एक नवंबर, 1966 को अस्तित्व में आने वाला हरियाणा का वर्तमान प्रदेश अपने अतीत की छाया मात्र है। किसी समय राजस्थान के भरतपुर, अलवर, धौलपुर, गंगानगर, उत्तर प्रदेश के मेरठ, इटावा, मैनपुरी, मथुरा-आगरा का प्रचुर भाग, दिल्ली प्रदेश तथा वर्तमान हरियाणा शामिल थे। क्षेत्र की राजधानी दिल्ली थी। यहां के लोग कुशल योद्धा स्वीकार किये गये हैं। यहां की महिलाएं अपने पुत्रों-पौत्रों को ‘यदर्थं क्षत्रिया सूते तस्य कालोऽयमागतः’ का उपदेश देकर युद्ध में मरने-मारने का आदेश देती थी। धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र में कुछ काल के लिए युद्ध से विमुख होने वाले अर्जुन को श्रीकृष्ण ने कहा था—‘हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम्। तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चयः॥’ हरियाणा के वीरों का यही आदर्श रहा है।
वीरों के चार प्रकार कहे गए हैं— युद्धवीर, दानवीर, दयावीर तथा धर्मवीर। हरियाणा में चारों प्रकार के वीरों की समृद्ध परम्परा रही है। किसी समय अंग्रेजों के शासनकाल में गोवध का कार्य भी चलता था। जुलाणी (जींद) के धर्मवीर हरफूल ने इन लोगों से लोहा लिया। कलानौर के नवाबों से संबंधित एक प्रसंग है जो दुराचार की कुत्सित परंपरा को अपनी ताकत से जारी रखे हुए थे। गठवाला के मलिक गोत्रीय जाटों ने इस अधार्मिक एवं असामाजिक कार्य का अंत किया। तैमूर ने अढ़ाई लाख सैनिकों के साथ जब भारत पर आक्रमण किया तो सर्वखाप पंचायत के नेतृत्व में 80 हजार पुरुषों तथा 40 हजार वीरांगनाओं ने, जोगराज के नेतृत्व में शत्रु के 75 हजार सैनिकों का संहार कर दिया। नारनौल की ‘गोसाई सेना’ ने गुरु तेग बहादुर की शहादत को लेकर मुगल सम्राट औरंगजेब की नाक में दम कर दिया।
रेवाड़ी में जन्मे वीर नायक हेमू का वृत्त अत्यंत रोमांचकारी है। प्रतिदिन रुपये- सवा रुपये का सौदा बेच कर आना-दो आना कमाने वाला वह अपने बुद्धि-चातुर्य, बाहुबल के सहारे विक्रमादित्य की उपाधि धारण कर दिल्ली के सिंहासन पर आरूढ़ हुआ। 5 नवंबर, 1556 को हेमू तथा मुगलसेना के मध्य पानीपत में भयानक संघर्ष हुआ। इसमें हेमू की विजय निश्चित थी, परंतु दुर्भाग्य से एक तीर उसकी आंख में लगा। वह अचेत हो गया और सेना भाग खड़ी हुई। मुगल बादशाह अकबर ने अधर्म से बेहोश हेमू की हत्या कर दी।
अमर सेनानियों एवं बलिदानियों में नाहर सिंह का स्थान विशिष्ट है। उसने बल्लभगढ़ में आर्य राज्य स्थापित किया। मुगल सेना का बल्लभगढ़ पर विजय प्राप्त करने का स्वप्न स्वप्न ही रहा। उससे संधि कर मुगल साम्राज्य का संपूर्ण उत्तरदायित्व इस वीर को सौंप दिया गया। मुगल सम्राट बहादुर शाह के सिंहासन के समीप ही उसे स्थान प्राप्त था। जब अंग्रेजी सेना बल्लभगढ़ पर अधिकार न कर पाई तो बहादुरशाह से संधि का नाटक कर इस महावीर के इसके तीन साथियों सहित फांसी पर लटका दिया गया।
फर्रुखनगर के नवाब गयासुद्दीन भी अंग्रेजों के लिए कम सिर-दर्द नहीं थे। उन पर विजय प्राप्त कर अंग्रेजों ने अमानवीय ढंग से नवाब की खाल उतरवा दी। संघर्षों तथा क्रांतियों का जन्म अत्याचार की कोख में होता है। राष्ट्र प्रेम की भावना व्यक्ति को धर्म-जाति के संकीर्ण बंधन से निकाल देती है। मेव वीर हसन खां का योगदान इसी भावना का प्रतीक था। उसने खानवा के युद्ध में बाबर को सहयोग न देकर राणा सांगा का साथ दिया था। वीर चूड़ामणि तथा सिन्यासी के जमींदार राजाराम की देन भी कम नहीं। इतिहासकार यदुनाथ ने चूड़ामणि के संबंध में लिखा है—वह लड़ाकू भी था और राजनीतिज्ञ भी।
9 मई, 1957 को जब मेरठ छावनी में सैनिकों ने विद्रोह किया तो अम्बाला छावनी में भी विद्रोह हुआ। सैनिकों ने अंग्रेज अफसरों को बंदी बना लिया। स्थान-स्थान पर विद्रोह की ज्वाला भड़क उठी। अम्बाला छावनी में इसी संदर्भ में स्मारक का निर्माण हो रहा है।
हांसी के कानूनगो लाल हुक्मचंद तथा उनके मित्र मुनीर बेग ने बहादुरशाह जफर की वित्तीय सहायता की थी। इन्हें फांसी पर लटका दिया गया। हरियाणा के तीन शासकों फर्रुखनगर के नवाब अहमद अली गुलाम खां, बल्लभगढ़ के राजा नाहर सिंह, झज्जर के नवाब अब्दुर्रहमान ने देशप्रेम की भावना से प्रेरित होकर बहादुर शाह जफर का साथ दिया था तो इन्हें दिल्ली में फांसी दे दी गई। रानियां के नवाब नूर समद खां ने अपने 600 साथियों का बलिदान देकर अंग्रेजों से संघर्ष किया।
अमर सेनानी किशन गोपाल मेरठ में कोतवाल के रूप में तैनात थे। उन्होंने त्यागपत्र दिया। विद्रोहियों का दमन करने वाले अधिकारियों का सफाया किया और रेवाड़ी में स्वतंत्रता की ज्योति जलाये अपने भाई राज तुलाराम के साथ स्वतंत्रता का शंखनाद किया। 2 जून, 1913 को लाला हरदयाल की प्रेरणा से गदर पार्टी की स्थापना हुई तो अम्बाला के पण्डित कांशी राम ने अपनी सारी संपत्ति पार्टी को अर्पित कर दी। बलिदानी अनन्त थे तो इनकी महिमा अनन्त। इन्हें शत-शत प्रणाम।