
पुष्परंजन
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प्रधानमंत्री मोदी से पश्चिमी देशों की उम्मीदें बढ़ गई हैं, वे चाहते हैं कि यूक्रेन मामले को सुलझाने में वो लीड लें। यूक्रेन के राष्ट्रपति जेलेंस्की से जापान में मुलाक़ात के बाद सबने यह राय ज़ाहिर की थी। बाद में ऑस्ट्रेलिया के दौरे में भी इस भगीरथ प्रयास की ज़िम्मेदारी प्रधानमंत्री मोदी के कंधे पर डाली गई है। अमेरिकन डिप्लोमेट राल्फ बंचे ने 1948-49 में अरब-इस्राइल के बीच युद्धविराम और शांतिवार्ता की पहल की थी। 1950 में बंचे को नोबेल शांति पुरस्कार मिला था। 1973 में वियतनाम युद्धविराम में पहल करने वाले हेनरी किसींजर और ली डूक थो को नोबेल शांति पुरस्कार मिला था। उत्तरी आयरलैंड में शांति के लिए बिटी विलियम्स और मेरीड कोलिगन्स ने 1976 में नोबेल शांति पुरस्कार साझा किये थे। उसके दो साल बाद, 1978 में मिस्र-इस्राइल युद्धविराम के वास्ते अनवर सादात और मेनाखेम बेगिन को नोबेल शांति पुरस्कार दिया गया था। अब एक काल्पनिक सवाल है कि युद्ध और शांति के लिए विश्व का सर्वश्रेष्ठ पुरस्कार प्रधानमंत्री मोदी क्या अकेले लेंगे, अथवा कोई और साझा करेगा?
इस काल्पनिक सवाल के बरक्स कई लोग यह भी पूछ सकते हैं कि क्या प्रधानमंत्री मोदी ने कश्मीर से लेकर मणिपुर तक स्थाई शांति बहाल कर दी है? ‘घर का जोगी जोगड़ा, आन गांव का पीर’ वाली लोकोक्ति के हवाले से आलोचक कह सकते हैं कि अपने घर को दुरुस्त करने के वास्ते प्रधानमंत्री मोदी पहले संज़ीदा हों, यूक्रेन बाद की बात है। यूक्रेन युद्ध से पहले 19 हज़ार भारतीय छात्र वहां के विभिन्न विश्वविद्यालयों में शिक्षा ग्रहण कर रहे थे। सब के सब लौट गये। फिर उनमें से कोई दो हज़ार छात्र बाक़ी पढ़ाई पूरी करने यूक्रेन के उन पश्चिमी इलाक़ों में लौटे, जो पूर्वी यूरोप से सटे देश हैं। 17 हज़ार छात्रों का करिअर कितना डिस्टर्ब हुआ, इसकी कोई कल्पना नहीं कर सकता है। छात्रों से अलग, ढाई से तीन हज़ार भारतीय मूल के जो लोग यूक्रेन में सेटल्ड थे, उनका आशियाना-आबोदाना छिन गया।
पन्द्रह महीने होने जा रहे हैं यूक्रेन युद्ध के। आगे और कितना चलेगा, अनिश्चित है। इसका अंदाज़ा पुतिन क्या, पूरी दुनिया को भी नहीं था। 24 फरवरी, 2022 को पुतिन ने यूक्रेन में विशेष सैन्य अभियान की घोषणा की थी, कालांतर में यह फुल स्केल वार में तब्दील हो गया। बीच-बीच में ख़बर आती रही कि पुतिन अपने ही देश में कमज़ोर होते गये हैं, उनसे असहमति की वजह से रूसी राजनीति में दरारें आई हैं। लेकिन जर्मन खुफिया एजेंसी बीएनडी ने इसी सोमवार को ख़बर दी है कि पुतिन पहले से और प्रखर व मज़बूत हुए हैं। बीएनडी जर्मनी का वह खुफिया विभाग है, जिसका काम देश से बाहर की गतिविधियों पर नज़र रखना है। बर्लिन के फेडरल एकेडमी फॉर सिक्योरिटी पॉलिसी की एक बैठक में बीएनडी के प्रमुख ब्रूनो काल का कहना था कि रूसी सेना में रंगरूटों की बड़े पैमाने पर भर्ती हुई है। उसे देखते हुए लगता है कि रूस युद्ध को लंबा खींचने की तैयारी में है। रूस ने नये सिरे से हथियारों और गोला बारूद के ज़खीरे जुटा लिये हैं। ‘बीएनडी’ दुनिया की ऐसी खुफिया एजेंसी रही है, जिसने यूक्रेन युद्ध से 14 दिन पहले जर्मन रक्षा मंत्रालय को आगाह कर दिया था।
यह दीगर है कि तमाम आर्थिक प्रतिबंधों के बावजूद रूसी अर्थव्यवस्था टिकी हुई है। रूसी ऊर्जा का उत्पादन और निर्यात जारी है। चीन, जर्मनी, तुर्की के बाद, भारत चौथा ऊर्जा आयातक देश बन चुका है। सेंटर फॉर रिसर्च ऑन एनर्जी एंड क्लीन एयर (सेरा) के अनुसार, ‘यूक्रेन युद्ध के बाद से रूस ने कच्चा तेल, कोयला और गैस सप्लाई से अब तक 315 अरब डॉलर की आय अर्जित की है, जिसमें से 149 अरब डॉलर यूरोपीय देशों से है।’ कहा जा सकता है कि अमेरिकी प्रतिबंध पूर्ण रूप से सफल नहीं हो पाया। बल्कि, यूक्रेन युद्ध की वजह से पूरी दुनिया में लोगों के घर का बजट और बटुआ प्रभावित हुआ है। युद्ध के तुरंत बाद रूबेल को भी दुर्दिन देखने पड़े थे, मगर अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में आज की तारीख़ में रूबेल मज़बूत हुआ है। जून, 2022 में ही रूबेल सात साल के उच्चतम स्तर पर चढ़ गया था।
सबसे बड़ा सवाल है कि जी-20 की बैठक में प्रेसिडेंट पुतिन भारत आते हैं कि नहीं? अगर पुतिन आ गये, तो उसे भारतीय कूटनीति की बड़ी सफलता मानिये। फिर यह उम्मीद कर सकते हैं कि यूक्रेन विवाद शायद पीएम मोदी की पहल से सुलझे। पीएम मोदी ऐसे नेता हैं, जिनका संवाद राष्ट्रपति जेलेंस्की और पुतिन दोनों से है। यह तय करना भी मुश्किल होता है कि पीएम मोदी पुतिन के ज़्यादा क़रीब हैं या जो बाइडन के। विदेशी मंचों पर पीएम मोदी बाज़ दफ़ा, ‘जैसी बही बयार पीठ तब तैसी कीजिए’ वाली मुद्रा में होते हैं। मगर, मोदी से भी अधिक क़रीबी कोई नेता पुतिन के हैं, तो वो हैं शी चिनफिंग। दिक्कत जो बाइडन और यूरोपीय नेताओं की है, कि वो शी से पटरी नहीं बैठा पा रहे हैं।
एक दूसरा बड़ा पेच भारत-आस्ट्रेलिया संबंधों को लेकर है। ब्रिटेन, कनाडा के बाद ऑस्ट्रेलिया तीसरा देश है, जहां समय-समय पर खालिस्तान समर्थक दबंगई करते हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी ऑस्ट्रेलिया यात्रा में हिंदू मंदिरों पर हमले और अलगाववादी गतिविधियों का मुद्दा अपने समकक्ष एंथनी अल्बानीज से बातचीत के दौरान उठाया। पीएम मोदी ने पत्रकारों से कहा कि अल्बानीज ने एक बार फिर भरोसा दिया है कि वह ऐसे तत्वों के खिलाफ कार्रवाई करेंगे।
एक सच तो स्वीकार करना चाहिए कि ऑस्ट्रेलिया में भारतीय समुदाय के लोग बंटे हुए हैं। मोदी पर बनी बीबीसी की डॉक्यूमेंट्री दिखाया जाना पहला उदाहरण है। मंगलवार को जब मोदी सिडनी में भारतीय समुदाय को संबोधित कर रहे थे, उसी स्टेडियम के बाहर खालिस्तान समर्थक मोदी विरोधी नारे लगा रहे थे। स्टेडियम के अहाते में मोदी समर्थकों का एक समूह ‘खालिस्तान मुर्दाबाद’ के नारे लगा रहा था। ऑस्ट्रेलिया में हेट स्पीच, मंदिरों पर भारत विरोधी नारे लिखे जाने का सिलसिला थमा नहीं है। पिछले महीने सिडनी में एक मंदिर की दीवार पर भी ऐसा ही एक नारा लिखा मिला। मामला संसद में भी उठा। वीडियो फुटेज के बावज़ूद, पता नहीं चल पाया है कि नारे किसने लिखे, न ही किसी की गिरफ्तारी हुई। ‘विश्व कूटनीति में मोदी का डंका बज रहा है’, यह सुनना कर्णप्रिय तो लगता है, लेकिन देश के अंदर जो विवाद चल रहे हैं, वो विश्व मंच पर भी मुखर होने लगे हैं, इसे रोकने की ज़रूरत है।
लेखक ईयू-एशिया न्यूज़ के नयी दिल्ली संपादक हैं।
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