दीपांकर गुप्ता
कोलकाता के दुर्गा पूजा उत्सव को अब यूनेस्को ने सांस्कृतिक धरोहर में शामिल कर लिया है, क्योंकि यह अवसर न केवल पवित्र आस्था व्यक्त करने का है बल्कि उस आमोद-प्रमोद का भी, जो इससे जुड़ा है। साल-दर-साल होती आई दुर्गा पूजा क्रमिक विकास के रूप में आज हमारे सामने है, उसके लिए हमें शहरीकरण का धन्यवाद करना चाहिए।
जब तक दुर्गा पूजा का आयोजन रिवायती जगहों (ठाकुर दालान) तक सीमित रहा, मुख्यतः आराधना और प्रार्थना रही, परंतु तब इसे यूनेस्को की मान्यता न मिल पाती। इसके लिए इस रिवायत का गांव से शहर आना जरूरी था, जहां इसने भव्य पंडाल, नाना भोज्य पदार्थों, नाट्य प्रस्तुति, फिल्मों और आमोद से सज्जित मौजूदा स्वरूप पाया।
दुर्गा पूजा का यह रूपांतर चरणों में हुआ है। पहले पहले, केवल बड़े जमींदार अपने यहां अनुष्ठान करवाते थे, जिसमें गरीब-गुरबों को दूर रखा जाता था। 19वीं सदी के अंत में, खुद को आमंत्रण न दिए जाने से रुष्ट हुए ब्राह्मणों के एक समूह ने काफी सदस्यों को साथ जोड़कर एक अर्द्ध-सहकारी आयोजन करवाना शुरू किया। लेकिन यह केवल 20वीं सदी में संभव हुआ जब दुर्गा पूजा उत्सव ने कोलकाता पहुंचकर सार्वजनिक उत्सव का रूप धर लिया।
यह दुर्गा पूजा का वर्तमान स्वरूप है, जिसको यूनेस्को ने अप्रत्यक्ष धरोहर वर्ग में सहर्ष शामिल किया है। हालांकि, यूनोस्को का ध्यान दुर्गा पूजा पर गया है किंतु मुंबई में आयोजित होने वाले गणेश चतुर्थी उत्सव में भी ठीक इस जैसे उल्लासमय माहौल में लोग भाग लेते हैं। इस मामले में भी, यह आयोजन तभी प्रमुखता पा सका जब यह पेशवाओं की हवेलियों में आयोजित गंभीर विधिवत धार्मिक संस्कार वाले स्वरूप से हटकर मुंबई के सार्वजनिक मैदानों में आयोजित होने लगा।
इसकी शुरुआत वर्ष 1893 में बाल गंगाधर तिलक ने मुंबई के गिरगाम में की थी। इसका मंतव्य था, लोगों में जाति भेदभाव मिटाना और राष्ट्रीय आंदोलन के प्रति उत्साह जगाना। यह तत्कालीन औपनिवेशिक सत्ता को चुनौती देने का प्रतीक भी बना, जिसने सार्वजनिक सभा-समारोहों पर रोक लगा रखी थी। कहने की जरूरत नहीं, जैसे-जैसे शहर बड़ा होता गया, वैसे-वैसे गणेश चतुर्थी समारोह भी।
आयोजन का चंद संभ्रांत घरों से बाहर निकल सार्वजनिक स्थलों पर होने वाला यह बदलाव शहरीकरण के बिना संभव नहीं था। गांवों में उच्च वर्ग की जो मजबूत पकड़ और रुतबा था, वह शहरों में जाता रहा। नगर में व्यक्ति की पिछली जाति-वर्ण आधारित पहचान का भी खास अर्थ नहीं था, जो लोगों को आपस में मुक्त होकर मिलने-जुलने की इज़ाजत देता था। अगर कहीं उच्च वर्ग का प्रभाव था भी, तो ऐसा जिसमें आसानी से समायोजन हो सके। अर्थात इसका चित्रण केवल मलिन बस्तियां, हिंसा, गंदगी नहीं है, जो अक्सर शहर को लेकर किया जाता है बल्कि शहरीकरण ने इंसानों में समान खुशियां, आनंद और रंग भी भरा है। साथ मिलकर उत्सव मनाने से जितना सौहार्द पैदा होता है वह राजनीतिक मंचों से दिए असंख्य भाषणों से संभव नहीं है। अन्य शब्दों में, शहरीकरण ने हमें जो मौका दिया है, वह उतना भी बुरा नहीं है। क्रिसमस मनाना भी आजकल सबको आकर्षित करता है, क्योंकि अब यह शुद्ध धार्मिक अनुष्ठान नहीं रहा, खासकर सांता क्लॉज़ के आगमन के साथ। यह भी शहरी आयोजन है। सांता, बतौर क्रिसमस फादर, एक धार्मिक चरित्र न होकर हंसमुख, गुलगुले, बुजुर्ग हैं, जिन्हें उपहार बांटने की लत है। एक बार पुनः सांता क्लाज़ और क्रिसमस का हर्षोल्लास शहरीकरण के साथ बढ़ता गया, खासकर द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद।
क्रिसमस कैरोल सदैव पश्चिमी जगत के सभी मशहूर गायकों के प्रिय रहे हैं, जिन्होंने इस पर विशेष एलबम निकाली हैं। उपहारों का आदान-प्रदान भी शहरीकरण के साथ बढ़ा, जो खिलौने से चलकर कारों तक पहुंचा, लगभग हर किस्म की व्यावसायिक वस्तु उपहार में दी जाने लगी। सांता के बिना क्रिसमस कैसा? यह देखकर कि सांता का किरदार खुद यीशु मसीह से ज्यादा लोकप्रिय होता जा रहा है, वर्ष 1951 में फ्रांस के दिजॉन शहर के कैथोलिक पादरियों ने तय किया कि इस पर कुछ करना होगा। उन्होंने पूरे शहर के लोगों और बच्चों को चर्च में इकट्ठा करवाया, जहां पहले सांता को बुतपरस्त ठहराते हुए भर्त्सना की गई और फिर सबके सामने उनके पुतले को फांसी देने के बाद जला डाला।
चूंकि उनका यह कारनामा स्थानीय लोगों और मीडिया में विशेष असर डालने में असफल रहा, लिहाजा दिजॉन में सांता क्लॉज़ का वजूद बना रहा। मानव विज्ञानी लिवॉइ स्ट्रॉस की मशहूर उक्ति है ‘सांता को उन वयस्क लोगों ने जीवित रखा, जिन्हें भले ही उसके वजूद पर यकीन नहीं हो लेकिन अपने बच्चों को उपहार देकर उसकी हकीकत को दृढ़ करते रहे।’ यह बात उस धार्मिक अभिरुचि से उलट है, जिसमें व्यक्ति जितना बूढ़ा होता जाता है उतना ही अधिक आस्थावान। तथापि, सांता के मिथक के बिना न तो क्रिसमस पर उपहार होते, न ही क्रिसमस ट्री या रोशनी मद्धम करने जैसी रीतियां। यह तभी होता है जब आराधना के साथ खुशियां और आमोद जुड़ जाएं, जो वर्ग-वर्ण के भेद का ख्याल किए बिना मिल-जुलकर उत्सव मनाने का बंधुत्व जगाती है। व्यावसायीकरण ने भले ही हमें पुरानी चीज़ें फेंककर नया खरीदने की लत लगाई है, लेकिन क्रिसमस मनाने वालों को आज भी पुराना तरीका भाता है। घर में वही कैरोल गायन और असली या नकली चीड़ के पेड़ को पुराने ढंग से सजाना।
दुर्गा पूजा के दौरान भी, श्रद्धालु पहले सुबह की आरती में अंजुली पाने को श्रद्धापूर्वक हाथ जोड़ते हैं फिर अपने मित्रों के इंतजार में पंडाल में रुके रहते हैं ताकि साथ मिलकर मुगलई परांठा और संदेश का रसास्वादन कर सकें। इस सारे मजे को हटा दिया जाए, तो दुर्गा पूजा एक अलग किस्म का आयोजन बन जाएगा, तब शायद इसकी ओर यूनेस्को का ध्यान न जाता। क्या कभी हमने इस किस्म के खुशनुमा अनुभवों के लिए शहरीकरण का धन्यवाद किया?
यह कहानी लगभग सभी धार्मिक त्योहारों की भी है, चाहे यह दुर्गा पूजा हो या गणेश चतुर्थी, ईद या होली। ठेठ धार्मिक रीति का पालन अनुष्ठान को वैधता तो देता है, लेकिन शहरीकरण के बिना लोगों में रिवायती आपसी दूरी बनी रहती, जो इन त्योहारों के साथ जुड़ चुके आनंद-उल्लास भरे अवयव को बहुत हद तक कम कर देता। यह ठीक है कि त्योहारों का बाज़ारीकरण और व्यावसायीकरण हुआ है किंतु यदि अक्लमंदी से इस्तेमाल हो तो यह भी आनन्द का हिस्सा है।
सांता क्लॉज की छवि को उस वक्त भी बढ़ावा मिला जब कोका-कोला ने अपने विज्ञापनों में इस्तेमाल करते हुए लाल कोट, लालगालों, चमकती चुटीली आंखों वाले लुभायमान चरित्र के रूप में प्रस्तुत किया। कालांतर में चिर-परिचित सांता, जो दरअसल क्रिसमस फॉदर थे, उनका यह रूप गुम हो गया, जो बचा वह है भरपूर आनंद-अनुभूति का इज़हार, जिसका आनंद वह भी लेते हैं जिन्होंने कभी कोका-कोला को छुआ तक नहीं!
इस किस्म के त्योहार के मौके पर, अलार्म क्लॉक को सुबह अपनी कर्कश आवाज़ से जगाकर खुशी पाने की मनाही रहती है। बच्चे भी मोटे कपड़ों में उपहारों की उम्मीद में बिस्तर छोड़कर मुस्कराहट से लबरेज़ मस्त रहते हैं, आखिरकार मौज-मस्ती का लुत्फ केवल वयस्क ही क्यों लें?
लेखक समाज शास्त्री हैं।