गुरबचन जगत
जम्मू-कश्मीर का जिक्र राष्ट्रीय परिदृश्य पर सदैव मुखर रहा है। पिछले 2 साल भी अपवाद नहीं हैं, जब वहां बड़े स्तर पर बदलाव हुए हैं, जिन्होंने प्रशासनिक ढांचे की नींव बदलकर रख दी है-वह बदलाव, जो पूरी तरह अनापेक्षित नहीं थे। हालांकि ऐसा करने में कदाचित हम अपने दुश्मनों के हाथ में खेल बैठे हैं, जो हमेशा ऐसे मौकों की तलाश में रहते हैं, जिससे नागरिकों में आपसी फूट पैदा की जा सके और हमारे लोकतंत्र को कमजोर किया जाए। लागू किए गए फैसले के झटके इस पूर्व राज्य के रोजमर्रा के जीवन में आज भी महसूस किए जा रहे हैं। विश्वास बनाना प्रत्येक मानवीय रिश्ते की नींव होता है और यह वही काम है, जिस पर हम दशकों से काम कर रहे थे। किंतु वर्तमान में इस यकीन में दरारें आ चुकी हैं। मैं उम्मीद करता हूं कि हम इसकी बहाली फिर से कर पाएंगे। जब हम समूचे देश में एक-दूसरे से भिन्नता की कद्र करते हैं तो हमें आपसी एकता बनाकर रखनी होगी। मुझे संतोष है कि जम्मू-कश्मीर पुलिस की पुनर्संरचना के काम में अपनी भूमिका से मैं ‘विश्वास’ बहाली का हिस्सा रहा था।
वर्ष 1996 के अंत में जम्मू-कश्मीर विधानसभा के चुनाव संपन्न हुए थे और डॉ. फारूख अब्दुल्ला ने नेशनल कानफ्रेंस की ओर से बतौर मुख्यमंत्री ओहदा संभाला था। उसके बाद वह घड़ी आई जब केंद्रीय गृह मंत्रालय ने तय किया कि पुलिस का नेतृत्व करने को महानिदेशक राज्य कैडर से न होकर बाहरी सूबे से लाकर नियुक्त किया जाएगा। मुझसे पूछा गया कि क्या मैं पंजाब कैडर से डेपूटेशन पर वहां जाकर इस पद पर काम करना चाहूंगा, तो मैंने हां कर दी, यह सोचकर कि समस्याग्रस्त इस राज्य की मुश्किल की घड़ी में पुलिस का नेतृत्व करना बहुत सम्मान की बात होगी। लिहाजा मैंने फरवरी 1997 में बतौर पुलिस महानिदेशक का ओहदा संभाला था।
चूंकि वह सर्दी का समय था, इसलिए मेरी नियुक्ति शरदकालीन राजधानी जम्मू में हुई थी और मैंने औपचारिकता तुरंत पूरी करने को राज्यपाल, मुख्यमंत्री, मुख्य सचिव के अलावा सशस्त्र बलों, सेना और अर्धसैनिक बलों के क्षेत्रीय कमांडरों से भेंट की थी। इसके बाद मैंने घाटी के पुलिस थानों का दौरा शुरू किया। इस सिलसिले में राजौरी, पुंछ, डोडा और अन्य सभी जिलों में गया, हर जगह मैंने कांस्टेबलों और कनिष्ठ पुलिस अधिकारियों से व्यक्तिगत राब्ता बनाकर बातचीत की और इस मौके पर सेना एवं अर्धसैनिक बलों के क्षेत्रीय वरिष्ठ अधिकारियों से भी मुलाकातें कीं। यह वर्दी का सम्मान करने के अलावा विदेशी एजेंटों और उनके स्थानीय समर्थकों से हमारी मातृभूमि की रक्षा में सम्मिलित प्रयास करने का धन्यवाद भी था। राज्य पुलिस मुखिया रहते हुए मेरा उद्देश्य केवल एक था- स्थानीय पुलिस और नागरिकों का विश्वास अर्जित करना और यह तभी संभव हो पाता, यदि वे मुझे न्यायप्रिय, निष्पक्ष, सहृदय और व्यावसायिक गुणों वाला पाते। उस वक्त राज्य पुलिस को बुनियादी सुविधाओं, आधुनिक हथियार, परिवहन, संचार माध्यमों इत्यादि की कमी खल रही थी। केंद्रीय गृह मंत्रालय का हाथ पूरी तरह मेरी पीठ पर होने से यह सब चीज़ें आगामी चंद महीनों में मुहैया करवा दी गईं और बदले में हमें केवल एक चीज की अपेक्षा थी यानी संपूर्ण वफादारी, काम के प्रति समर्पण और हमारे भावी अभियानों के लिए पुख्ता खुफिया जानकारी।
पुलिस बल को सुदृढ़ करने की दिशा में एक नीतिगत फैसला उसकी संख्या में बढ़ोतरी करना था। साथ ही युवाओं को रोजगार के लिए मौके बनने से स्थानीय लोगों को बहुत फायदा होता। मैंने दूरदराज के इलाकों का भी दौरा किया और बड़ी संख्या में शारीरिक रूप से सक्षम युवाओं की भर्ती होनी शुरू हो गई। किसी क्षेत्र में भर्ती की पूर्व सूचना कुछ दिन पहले ही दिया करते थे और चुने हुए युवकों को तुरंत नजदीकी पुलिस लाइंस में आगामी प्रक्रिया हेतु भेज देते थे। ऐसा करने के पीछे उद्देश्य था बिचौलियों की गुंजाइश को खत्म करना, इससे अपारदर्शिता और रिश्वतखोरी या अंदरखाते मिलीभगत होनी मुश्किल बन गई थी। बेरोजगारी झेल रहे उत्साहित युवा भर्ती करने वालों से कहते कि उन्हें तुरंत और उसी क्षण अपने साथ ले जाएं। राज्य के दूरदराज के क्षेत्रों में व्याप्त अत्यंत गरीबी और वर्षों के संघर्ष से उपजी अनदेखी को देखा जा सकता था। सीमावर्ती छोटी बस्तियों के युवा हमारे लिए आतंकरोधी-अभियानों में बहुत फायदेमंद सिद्ध हुए और हमारे सुरक्षा कवच का अभिन्न अंग बन गए। वे न केवल दुरूह पहाड़ी इलाकों से अच्छी तरह वाकिफ थे और बहुत कुशलता से चढ़-उतर लेते थे बल्कि खुफिया जानकारी जुटाने का बेहतरीन स्रोत भी थे। भर्ती करते वक्त धार्मिक या क्षेत्रवाद का हमारे लिए कोई मायने नहीं था, सिवाय इसके कि जम्मू -कश्मीर और लद्दाख संभाग के बीच संतुलन बना रहे। इस प्रक्रिया का सकारात्मक प्रभाव कुछ माह में साफ दिखाई देने लगा और विश्वास हकीकत में बदलने लगा। ये सिपाही विशेष अभियान दल (स्पेशल ऑपरेशन ग्रुप) का मुख्य हिस्सा बने, हालांकि इसमें सेना, अर्धसैनिक बलों, विशेष सुरक्षा अधिकारी भी हिस्सा होते हैं। इन विशेष दलों की सफलता के पीछे स्थानीय युवा होते हैं जो आतंकियों के बारे खुफिया जानकारी मुहैया करवाते थे।
आधुनिक उपकरण भी जल्द पहुंचने लगे। सबसे पहले हमने सुनिश्चित किया कि नए परिवहन वाहन, संचार और शस्त्रास्त्र इत्यादि थानों को दिए जाएं। इससे हमारी साख बढ़ी एवं पुलिस अधिकारियों के काम में नयी स्फूर्ति आ गई। वरिष्ठ अधिकारियों को भी अपेक्षित सम्मान दिया गया और जिम्मेवारियां सौंपी गईं, जो उन्होंने खुशी-खुशी स्वीकार कर अमल में लाईं। पुलिस मुख्यालय और कार्यक्षेत्र में हम एक टीम की तरह विकसित होने लगे। विचार-मंत्रणा के बाद हमने युवा और साहसी अधिकारियों को जिलों में लगाया और उनसे कहा कि अपने काम को सावधानीपूर्वक और निडरता से अंजाम दें और अपनी ओर से हमने उन्हें पूरा नैतिक बल एवं सामग्री-मदद मुहैया करवाई। हमने लगभग 35 राज्य पुलिस अफसरों को केंद्रीय गृह मंत्रालय, क्रमिक विभाग और संघ लोकसेवा आयोग से समन्वय बनाकर आईपीएस बनवाया। यह काम पिछले 7-8 सालों से लंबित पड़ा था। यह सब केंद्र और राज्य सरकार की निरंतर मदद से संभव हो पाया था। लगभग 4 साल के कार्यकाल में मैंने 3 मर्तबा केंद्र में सरकारें बदलती देखीं और इतने ही प्रधानमंत्री भी। किंतु उनमें एक ने भी आतंक के खिलाफ लड़ाई को मद्धम नहीं पड़ने दिया। इसकी बजाय समय-समय पर सुदृढ़ किया। उद्देश्य-दिशा-निशाना सबका एक था। यानी हमारे दुश्मनों के मंसूबों को हराना और एक मजबूत, एकीकृत, प्रभावशाली पुलिस बल बनाना। केंद्र और राज्य सरकार के विश्वास में हम मजबूत होते गए।
हमारे प्रयासों में बाकी देश की मदद का एक और उदाहरण नये रंगरूटों का प्रशिक्षण था। हमने हजारों सिपाही और नॉन-गजेटेड अधिकारी भर्ती किए थे, लेकिन उन्हें प्रशिक्षित करने की सुविधा सूबे में पर्याप्त न थी। इसलिए हमने पंजाब, हरियाणा और दिल्ली के पुलिस मुखियाओं से मदद की गुजारिश की और उनमें प्रत्येक ने कुछ हजार अपने यहां तैयार करवाए और प्रशिक्षण पर निजी ध्यान अलग से दिया। अन्य राज्यों की पुलिस कार्यशैली देखने का यह मौका जम्मू-कश्मीर पुलिस के लिए बहुत फायदेमंद रहा। इतना ही नहीं, पंजाब, हरियाणा और दिल्ली राज्य ने प्रशिक्षण की एवज में कोई शुल्क लेने से भी इनकार कर दिया था। इस तरह बाकी देश ने हमारा साथ देकर अपनी जिम्मेवारी निभाई और हमारी जरूरत वाकई बहुत गंभीर थी क्योंकि दुश्मन तब खाली बैठने लगा। घुसपैठ करवाने के अनेकानेक प्रयास किए गए। पाकिस्तान ने अफगानिस्तान में तालिबान की सरकार बनने के बाद जेहाद से खाली हुए आतंकियों का इस्तेमाल भारत के खिलाफ करना शुरू कर दिया और ज्यादा से ज्यादा संसाधन और मानव-बल कश्मीर में धकेलने की नीति अपनाई। कारगिल की परिस्थिति बनने से पहले वाले सालों में हमारा इम्तिहान बहुत कड़ा हो चला था, लेकिन जम्मू-कश्मीर पुलिस के युवाओं ने मैदान नहीं छोड़ा। बहुत से लोकतंत्र की रक्षा करते हुए शहीद हुए। कारगिल युद्ध के दौरान आईएसआई द्वारा सूबे के अंदर गड़बड़ और हिंसा भड़काने के बहुत प्रयास किए गए ताकि अंदरूनी क्रांति की छवि तैयार की जा सके। लेकिन यह सेहरा जम्मू-कश्मीर पुलिस और अन्य सुरक्षा बलों के सिर बंधता है कि हमारी सुरक्षा छतरी मजबूत रही। यह विशेषतौर पर श्लाघापूर्ण था क्योंकि अंदरूनी सुरक्षा पर लगी सेना को रातों-रात हटाकर अग्रिम मोर्चों पर भेजना पड़ा था और इनकी जगह लेने को राष्ट्रीय राइफल्स को समय लगना स्वाभाविक था।
यहां मैं रुककर संयुक्त कमान के तले काम करने वाले सशस्त्र और अर्धसैनिक बल, खुफिया एजेंसियों और तमाम सहयोगी बलों, संस्थानों और इन सबसे ऊपर मुख्यमंत्री एवं केंद्रीय गृह मंत्रालय की पूरी मदद और भारी योगदान का शुक्रिया अदा करना चाहूंगा। केवल एक मर्तबा ही तत्कालीन उपप्रधानमंत्री ने जम्मू-कश्मीर पुलिस कर्मियों और विशेष पुलिस अधिकारियों को बड़े पैमाने पर आधुनिक हथियारों से लैस करने को लेकर कुछ शंका उठाई थी परंतु मैंने उन्हें विश्वास दिलाया कि उनकी ओर से न तो कोई भगोड़ा बनेगा, न ही हथियार गुम होंगें। अपना पद छोड़ने के समय मैंने उन्हें उक्त डर की याद दिलवाई और बताया कि कैसे यह निराधार सिद्ध हुआ क्योंकि हमारे पास सूबे के तीनों क्षेत्रों से आने वाले सिपाही वफादार, प्रशिक्षित और समर्पित हैं। अनेकता में एकता के साथ मजबूत संघीय ढांचा हमारी ताकत रही है। मेरा विश्वास रहा है कि यदि हमने जम्मू-कश्मीर में एक सक्रिय लोकतांत्रिक व्यवस्था बनाने पर ज्यादा काम किया होता और राजनेताओं एवं अफसरशाही को लोगों के प्रति जवाबदेह बनाया होता तो परिस्थितियां कहीं ज्यादा अलग होतीं। मुझे यकीन है कि बर्बरों से सालों तक लड़ाई के बावजूद हम उन जैसे बर्बर नहीं हैं। जैसा कि अमेरिकी राष्ट्रपति रूजवेल्ट ने कहा था : ‘सत्ता में रहकर ताकत के नशे में नक्शे पर लकीरें खींच देना और दावे करना कहीं ज्यादा आसान है, लेकिन इसके असरात लंबे समय तक बने रहते हैं।’
लेखक मणिपुर के राज्यपाल, संघ लोकसेवा आयोग के अध्यक्ष और जम्मू-कश्मीर में पुलिस महानिदेशक रहे हैं।