योगेन्द्र नाथ शर्मा ‘अरुण’
बड़े बुजुर्गों को आपने अक्सर कहते सुना होगा कि जो भी रास्ते में मिले, उसे ‘राम-राम’ जरूर करनी चाहिए क्योंकि इससे आदमी को आशीर्वाद प्राप्त होता है। आज भी आप अगर किसी गांव में चले जाएं, तो आपको भले ही कोई जानता हो या न जानता हो, लेकिन ‘राम-राम जी’ अवश्य कर लेगा। आयु के हिसाब से अगर सामने वाला बड़ा हुआ तो बाबाजी राम-राम या ताऊ जी राम-राम जैसा संबोधन मिलेगा और सामने कोई बुजुर्ग महिला हुई तो दादी, राम-राम या ताई, राम-राम की आवाज़ कानों में पड़ेगी और उत्तर में सुनाई देगा जीते रहो भाई, खूब नाम हो या जीती रह बेटी, दूधो नहाओ, पूतो फलो आदि-आदि।
लेकिन, जाने क्या हुआ कि महानगरों और शहरों में आकर आदमी ‘अभिवादन’ का यह संस्कार भूलता जा रहा है। अजीब -सा अजनबीपन हमें दिनोंदिन घेरता जा रहा है और हमारी युवा पीढ़ी भी अब हेलो और हाय को ही अभिवादन मानने लगी है।
हमारे शास्त्रकारों ने अभिवादन के विषय में बड़ी ही महत्वपूर्ण बात कही है :-
अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविनः।
चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुर्विद्या यशोबलं।
अर्थात् जो अभिवादनशील होते हैं, उनकी आयु, विद्या, यश और बल की नित्य वृद्धि होती है। इसी के तहत महाभारत के युद्ध के समय का अत्यंत मार्मिक और प्रेरक प्रसंग है—
महाभारत का युद्ध चल रहा था। एक दिन दुर्योधन के व्यंग्य से आहत होकर भीष्म पितामह घोषणा कर देते हैं कि मैं कल पांडवों का वध कर दूंगा। उनकी इस घोषणा का पता चलते ही पांडवों के शिविर में बेचैनी बढ़ जाती है।
भीष्म पितामह की क्षमताओं के बारे में सभी को पता था, इसलिए सभी किसी अनिष्ट की आशंका से परेशान हो गए। तब, श्रीकृष्ण ने द्रौपदी से कहा— अभी मेरे साथ चलो और श्रीकृष्ण द्रौपदी को लेकर सीधे भीष्म पितामह के शिविर में पहुंच गए। शिविर के बाहर खड़े होकर उन्होंने द्रौपदी से कहा कि तुम अन्दर जाकर पितामह को प्रणाम करो।
द्रौपदी ने अन्दर जाकर पितामह भीष्म को प्रणाम किया तो उन्होंने द्रौपदी को अखंड सौभाग्यवती भव का आशीर्वाद दे दिया। फिर उन्होंने द्रौपदी से पूछा कि बेटी, तुम इतनी रात में अकेली यहां कैसे आई हो? क्या तुमको श्रीकृष्ण यहां लेकर आये हैं? तब द्रोपदी ने कहा कि हां, और वे कक्ष के बाहर खड़े हैं। तब भीष्म पितामह भी कक्ष के बाहर आ गए और दोनों ने एक-दूसरे को प्रणाम किया।
भीष्म ने कहा— मेरे एक वचन को मेरे ही दूसरे वचन से काट देने का काम श्रीकृष्ण ही कर सकते हैं। और भीष्म हंस पड़े। शिविर से वापस लौटते समय श्रीकृष्ण ने द्रौपदी से कहा कि तुम्हारे एक बार जाकर पितामह को प्रणाम करने से तुम्हारे पतियों को आज जीवनदान मिल गया है। अगर तुम प्रतिदिन भीष्म, धृतराष्ट्र, द्रोणाचार्य आदि को प्रणाम करती होती और दुर्योधन-दुशासन आदि की पत्नियां भी पांडवों को प्रणाम करती होती तो शायद इस महायुद्ध की नौबत ही न आती।
वर्तमान में हमारे घरों में जो इतनी समस्याएं हैं, उनका भी मूल कारण यही है कि जाने-अनजाने अक्सर घर के बड़ों की हमसे उपेक्षा हो जाती है। यदि घर के बच्चे और बहुएं प्रतिदिन घर के सभी बड़ों को प्रणाम करके उनका आशीर्वाद लें तो शायद किसी भी घर में कभी भी कोई क्लेश ही न हो।
मेरा अनुभव यही है कि बड़ों के दिये हुए आशीर्वाद रक्षा-कवच की तरह काम करते हैं और उनको कोई अस्त्र-शस्त्र नहीं भेद सकता। सही मायनों में तो यह हमारी भारतीय संस्कृति की ऐसी अनूठी देन है, जो बिना जाने ही, अनजान को भी अपना बना देती है। महाकवि जय शंकरप्रसाद की कामायनी का मूल मंत्र यही अपनत्व की अजेय संस्कृति ही तो है, जब मनु को श्रद्धा कहती है :-
औरों को हंसते देखो मनु,
हंसो और सुख पाओ।
अपने सुख को विस्तृत कर लो,
सबको सुखी बनाओ।
सच तो यही है कि आत्मीयता की इस संस्कृति को अगर हम सभी जीवन में अपनाना सुनिश्चित कर लें तो हर घर स्वर्ग बन जाएगा। आइए, संकल्प करें कि हम हर व्यक्ति को उसकी आयु के अनुरूप यथायोग्य अभिवादन करके अपनी आयु, विद्या, यश और बल की वृद्धि सुनिश्चित जरूर करेंगे। किसी को नमस्कार, राम-राम या गुड मॉर्निंग कहने से अगर हमारा दिल खुशियों से भर सके तो फिर कैसा हिचकिचाना? आप सबको नमस्कार।