विश्वनाथ सचदेव
यह किस्सा पचपन साल पहले का है। हरियाणा के एक विधायक गया लाल ने पंद्रह दिन में तीन बार दल बदल कर देश की राजनीति को एक नया ‘खेल’ दे दिया था। गया लाल ने निर्दलीय के रूप में चुनाव जीता था। जीतने के तत्काल बाद कांग्रेस में शामिल हो गये। फिर संयुक्त मोर्चे में गये, फिर कांग्रेस में लौट आये और फिर उसी दिन संयुक्त मोर्चे में शामिल हो गये। यह सब पंद्रह दिन की अवधि में हुआ था। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता यशवंत राव चव्हाण ने गयालाल के इस करतब को ‘आयाराम-गयाराम’ नाम दे दिया और इसके साथ ही देश की राजनीति को एक नया मुहावरा मिल गया।
गयालाल की इस कलाबाजी को तब एक परिहास के रूप में देखा गया था और उसके बाद इसे घटिया राजनीति का एक उदाहरण भी माना गया। दल-बदल की घटनाएं इसके बाद होती रहीं, पर ऐसे दल-बदलुओं को इज़्जत की निगाह से नहीं देखा जाता था। सच तो यह है कि सत्तर-अस्सी के दशक में ही दल-बदल की इस प्रक्रिया को राजनीति के एक कलंक के रूप में देखा जाने लगा था, पर हकीकत यह भी है कि मोटी चमड़ी वाले हमारे राजनेताओं पर इसका कोई असर नहीं पड़ा। दल-बदल करके राजनीतिक लाभ उठाने का खेल चलता रहा। इसके दुष्परिणामों को देखते हुए इस पर नकेल कसने की कोशिश भी हुई। वर्ष 1985 में, राजीव गांधी के कार्य-काल में दल-बदल विरोधी कानून बना। इसके अनुसार सांसदों-विधायकों द्वारा राजनीतिक लाभ और पद के लालच में दल-बदल करना एक अपराध माना गया। इसमें उन्हें पद के अयोग्य घोषित करने का प्रावधान भी था। पर मर्ज़ बढ़ता ही गया, ज्यों-ज्यों दवा की।
वैसे भी कुछ राजनेताओं की चमड़ी मोटी होती है। अपमान होने पर भी मुस्कुराने की कला में हमारे अधिकांश राजनेता माहिर हैं। वे यह भी नहीं मानते कि राजनीति में नैतिकता नाम की कोई चीज़ भी होती है। उन्हें यह भी नहीं लगता कि राजनीतिक दलों के कुछ सिद्धांत भी होते हैं, या होने चाहिए। प्यार और युद्ध की तरह राजनीति में भी सब कुछ जायज़ मान लिया गया है। दल-बदल अब ऐसा हो गया है जैसे एक कमरे से दूसरे कमरे में जाना। दल-बदल कानून के प्रावधानों को धता बताना उनके बायें हाथ का खेल बना हुआ है। इसी कलाबाजी का परिणाम है कि हमारे यहां रातोंरात सरकारें बदल जाती हैं। महाराष्ट्र में सत्ता-पलट इसका हाल का उदाहरण है। मध्यप्रदेश, गोवा, उत्तर पूर्व के राज्यों में भी ऐसा ही खेल खेला गया। पर क्या सचमुच यह एक खेल-मात्र है?
अपराध है यह। और हमारा दुर्भाग्य है कि इस अपराध की कोई माकूल दवा भी नहीं दिख रही। होना तो यह चाहिए था कि दल-बदल करने वाले स्वयं को कहीं न कहीं अपराधी महसूस करते, पर ‘शर्म उनको मगर नहीं आती’।
ऐसी ही बेशर्मी का ताज़ा उदाहरण गोवा में देखने को मिला है। वैसे, गोवा में भाजपा की सरकार है और ज़रूरी बहुमत भी था उसके पास है। फिर भी, अपनी स्थिति मज़बूत करने के लिए भाजपा ने कांग्रेस के आठ विधायकों को अपने साथ मिला लिया है। उन्हें क्या लालच देकर अपने खेमे में जोड़ा गया है, यह तो आने वाला कल ही बतायेगा, पर लगातार घटिया होती जा रही देश की राजनीति का एक ताज़ा उदाहरण तो सामने आ ही गया है। मज़े की बात यह है कि चुनाव से पहले कांग्रेस पार्टी ने अपने इन विधायकों को मंदिर-मस्जिद और गिरजाघर में ले जाकर यह शपथ भी दिलवायी थी कि वे चुनाव जीतकर दल-बदल नहीं करेंगे, पर इन लोगों ने इसका भी तोड़ निकाल लिया। गोवा के पूर्व मुख्यमंत्री रह चुके, और कभी चुनाव न हारने वाले एक दल-बदलू नेताजी को जब चुनाव-पूर्व की उनकी शपथ याद दिलायी गयी तो उन्होंने बिना किसी संकोच के (पढ़िए निर्लज्जता से) कह दिया कि उन्होंने ईश्वर से इसकी इजाज़त ले ली थी! ईश्वर ने उन्हें कह दिया है कि जो वे उचित समझते हैं, वह कर सकते हैं! उन्हें उचित यही लगा कि वे अपना दल बदल कर सत्तारूढ़ दल में शामिल हो जाएं। इस उचित का क्या मतलब है, यह वही जानें, पर राजनीति के बाज़ार में ऐसे दल-बदलुओं की कीमत दस-बीस करोड़ रुपये लगाये जाने की बात खुलेआम होती रही है। यह कीमत हमेशा रुपयों में ही नहीं लगती, कभी दल-बदल करने वालों को पद का लालच दिया जाता है और कभी उन्हें यह आश्वासन मिल जाता है कि दल-बदल की वैतरणी पार करने से उनके सारे पाप धुल जाएंगे। पाप धुलने की इसी प्रक्रिया का परिणाम है यह कि दल-बदलुओं पर लग रहे भ्रष्टाचार के आरोप तत्काल कहीं ठंडे बस्ते में पहुंच जाते हैं। यह लाभ किसी भी और लाभ से कम तो नहीं है!
दल-बदल एक राजनीतिक अनैतिकता है। उम्मीद की गयी थी कि 1985 में बना दल-बदल कानून, और बाद में इसमें किये गये संशोधन, इस अनैतिकता को दूर करने में मददगार होंगे। पर स्थिति कहीं भी सुधरती नज़र नहीं आ रही। पहले एक ‘आयाराम-गयाराम’ होता था, अब अनेक हो गये हैं। अब समूह में दल-बदल होता है। महाराष्ट्र में हमने देखा। गोवा में भी एक साथ आठ कांग्रेसी विधायकों ने दल-बदल करके दल-बदल कानून की दो-तिहाई वाली शर्त को पटखनी दे दी है। भाजपा ने कांग्रेस-मुक्त भारत का नारा दिया था, पर अब लगता है वह विपक्ष-विहीन जनतंत्र का सपना देख रही है। दल-बदल उसे इस सपने को पूरा करने का माध्यम लग रहा है। इससे किसी को राजनीतिक लाभ भले ही मिलता हो, पर इस सौदे में जनतंत्र घाटे में ही रहेगा। जनतंत्र और जनतांत्रिक मूल्यों की रक्षा का तकाज़ा है कि राजनीति को दल-बदल की बीमारी से बचाया जाये। पर कैसे?
पहला तरीका तो कानून में उचित परिवर्तन करने का है। वर्तमान कानून, शायद, पर्याप्त नहीं है। कोई तरीका निकालना ही होगा कि दल-बदल करने और कराने वाले पर शिकंजा कसा जा सके। पर कानून तो संसद बनाती है। हमारे सांसद कैसे समझेंगे कि जिस संविधान की रक्षा की शपथ वे लेते हैं, वह जनतांत्रिक मूल्यों-आदर्शों की रक्षा के लिए बना है। कोई तरीका होना चाहिए ताकि शर्म आये उन्हें नैतिकता-विहीन राजनीति का दामन पकड़ने में। यह तभी संभव है जब समाज, यानी नागरिक, यह तय कर ले कि वह राजनीति के इस पाप को पलने नहीं देगा। यह मतदाता को तय करना है कि वह सिद्धांत-विहीन राजनीति करने वालों को विधानसभा या संसद में नहीं भेजेगा- नहीं जाने देगा। पद या किसी अन्य लालच से दल-बदल करने वाला समाज में इज्जत न पाये, यह देखना मतदाता का काम है। कानून अपनी सीमाओं में काम करेगा। जागरूक नागरिक का काम है कि वह जनता का सेवक कहलाने वालों को उनकी वास्तविकता से परिचित कराता रहे। शर्म उनको तभी आयेगी।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।