आज मैं जम्मू-कश्मीर के अपने कार्यकाल के दौरान हुई घटनाओं को फिर से ताजा करना चाहूंगा, जब 1990 के दशक के आखिरी सालों में मेरी नियुक्ति बतौर पुलिस महानिदेशक रही थी। जब भी सूबे में कोई बड़ी आतंकी वारदात होती थी तो आमतौर पर मैं घटनास्थल का मुआयना करने जाता था। चूंकि जम्मू-कश्मीर में भौगोलिक स्थितियों की वजह से सड़क मार्ग से यात्रा में समय बहुत लगता है, लिहाजा कम समय में दूरदराज इलाकों में पहुंचने के लिए ज्यादातर दौरा राज्य सरकार के हेलीकॉप्टर से होता था। दूसरे, हेलीकॉप्टर द्वारा यात्रा करने से मार्गों पर सुरक्षा कारणों से जवानों की तैनाती करने की जरूरत काफी कम पड़ती है और साथ ही जोखिम भी काफी घट जाता है। एक मर्तबा राजौरी के पास गांव में काफी जघन्य घटना हुई थी और मैंने वहां जाने के लिए हेलीकॉप्टर लिया। मेरे स्टाफ अफसर साथ थे और गांव हेलीपैड से कुछ दूरी पर था। हम गांव पहुंचे और ग्रामीणों से बातचीत की। साथ में स्थानीय थाने के कर्मी भी थे जो हमसे पहले ही वहां पहुंच चुके थे। राजौरी जाते वक्त मैंने अपने स्टाफ अफसर से कहा कि गांव के दौरे के उपरांत राजौरी पुलिस लाइंस में मेरी मुलाकात स्थानीय अफसरों से रखी जाए।
सोच थी कि स्थानीय कानून एवं व्यवस्था के बारे में विचार-विमर्श हो सके। हेलीपैड पुलिस लाइंस से सटा हुआ था, लेकिन जब वापसी पर हम वहां की ओर बढ़ने लगे, तब मैंने अचानक अपने स्टाफ अफसर से कहा कि बैठक मुलतवी की जाए और अब हम सीधे हेलीपैड जाएंगे। हालांकि उक्त अफसर ने सनद करवाया कि अफसरान बैठक स्थल पर पहुंच चुके हैं और वार्ता करने में चंद मिनट ही लगेंगे लेकिन मैं अपनी बात पर कायम रहा और हम लोग सीधे हेलीपैड की ओर निकल लिए। अभी हमारा हेलीकॉप्टर ऊपर उठा ही था कि पुलिस लाइंस की दिशा से एक जोरदार धमाके की आवाज सुनाई दी। पता चला कि ठीक उसी दफ्तर में बम फटा है जहां हमारी बैठक होनी थी और वह भी उस कुर्सी के पास जहां मुझे बैठना था! खुशकिस्मती से चूंकि सारे अफसरान अगवानी हेतु बाहर हमारा इंतजार कर थे, इसलिए कोई हताहत नहीं हुआ, लिहाजा मौका मुआयना करने को दुबारा लैंड करने की जरूरत नहीं पड़ी। साथ ही, जैसा कि अपने अनुभवों से हमने सीखा है, हो सकता है मेरी मौजूदगी पाकर एक और धमाका करने की संभावना बढ़ जाती है। तो क्या यह संयोग मात्र था? क्या किसी छठी इंद्री का काम था या कोई दैवीय चमत्कार? आप इसे कुछ भी कहें, लेकिन बहुत से पुलिस अधिकारियों और सशस्त्र बलों के कर्मियों को भी वही अनुभव होता है जो मेरे साथ हुआ। अब जबकि मैंने यह किस्सा बता डाला है और इसके बाद वाली घटनाएं आगे और बताऊंगा ताकि मेरे पाठकों को इल्म हो सके कि किसी अशांत इलाके में काम करना क्या होता है, जहां हिंसा और बाद वाला क्रूर मंजर देखना एक स्थाई पहलू होता है। यह भी कि कैसे जिंदा रहने और कामयाब होने के लिए इनसान के अंदर पेशेवराना और आशंका की सहज प्रवृत्ति होना, दोनों ही जरूरी हैं।
जम्मू-कश्मीर में बतौर पुलिस महानिदेशक मेरी नियुक्ति पंजाब कैडर से हुई थी और मुझे केंद्रीय गृह मंत्रालय की अनुशंसा और तत्कालीन मुख्यमंत्री डॉ. फारूक अब्दुल्ला की पूरी सहमति के बाद भेजा गया था। पहले ही दिन से मुख्यमंत्री ने मुझे भरोसा दिया था कि वे पुलिस विभाग के अंदरूनी कामकाज में दखलअंदाजी करना नहीं चाहेंगे और उनकी भूमिका केवल पुलिस तंत्र संबंधी सुधारों और आधुनिकीकरण करने तक सीमित रहेगी। हमारा ध्येय था जम्मू-कश्मीर पुलिस की पुनर्संरचना करना और इसको सूबे में चल रहे छद्म युद्ध एवं आतंकवाद से लड़ने में समर्थ बनाना। इसके लिए हमें केंद्रीय गृह मंत्रालय का भी पूरा समर्थन प्राप्त था। चीजों को अन्य पहलुओं से समझाने के लिए कहूं तो 1990 के दशक के आखिरी सालों में जम्मू-कश्मीर एक युद्ध भूमि की तरह था, जिसकी परिणति कारगिल युद्ध में हुई थी। मुख्यमंत्री ने अपना वचन निभाते हुए न तो खुद और न ही उनके परिवार के किसी सदस्य ने कभी पुलिस के कामकाज में दखलअंदाजी की। हालांकि, जब बात उनके मंत्रियों और विधायकों की करूं तो इसकी रोचक कहानी अलग से आगे है क्योंकि मैं बाहरी राज्य से गया था और उनके लिए अनजाना था, लिहाजा वे कभी मेरे पास काम लेकर नहीं आए और कभी-कभार कोई आया भी तो मैंने नहीं नवाजा था। इस बात को लेकर उन्होंने मुख्यमंत्री पर भारी दबाव बना रखा था, लेकिन ज्यादातर समय वे चीजों को वक्त रहते पहले ही संभाल लेते थे।
एक दिन जब मैं दफ्तर में काम कर रहा था तो मुझे मुख्यमंत्री कार्यालय से संदेश आया कि वे मुझसे तुरंत मिलना चाहते हैं। चूंकि मैं जानता था वह उस वक्त मंत्रिमंडल की बैठक ले रहे थे तो मैंने उत्तर दिया कि सभा समाप्ति के बाद मिल लूंगा। परंतु मुझे तुरंत उसी कमरे में जाकर मिलने का निर्देश मिला, जहां वे बैठक की अध्यक्षता कर रहे थे। इससे मुझे खटका हुआ। वहां पहुंचकर जैसे ही मैं अंदर घुसा तो माहौल में काफी रूखापन और तल्खी महसूस की। मुख्यमंत्री की मुखमुद्रा एकदम गंभीर थी, मुझे बैठने को कहा। जिन लोगों को यह बात पता नहीं है, तो बता दूं कि डॉ. अब्दुल्ला का अंदाज काफी नाटकीय है और जैसा माहौल वे चाहते हैं, वैसा बना लेते हैं। उन्होंने अपने मंत्रियों पर भरपूर नजर डालते हुए बताया कि मैं ही पुलिस महानिदेशक हूं और बेहतर होगा कि वे अपनी शिकायतें उनसे करने की बजाय सीधे मुझको सुना दें। बस फिर क्या था, भरे बैठे मंत्रियों ने अपनी भड़ास निकालनी शुरू कर दी, लेकिन अधिकांश दुखड़े पुलिस में विभिन्न स्तरों पर हुई भर्ती, नियुक्तियों और बदलियों को लेकर थे। कुछ समय तक यह सब चलता रहा, मुख्यमंत्री ने मेरी ओर देखा और उनको उत्तर देने को कहा। संक्षेप में मैंने अपने जवाब में उन्हें बताया कि भर्तियां पारदर्शी ढंग से हुई हैं और तथ्य तो यह है सरहदी इलाके में कुछ जवानों की भर्ती मेरे हाथों हुई है और हर कोई इससे खुश है (सिवाय मंत्री और विधायकों के)। जाहिर है, पुलिस भर्ती में किसी मंत्री-विधायक या अन्य माननीयों का कोई कोटा नहीं होता। जहां तक नियुक्ति और बदली की बात है तो यह पूर्णत: काबिलियत पर निर्भर है और जो लड़ाई हम फिलवक्त लड़ रहे हैं, उसमें दखलअंदाजी के लिए कोई गुंजाइश नहीं हो सकती। आतंकवाद विरोधी लड़ाई लड़ने में सबसे मुख्य अवयव होता है सही जगह पर सही अफसर का होना। इन अफसरान से अपेक्षा होती है कि वे हिम्मतवान, दूरंदेशी, रणनीति के माहिर, चतुर योजनाकार और सबसे अहम है उनके पास नेतृत्व का गुण होना। एक ऐसा मुखिया जो अगुवाई करने में खुद सबसे आगे रहे। जिन्हें लगाया गया है, उन्हें स्वयं मैंने और वरिष्ठ अफसरान की टीम ने पूरी तरह जांच-परख कर नियुक्त किया है, हम उन्हें हिदायतें देते हैं और कार्यभूमि में खुलकर काम करने को पूरा समर्थन भी। मुख्यमंत्री को तो पहले ही यह सब मालूम था और इसकी सार्थकता भी और हमें उनका समर्थन भी प्राप्त था।
खैर, बैठक की बात पर फिर से आते हैं, मुख्यमंत्री तब अपनी काबीना से मुखातिब हुए और उन्होंने समझाने वाले अंदाज में कहा कि केंद्रीय गृह मंत्रालय ने इनको बतौर पुलिस महानिदेशक विशेष रूप से भेजा है और अगर आप लोगों की दखलअंदाजी के चलते असफल होते हैं तो इनका क्या है, कार्यभार से मुक्त होकर चले जाएंगे लेकिन सारा दोष तब आप पर आएगा। हां, यदि आप लोग बाहरी दबाव नहीं डालेंगे और महानिदेशक विफल रहते हैं तो फिर सारा जिम्मा इन महाशय और केंद्रीय गृह मंत्रालय का होगा। इसके बाद कमरे में सूई गिरे तो आवाज न आए जैसी शांति हो गई और किसी ने आगे बहस नहीं की। अंत में मुख्यमंत्री मेरी ओर मुड़े और कहा कि मैं बैठक से जा सकता हूं, लेकिन परिणाम मिलने की आस लिए हूं। मैं कमरे से बाहर उनकी नफासत का पूरी तरह कायल होकर निकला था कि किस तरह बड़े अच्छे ढंग से उन्होंने स्थिति को संभाला था।
आज की तारीख में जम्मू-कश्मीर की कर्मभूमि पर नये पात्र हैं। एक पुरानी कहावत है–‘राष्ट्रों का इतिहास वस्तुतः युद्धों का इतिहास होता है।’ इनसान की फितरत अपनी इच्छा दूसरों पर थोपने की और नक्शे पर लकीरें खींचने की रही है। जम्मू-कश्मीर ने इतिहास में कई राजा-महाराजा देखे हैं, अफगानों के बाद मुगलों ने सदियों तक राज किया और इसके अंतिम दिनों वाला युग अत्यंत बर्बरता के लिए याद किया जाता है। सिख राज ने इस इलाके को अफगानों से मुक्त करवाया और वह लघु काल अपेक्षाकृत शांति वाला रहा था, इसके बाद अंग्रेजों की सरपरस्ती में डोगरा राज कायम हुआ था। वर्ष 1947 में कश्मीर के राजा ने सूबे का भारतीय गणराज्य में विलय कर दिया था। इस धरती ने वक्त के साथ बहुत से सुल्तान-राजा देखे हैं। लेकिन याद रहेगी तो उनकी, जिन्होंने सहृदयता, सुशासन, समृद्धि वाला निजाम चलाया था या फिर वह वक्त जो अत्यंत क्रूर था। इतिहास ऐसे ही दर्ज करता है और लोग पढ़कर याद करते हैं। इस बीच हमारी ऐसी पीढ़ियां बड़ी हुई हैं, जिन्होंने कभी कश्मीर के खूबसूरत बागीचों और झीलों का नज़ारा नहीं देखा… वह शालीमार, निशात, चश्मा शाही… वह भव्य डल-वूलर और नागिन झीलें… वह जिंदादिल जिंदगानी जो इन जगहों से जुड़ी थी, जहां सैलानी बाजारों में उमड़ते थे और व्यापार फलता-फूलता था… इतिहास के पन्ने और बस यादें। मेरी बात कहें तो मुझे उन कद्दावरों के साथ काम करने का मौका मिला –जो वाकई इनसान थे, बखूबी जानते थे कि खुद क्या हैं और गणतंत्र की रक्षार्थ क्या करना होगा।
लेखक मणिपुर के राज्यपाल, संघ लोकसेवा आयोग के अध्यक्ष और जम्मू-कश्मीर में पुलिस महानिदेशक रहे हैं।