विश्वनाथ सचदेव
आखिर प्रधानमंत्री मोदी के हाथों देश के नये संसद-भवन का उद्घाटन हो ही गया। पता नहीं क्यों मुझे लग रहा था ऐन मौके पर प्रधानमंत्री कोई चमत्कार करेंगे। शायद इस अहसास का आधार अक्सर प्रधानमंत्री द्वारा चौंकाने वाला काम करने के पिछले उदाहरण हों। पर इस बार उन्होंने चौंकाया नहीं। यह मेरी खुशफहमी ही थी कि मैं समझ रहा था वे अचानक राष्ट्रपति जी से उद्घाटन का आग्रह लेकर राष्ट्रपति भवन पहुंच जाएंगे। और विपक्ष देखता ही रह जायेगा। वैसे विपक्ष अब भी देखता ही रहा कि भव्य संसद-भवन का उद्घाटन भव्य नाटकीयता के साथ हो गया।
वैसे यह अवसर हम सबके लिए गौरव का होना चाहिए था पर सत्तारूढ़ दल और विपक्ष दोनों ने इसे अपनी राजनीति चमकाने का अवसर बना दिया। प्रधानमंत्री देश का नेता होता है, इसलिए उनके हाथों यदि देश के संसद-भवन का उद्घाटन होता है तो इसे अजूबा नहीं समझा जाना चाहिए, लेकिन यदि इस अवसर को प्रधानमंत्री की छवि चमकाने का माध्यम बना दिया जाता है तो उंगलियां उठना स्वाभाविक है। इसीलिए कहा जा रहा है कि यदि प्रधानमंत्री चाहते तो अवसर को और गरिमामय बना सकते थे। जैसे पूजा के लिए प्रधानमंत्री और लोकसभा के अध्यक्ष साथ बैठे थे वैसे ही राष्ट्रपति के साथ भी मंच साझा किया जा सकता था। प्रोटोकोल की दुहाई देकर इस संभावना को खारिज किया जा सकता है, पर प्रोटोकोल बनाते भी तो हम ही हैं। बेहतर होता इस भव्य काम के अवसर पर देश के प्रथम नागरिक, राष्ट्रपति भी साक्षी बनते, उपराष्ट्रपति भी साथ होते, नेता प्रतिपक्ष भी होते। नया संसद-भवन देश की राजनीति को नया आधार देने का प्रतीक बन सकता था। पर आज हमारी राजनीति का स्तर जितना उथला हो चुका है, उसमें ऐसी किसी ऊंचाई की अपेक्षा करना भी एक खुशफहमी ही है।
बहरहाल, इस भव्य कार्यक्रम को लेकर उठे विवादों से ज़रा हटकर बात करने की भी आवश्यकता है। लोकतंत्र का मंदिर कहा जा रहा है इस नयी इमारत को। पर इस मंदिर का भव्य होना ही पर्याप्त नहीं है, इसे दिव्य भी होना चाहिए। इस मंदिर को दिव्यता, इसकी शान-शौकत से नहीं मिलेगी। दिव्यता मिलेगी इस मंदिर में होने वाले काम से। हमारी चुनी हुई सरकार और हमारा चुना हुआ विपक्ष कितनी ईमानदारी और योग्यता-क्षमता से अपने कर्तव्यों का पालन करता है, यह बात लोकतंत्र के इस भव्य मंदिर को दिव्य बनायेगी। प्रधानमंत्री ने लोकतंत्र के इस मंदिर को 140 करोड़ भारतीयों की आकांक्षाओं का प्रतीक बताते हुए इसे देश को समर्पित किया है। क्या अपेक्षा अथवा आकांक्षा है भारत के नागरिकों की? वे चाहते हैं कि हमारे सांसद, हमारी सरकार उन मूल्यों और आदर्शों के अनुरूप कार्य करें जिन पर हमारा संविधान टिका है। हर निर्वाचित इस संविधान की शपथ लेकर इस इमारत में प्रवेश करता है। संविधान की शपथ लेने का अर्थ उन मूल्यों के प्रति अपने आपको समर्पित करना है, जो हमारे संविधान को आधार और आकार देते हैं। हमारे संविधान की प्रस्तावना में ही स्पष्ट कर दिया गया है कि हमारा भारत पंथ-निरपेक्षता में विश्वास करेगा; समता, स्वतंत्रता, न्याय और बंधुता के मूल्यों के अनुसार चलेगा। अर्थातzwj;्, ये वे मूल्य हैं जो हमारा लक्ष्य निर्धारित करेंगे, उन लक्ष्यों तक पहुंचने में हमारा पथ-प्रदर्शन करेंगे। इन मूल्यों की रक्षा करने और उनके अनुरूप आचरण करने का दायित्व हमारे निर्वाचित प्रतिनिधियों का ही नहीं, हर नागरिक का भी है। हममें से हर एक को अपने आप से यह पूछना होगा कि क्या हम अपने संविधान के प्रति ईमानदार हैं?
हमारे संविधान के प्रमुख शिल्पी बाबा साहेब अम्बेडकर ने संविधान का प्रारूप प्रस्तुत करते हुए कहा था, ‘संविधान भले ही कितना ही अच्छा क्यों न हो, अंतत: संविधान की अच्छाई इसके अनुसार काम करने वालों की योग्यता क्षमता पर निर्भर करती है। आज हमें यह देखने की आवश्यकता है कि क्या हम इस कसौटी पर खरे उतरते हैं? हम यानी हमारे निर्वाचित प्रतिनिधि, हमारे सांसद। हमारा संसद-संकुल कितना शानदार है यह बात महत्व नहीं रखती। महत्वपूर्ण यह बात है कि इसमें काम करने वाले हमारे सांसद कितनी ईमानदारी-निष्ठा से अपना काम करते हैं? संविधान की मर्यादाओं का पालन करते हैं या नहीं? संविधान की भावनाओं का कितना आदर करते हैं? अपने कर्तव्यों के प्रति कितने जागरूक हैं? इन सारे सवालों के जवाब हमारे निर्वाचित प्रतिनिधियों, हमारी सरकार के आचरण से ही मिलते हैं।’
दुर्भाग्य से हमारे प्रतिनिधियों का आचरण अक्सर श्रेष्ठता की कसौटी पर खरा नहीं उतरता। अक्सर वे यह भूल जाते हैं कि उन्हें संविधान की मर्यादाओं के अंतर्गत काम करना होता है। अक्सर हम देखते हैं कि कभी उनके वैयक्तिक स्वार्थ अधिक महत्वपूर्ण हो जाते हैं और अक्सर वे दलीय हितों को राष्ट्रीय हितों से ऊपर मान बैठते हैं।
संसद के नये भवन का उद्घाटन प्रधानमंत्री ने कर दिया है। सुना है भीतर से भी बहुत शानदार है यह भवन। लोकतंत्र का मंदिर कहा गया है इसे। पर मंदिर में मूर्ति स्थापित कर देना ही पर्याप्त नहीं होता, मूर्ति की प्राण-प्रतिष्ठा करनी होती है। इस मंदिर की मूर्ति की प्राण-प्रतिष्ठा मंत्रों से नहीं होती, दीप-धूप जलाकर आरती नहीं होती इस मूर्ति की। यहां पूजा और पुजाया सांसदों के आचरण से होता है। सामान्य सांसद से लेकर प्रधानमंत्री तक को अपने आचरण से यह सिद्ध करना होगा कि वह राष्ट्रीय हितों को सर्वोपरि समझता है। स्वयं को सिद्ध करने की यह परीक्षा लगातार चलती रहती है। रोज यह परीक्षा देनी होती है, और रोज इसमें सफल होना होता है। राष्ट्रीय हितों के लिए ही काम करने की इस परीक्षा में असफल होने के लिए कोई अवसर नहीं है।
नये संसद-भवन के साथ एक चीज़ और जोड़ी गयी है। ऐतिहासिक और पवित्र ‘सेंगोल’ यानी राजदंड। कहते हैं सत्ता के हस्तांतरण के समय ब्रिटिश वायसराय ने यह ‘सेंगोल’ तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को सौंपा था। प्रधानमंत्री मोदी ने इसे म्यूजियम से निकाल कर संसद भवन में लोकसभा में स्पीकर के आसन के निकट स्थापित किया है। वैसे तो यह राजदंड राजा के हाथ में होता था जो उसके शासक होने का प्रतीक माना जाता है, पर जनतंत्र में सेंगोल का अर्थ शासक को यह याद दिलाना है कि वह शासक नहीं, सेवक है। देशवासी, उसकी प्रजा नहीं, जनता है। यही जनता उसे शासक चुनती है। यह चुनाव सेवा करने के लिए होता है, राज करने के लिए नहीं। यह ‘सेंगोल’ न तो पूजा की वस्तु है, न माथा टेकने की। यह उस कर्तव्य की याद दिलाने वाला प्रतीक-चिह्न है जो प्रजातंत्र में निर्वाचित प्रतिनिधियों को निभाना होता है। उम्मीद ही कर सकते हैं कि नये संसद-भवन में हमारे निर्वाचित प्रतिनिधि सेवा के इस प्रतीक से शिक्षा भी प्राप्त करेंगे, और प्रेरणा भी। प्रजातंत्र के मंदिर में प्राण-प्रतिष्ठा का यही अर्थ है।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।