कोरोना काल में शिक्षा
ऐसे समय में जब खबरों की दुनिया चीन युद्ध की आशंका, कोरोना वैक्सीन ट्रायल, राजस्थान के सियासी संकट या श्रीराम मंदिर भूमि पूजन के ही इर्दगिर्द घूम रही हो, किसी टीचर का बैलगाड़ी से स्कूल किताबें पहुंचाना अच्छी खबर है। ऐसे दौर में जहां शिक्षा एक व्यवसाय बन चुकी हो वहां मध्य प्रदेश के रायसेन की ये घटना बेमिसाल है। टीचर नीरज सक्सेना सालेगढ़ गांव के प्राथमिक स्कूल में बतौर टीचर कार्यरत हैं। वे जंगल के रास्ते छात्रों के लिए बैलगाड़ी से किताबें लेकर स्कूल पहुंचे।
उन्होंने सरकार द्वारा भेजी गई किताबों को स्कूल खुलने से पहले ही स्कूल में पहुंचाने की ठानी। रायसेन जिले के ईंटखेड़ी संकुल केन्द्र से सरकारी किताबें बैलगाड़ी पर लादीं और फिर 5 किलोमीटर दूर सालेगढ़ पाठशाला तक पहुंचाईं। गांव तक जाने के लिए कोई पक्का रास्ता नहीं है। बारिश में कच्चा रास्ता भी खराब हो जाता है। ऐसे में कोई वाहन नहीं गुजर पाता। इसलिए उन्होंने बैलगाड़ी के जरिए किताबों को स्कूल तक पहुंचाया। वे इस बात से चिंतित थे कि कोरोना के कारण स्कूल बंद होने से बच्चों की पढ़ाई पहले ही प्रभावित हो चुकी है। ऐसे में अब जब भी स्कूल खुलेंगे तो बच्चों को तुरंत किताबें मिल जाएंगी।
एक रिपोर्ट के मुताबिक गुणवत्ता में कमी के चलते बच्चे ऊंची कक्षा में जा तो रहे हैं लेकिन उनकी जानकारी या शिक्षा का स्तर उनकी वर्तमान कक्षा से कई कक्षा नीचे है। राज्य में 1 लाख 42 हजार 512 आरंभिक स्कूल हैं जबकि प्राथमिक स्कूल (कक्षा एक से पांच) की संख्या 89 हजार 119 और उच्च प्राथमिक स्कूल (कक्षा 6 से 8) की संख्या 47 हजार 47 है। राज्य में शिक्षा की स्थिति का सबसे चिंताजनक पहलू यह है कि बच्चों में जानकारी या ज्ञान का स्तर बहुत ही कम है।
कई स्कूल ऐसे हैं जहां शिक्षक या तो हैं ही नहीं या फिर वहां शिक्षकों की भारी कमी है। शिक्षा के अधिकार कानून के मुताबिक प्राथमिक स्तर के स्कूलों में कम से कम दो और उच्च प्राथमिक स्कूलों में कम से कम तीन शिक्षक जरूर होने चाहिए। लेकिन कई स्कूलों में यह संख्या भी मौजूद नहीं है। मध्य प्रदेश के हजारों सरकारी स्कूल भवनविहीन हैं। 22 हजार स्कूल एक शिक्षक के भरोसे चल रहे हैं। स्कूलों में पर्याप्त कमरे नहीं होने से एक ही कमरे में कई कक्षाएं लगाई जा रही हैं। दिलचस्प बात तो ये है कि सरकारी स्कूलों में शिक्षा का स्तर सुधारने के लिए विभाग के अधिकारी लगातार देश-विदेश के दौरे करते रहे हैं। पिछले साल शिक्षा विभाग के मंत्री सहित करीब 200 अधिकारी और प्राचार्य दक्षिण कोरिया के दौरे पर जा चुके हैं, जिसमें करोड़ों रुपए खर्च किए गए। ऐसे में एक टीचर का बैलगाड़ी से स्कूल तक किताबें पहुंचाना सकरात्मक कदम तो है ही। वह भी वहां, जहां कोरोना के दौर में डिजिटल पढ़ाई भी का कोई विकल्प न हो।
शिक्षा क्षेत्र कोरोना के कारण पहले ही काफी प्रभावित हुआ है। आने वाले समय में शिक्षा महकमे के सामने इस नुकसान से उबरना आसान नहीं होगा। लॉकडाउन होने से सबसे पहले जो संस्थान बंद किए गए, वे स्कूल, कॉलेज ही थे। ये सुरक्षा के नजरिए से सराहनीय कदम था। ऐसे में डिजिटल शिक्षा किसी वरदान से कम नहीं है। ऑनलाइन शिक्षा विकल्प को अपनाने के सिवाय इस समय कोई विकल्प भी नहीं है। लेकिन क्या ये सब तक सुलभ है? सवाल खड़ा होना लाजिमी है क्योंकि देश के दूरदराज इलाकों खासकर पहाड़ों पर जहां कॉल करने तक का सिग्नल नहीं होता है, ऐसे में इंटरनेट स्पीड के लिए सिग्नल होना सपने से कम नहीं है। कई परिवार ऐसे हैं जिनके पास मोबाइल फोन नहीं हैं। किसी के पास है तो उनके घर में पढ़ने वाले दो हैं।
रायसेन के नीरज सक्सेना जैसे टीचरों ने ही उन जगहों पर शिक्षा का अलख जगाया है जहां बच्चे स्कूल जाना तो दूर किताब तक देखना नहीं चाहते थे। स्कूलों में दाखिला लेने वाले चालीस फीसदी बच्चे स्कूली स्तर की शिक्षा पूरी नहीं कर पाते। महाविद्यालय स्तर में दाखिला लेने वाले हर तीन छात्रों में से एक बीच में ही पढ़ाई छोड़ देता है।
स्कूलों में सीखना तब तक वास्तविकता का रूप नहीं ले सकता जब तक हम ये मानते रहें कि बच्चों को यह बताना हमारा कर्तव्य और अधिकार है कि उन्हें क्या सीखना चाहिए। यह तो केवल बच्चा स्वयं ही तय कर सकता है।
शिक्षा किसी भी देश के लिये उसकी विरासत, यानी महज़ पढ़ना-लिखना या साक्षर होना भर नहीं है बल्कि यह व्यक्ति के लिये बौद्धिक विकास के मौके प्रदान करने का एक माध्यम है। शिक्षा का अर्थ यह नहीं कि मनुष्य उन वस्तुओं का ज्ञान हासिल करे, जिनका उसे ज्ञान नहीं है बल्कि उसका अर्थ है, उसको वैसा व्यवहार करने की शिक्षा देना, जैसा कि वह नहीं करता।