आजकल पूरे देश में एक शब्द बार-बार सुनने को मिलता है और समाज इस शब्द की शक्ति को स्वीकार भी करता है। वह शब्द है ‘आस्था’, जिसका तात्पर्य यह है कि हमारी आस्था जहां होती है, वहां से हमें अदृश्य शक्ति हर स्थिति में मिलती ही है। ‘मानस’ के रचयिता महाकवि तुलसीदास ने तो लिखा ही है :-
‘एक भरोसो, एक बल, एक आस विस्वास।
एक राम घनश्याम हित, चातक तुलसीदास।’
वस्तुतः व्यक्ति की ‘आस्था’ में ऐसी शक्ति होती है, जो भले ही कभी ‘बोलती नहीं’, लेकिन व्यक्ति अपनी उसी आस्था के बल पर बड़ी से बड़ी मुसीबत से जूझ कर उस पर विजय पा लेता है।
इसी क्रम में मुझे आज मेरे एक आत्मीय ने बहुत सुंदर दृष्टांत भेजा है, जो एक ओर तो ‘आस्था की शक्ति’ को उजागर करता है, दूसरी ओर मां की सेवा का हमारे समाज का आदर्श हमारे सामने मार्मिक रूप में लाता है। आपसे मैं वह दृष्टांत साझा कर रहा हूं :-
‘बाज़ार से एक व्यक्ति फल खरीदने गया, तो देखा कि एक फल की रेहड़ी की छत से एक छोटा सा बोर्ड लटक रहा था, जिस पर मोटे अक्षरों से लिखा हुआ था, ‘घर में कोई नहीं है, मेरी बूढ़ी मां बीमार है। मुझे थोड़ी-थोड़ी देर में उन्हें खाना खिलाने, दवा देने और टॉयलेट कराने के लिए घर जाना पड़ता है। अगर आपको जल्दी है, तो आप अपनी मर्जी से फल तौल लें, फलों के रेट साथ में लिखे हैं, आप पैसे कोने पर गत्ते के नीचे रख दें। धन्यवाद! हां, अगर आपके पास पैसे न हों, तो फल मेरी तरफ से ले लेना, इसकी इजाज़त है!’
खरीदार ने इधर-उधर देखा और पास पड़े तराजू में दो किलो सेब तोले, दर्जन भर केले लिये, बैग में डाले और प्राइस लिस्ट से कीमत देखी, पैसे निकाल कर गत्ते को उठाया, तो वहां सौ-पचास और दस-दस के नोट पड़े थे। उसने भी पैसे उसमें रख कर उसे ढक दिया, अपना बैग उठाया और अपने फ्लैट पर आ गया।
रात को खाना खाने के बाद वह फिर उधर से निकला, तो देखा एक कमज़ोर सा आदमी, दाढ़ी आधी काली आधी सफेद, मैले से कुर्ते-पजामे में खाली रेहड़ी को धक्का लगा कर बस जाने ही वाला था। रेहड़ी वाले ने उसे देखा तो मुस्कुराया और बोला ‘साहब! फल तो खत्म हो गए हैं।’ उस व्यक्ति ने उसका नाम पूछा, तो बोला, ‘सीताराम’ दोनों सामने वाले ढाबे पर बैठ गये। चाय आयी, तो रेहड़ी वाला कहने लगा, ‘पिछले तीन साल से मेरी मां बिस्तर पर है, कुछ मानसिक रूप से असुरक्षित सी भी हो गई है और अब तो फ़ालिज भी मार गया है। मेरी कोई संतान नहीं है, बीवी मर गयी है। अब सिर्फ मैं हूं और मेरी मां! मां की देखभाल करने वाला कोई नहीं है, इसलिए मुझे ही हर वक्त मां का ख्याल रखना पड़ता है…।’
फिर रुककर बोला, ‘एक दिन मैंने मां के पांव दबाते हुए बड़ी नरमी से कहा, ‘मां! तेरी सेवा करने को तो बड़ा जी चाहता है, पर क्या करूं, मेरी जेब खाली है और तू मुझे कमरे से बाहर निकलने नहीं देती। कहती है, तू जाता है तो जी घबराने लगता है। अब तू ही बता मैं क्या करूं? कैसे तेरी सेवा करूं?’
ये सुन कर मां ने हांफते-कांपते उठने की कोशिश की। मैंने तकिये की टेक लगवाई, मां ने झुर्रियों वाला चेहरा उठाया और अपने कमज़ोर हाथों को ऊपर उठाकर मन ही मन राम जी की स्तुति की। फिर बोली, ‘तू रेहड़ी वहीं छोड़ आया कर, हमारी किस्मत का हमें जो कुछ भी मिलना है, इसी कमरे में बैठे मिलेगा।’ मैंने कहा, ‘मां क्या बात करती हो, रेहड़ी वहां छोड़ आऊंगा तो कोई चोर-उचक्का सब कुछ ले जायेगा। आजकल कौन लिहाज़ करता है? और बिना मालिक के भला कौन फल खरीदने आयेगा?’ साहब, मां कहने लगीं… ‘तू राम का नाम ले कर रेहड़ी को फलों से भरकर छोड़ कर मेरे पास आजा, बस। ज्यादा बक-बक न कर, शाम को खाली रेहड़ी ले आना,अगर तेरा रुपया गया, तो मुझे बोलियो!’
ढाई साल हो गए हैं भाईसाहब! सुबह रेहड़ी लगा आता हूं, शाम को ले जाता हूं। लोग पैसे रख जाते हैं और फल ले जाते हैं। एक धेला भी ऊपर-नीचे नहीं होता, बल्कि कुछ लोग तो ज्यादा भी रख जाते हैं। कभी कोई मां के लिए फूल रख जाता है, कभी कोई और चीज़! परसों एक बच्ची पुलाव बना कर रख गयी,साथ में एक पर्ची भी थी ‘अम्मा के लिए!’ एक डॉक्टर अपना कार्ड छोड़ गए, पीछे लिखा था, ‘मां की तबियत नाज़ुक हो तो मुझे कॉल कर लेना, मैं आ जाऊंगा।’ रोजाना कुछ न कुछ मेरे हक के साथ मौजूद होता है। न मां मुझे हिलने देती है और न मेरे राम कुछ कमी रहने देते हैं। मां कहती है, तेरे फल ‘मेरा राम’ अपने फरिश्तों से बिकवा देता है।’
सच मानिये, इस दृष्टांत को पढ़कर मेरे अंतर्मन से यही निकला कि आस्था सच्ची और दृढ़ हो, तो व्यक्ति को शक्ति स्वयं मिल जाती है। हम मनोविज्ञान के आधार पर ही देखें तो पायेंगे कि आस्था के बल पर बड़े-बड़े काम चुटकियों में हो जाते हैं। तुलसी ने तो कहा है :-
‘होंहि हैं सोई जो राम रची राखा।
को करी तरक बढावहीं साखा।’
आस्था की शक्ति कभी बोलती नहीं, चमत्कार करती है।