विलास जोशी
जब कोहरे की चादर आसमान पर टंगी देखता हूं तो समझ जाता हूं कि अब कड़ाके की ठंड शुरू होने वाली है। वैसे नयी दिल्ली का कोहरा दुनियाभर में प्रसिद्ध है। पर इस बार उसका असर कुछ ज्यादा ही नजर आ रहा है। कुछ लोग उसे ‘स्मॉग’ कह रहे हैं तो कुछ कोहरा। हां, लगता है इस बार प्रकृति ने दिल्ली में अल्पकाल के लिए ही सही, लेकिन ‘धुंध का आपातकाल’ लगा दिया है। कुछ लोग पूछते हैं कि ऐसा गहराया हुआ कोहरा केवल ‘दिल्ली’ में ही क्यों पड़ता है? इसका जवाब बहुत आसान है। देशभर में कोहरा फैलाने वालों का ‘मुख्यालय’ जो वहां है। जब सब दूर का कोहरा एक जगह इकट्ठा होगा तो वह घना ही होगा न!
हमारी राजनीति में हमेशा ही धुंध छाई रहती है। कौन नेता किस पार्टी में है, उसके पैर किस पार्टी में हैं और उसकी ‘निष्ठा’ कौन-सी पार्टी में है, यह इस कोहरे या धुंध में नजर ही नहीं आता। जब कुछ लोग यह देखते हैं कि राजनीति में गहरा कोहरा छाया हुआ है तो वे इसका लाभ लेते हुए अपने ‘घोटालों का कोहरा’ भी इस कोहरे में मिला देते हैं। जब ‘इस कोहरे’ और ‘उस कोहरे’ का संगम होता है तो पता ही नहीं चल पाता कि कौन-सा ‘कोहरा प्राकृतिक’ है और कौन-सा अप्राकृतिक’। लगता है कि हमारा देश कोहरे का आदि हो गया है। कुछ लोग अपनी प्रजातांत्रिक आजादी का लाभ लेकर ‘अपने कोहरे’ को ‘राष्ट्रीय कोहरे’ में ‘एडमिट’ करा देते हैं और फिर अपने ड्राइंगरूम’ में बैठकर मजे लेते हैं।
हमारे देश में प्रजातंत्र की धूप है लेकिन फिर भी देश में ‘सांप्रदायिकता का घना कोहरा’ छाया हुआ है। इस सांप्रदायिकता के कोहरे के कारण ‘प्रजातंत्र की खिली धूप’ लोगों के दिल-दिमाग तक पहुंच नहीं पा रही है।
इस साल एक नया सियासी कोहरा देखने को मिल रहा है। किसान संगठनों ने केन्द्र सरकार की आंखों के सामने एक सियासी कोहरा खड़ा कर दिया है। वे अपने हठ पर अड़े हुए हैं कि भले ही हमें मई, 2024 तक क्यों न आंदोलन चलाना पड़े, लेकिन हम अपनी मांगों से पीछे हटने वाले नहीं हैं।
एक और कोहरा जो दिन-प्रतिदिन मौसम-बेमौसम गहराता जा रहा है, ‘हमारे आपसी भाईचारे’ पर। स्वार्थ के गहरे कोहरे में इस कदर घिर गए हैं कि उसको तोड़कर हम बाहर नहीं आ पा रहे हैं। निजी स्वार्थ के कोहरे में हम ‘सेवा के प्रकाश’ को एकदम नजरअंदाज किए हुए हैं। बकौल शायर—‘इस देश में कोहरा इस कदर गहराया है कि अब हर आदमी एक अपराधी लगता है।’