश्किल से करा सकता है, तीन महीने की तो बात ही क्या है। ऐसे में उस साधनहीन के बारे में कौन सोचे जिसके पास दिहाड़ी के काम हैं। जो दो वक्त की रोटी भी मुश्किल से जुटाता है, ऐसे में बीमार पड़े और कोई ऐसी बीमारी घेर ले जिसमें महंगी दवाएं, डाक्टर की महंगी फीस और महंगे टेस्ट्स कराने पड़ें तो भगवान मालिक है।
इसके अलावा कई बार रिपोर्ट्स गलत होती हैं, वह रोग होता ही नहीं जिसका इलाज किया जाता है और आदमी दुर्गति में फंसता है। इलाज के जरिए लूट के किस्से आम हो चले हैं। मनुष्य ऐसे जंजाल में फंसा है कि निकलना मुश्किल है। कौन है जो उसकी सुन भर ले। कई बार तो होता यह है कि डाक्टर मरीज की बात सुनना ही नहीं चाहते। वह दवाएं और टेस्ट्स पहले लिखने लगते हैं। रोग पकड़ में नहीं आता तो टेस्ट्स पर टेस्ट्स होते हैं। पैसा कितना खर्च होता है, इसका हिसाब भी नहीं।
लेखिका वरिष्ठ पत्रकार हैं।