मध्य प्रदेश में एक महिला नेता के लिए अप्रिय सम्बोधन की घटना क्या नयी है! क्या हमको मायावती, ममता बनर्जी, जयललिता या सोनिया गांधी के प्रति समय-समय पर की गई घटिया टिप्पणियां याद नहीं हैं? हमारे समाज में और विशेष रूप से राजनीतिक विमर्श में मर्दवादी सोच इतनी गहरी पैठी हुई है कि उस कथन को राहुल गांधी के अशालीन बताने के बावजूद कमलनाथ यही समझाने की कोशिश में लगे रहे कि उनका इरादा किसी का अपमान करने का नहीं था। क्या इसके पीछे संकीर्ण पुरुषवादी संस्कार ही कारण नहीं हैं?
देश में कितनी महिलाएं हैं जो राजनीति के पुरुष एकाधिकार वाले अहाते में आने का साहस जुटा पाती हैं! और आने के बाद क्या हर दिन उनको यह याद नहीं दिलाया जाता कि वे पुरुष से हीनतर हैं, कि उनको मर्दों के बनाए कायदों पर ही चलना है, कि आज भी भरी सभा में अपमानित करने के लिए चीरहरण का हक़ पुरुषों के पास सुरक्षित है, उनको सार्वजनिक रूप से शूर्पणखा, जर्सी गाय, 50 करोड़ की गर्ल फ्रेंड कहकर भी स्वयं के ‘सामाजिक शिष्ट’ होने की डींग हांकी जा सकती है!
इंटरनेट सम्वाद का नवीनतम माध्यम है, उसने परस्पर सम्पर्क की संभावनाओं का एक पूरा नया संसार रच दिया है, लेकिन स्त्रियों के तिरस्कार, अपमान और उनको निरस्त्र करने के लिए सबसे घटिया मानसिकता के साथ उसी का इस्तेमाल किया जा रहा है। और यह वहीं हो रहा है, जिसको हम सोशल मीडिया के नाम से जानते हैं और वह भी राजनीतिक हिसाब चुकाने। यहां तक कि इस मंच पर सियासी स्वार्थों के लिए भद्दी गालियों और बलात्कार की भाषा में सामाजिक मर्यादाओं को ध्वस्त होते देख सभ्य समाज रोज शर्म से सिर झुका लेता है। व्हाट्सएप पर ऐसे सैकड़ों ग्रुप सक्रिय हैं जो दिन-रात अपने राजनीतिक विरोधियों की चरित्र हत्या के लिए निम्न से निम्न स्तर की स्त्री विरोधी टिप्पणियां करने में हिचकते नहीं हैं। स्त्रियों के प्रति भद्दी और अश्लील भाषा, मनगढ़ंत कहानियां, फोटोशॉप किए हुए चित्र आदि सभी हथकंडे अपनाकर अपने राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी को नीचा दिखाने का मकसद हासिल करने की कोशिश में रहते हैं लेकिन इस धूर्तता के कारण नाहक ही नारी के सम्मान और उनकी अस्मिता को सबसे ज्यादा चोट पहुंचती है।
जब कोई नेता कहता है कि ‘लड़के हैं गलती हो जाती है’ तो स्त्री के बारे में उसकी दोयम सोच स्वत: प्रकट हो जाती है। जब एक बड़े संगठन का मुखिया कहता है ‘स्त्रियों का कर्तव्य घर-पति की देखभाल है’ तो उस संगठन का महिलाओं के प्रति क्या नजरिया होगा, बताने की जरूरत नहीं है। आसानी से समझा जा सकता है कि वह व्यक्ति स्त्रियों के साथ बराबरी का नहीं, शासित का बर्ताव चाहता है। यही वजह है कि 12 साल पहले महिलाओं को निर्वाचित सदनों में एक-तिहाई आरक्षण देने के लिए लाया गया प्रस्ताव बिना विचार किए ही लोकसभा में धूल फांक रहा है। इस नेक इरादे को अमल में लाने से रोकने वाले कोई और नहीं, समाजवादी विचारधारा के सूत्रधार लोहिया के कथित अनुयायी थे।
दरअसल, हमारे समाज ने नारी के लिए दोधारी तलवार बनाई हुई है। एक तरफ की धार मर्दानगी की ठसक दिखाकर दमन और शोषण की जमीन तैयार करती है तो दूसरी भुजा दिखाकर बलात्कार की संस्कृति आगे बढाई जाती है। उन्नाव, हाथरस, शाहजहांपुर इसके ताजे उदाहरण हैं। यहां तक कि धर्म भी स्त्री के प्रति संवेदनशील नहीं है। हर धर्म में नारी के प्रति छिपे तौर पर भेदभाव मौजूद है। सबरीमाला मंदिर में युवा महिलाओं के प्रवेश के मामले पर पुजारियों का हठ बना हुआ है। इसी तरह मस्जिदों में स्त्री के नमाज़ पढ़ने पर पाबंदी आम है। भारत में नारी अपनी पसंद के वर से विवाह तक नहीं कर सकती, न धर्म इसकी इजाजत देता है और न जाति। समाज के ठेकेदार ऐसा करने वाली युवती की हत्या करने का गुनाह तक कर डालते हैं। यहां तक कि न्याय व्यवस्था में भी कुछ ऐसे रूढ़िवादी बैठे हैं जो आंसुओं से मोरनी के गर्भवती होने की बेहूदी और अवैज्ञानिक धारणा फैलाने में भी शर्मिंदा नहीं होते, न संकोच करते हैं!
और समाज के लिए निर्भया या हाथरस की घटना के सबक क्या हैं? हाथरस में एक दलित, शोषित समाज की युवती को पुरुष का पैशाचिक अहंकार दिखाने के लिए ही तो अत्याचार-अनाचार का शिकार बनाया गया। यहां तक कि उसको जीते जी इलाज नसीब नहीं हुआ और मर गई तो न कफ़न मिला और न चिता! विचारणीय प्रश्न है कि समाज और सरकार, दोनों का दायित्व बोध और चेतना ऐसे समय कहां शून्य में गुम हो गई?
2018 में थॉमस रायटर्स विश्व संस्था ने सर्वेक्षण रिपोर्ट के आधार पर भारत को स्त्रियों के लिए विश्व का सबसे असुरक्षित देश करार दिया था। हालांकि सरकार ने कुछ तर्कों के साथ इस रिपोर्ट को मानने से इनकार कर दिया, लेकिन उसी सरकार के 2018 के आंकड़े यह भी बताते हैं कि देश में हर 15 मिनट में एक बलात्कार की घटना होती है। यह तो तब है जब लोकलाज आदि कारणों से पुलिस तक दुष्कर्म की आधी भी शिकायतें दर्ज नहीं कराई जाती हैं। और ज्यादा चिंताजनक बात यह है कि 2018 में एक साल पहले के मुकाबले ऐसी वारदातों में 0.9 प्रतिशत की बढ़ोतरी दर्ज की गई।
आंकड़े बताते हैं कि मानव सभ्यता की 21वीं सदी के भारत में 70 प्रतिशत महिलाएं घरेलू हिंसा का शिकार होती हैं। यह हिंसा शारीरिक, मानसिक, आर्थिक या यौनिक कोई भी हो सकती है। बच्चों में संस्कारों की नींव यहीं से पड़ती है। यह पुरुषवादी बर्ताव स्वत: बच्चे के अवचेतन का हिस्सा बन जाता है। परिवार के बाद सामाजिक हालात पर भी ध्यान दिया जाए। महिलाओं की सामाजिक सुरक्षा की स्थिति तो और भी भयावह है।
महिलाओं को अपने सम्मान और अधिकारों के लिए रामायण और महाभारत के समय से ही लड़ाई लड़नी पड़ रही है। स्त्री के सम्मान का प्रश्न न होता तो महाभारत न हुआ होता! और पूरा इतिहास नारी के संघर्ष की गाथाओं से भरा पड़ा है। रास्ता अभी बहुत लम्बा है और बिना रुके, बिना थके चलते जाना है। मंजिल दूर है लेकिन ओझल नहीं है। वह जरूर मिलेगी।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।