बिहार विधानसभा चुनाव परिणामों की व्याख्या दोनों तरह से की जा सकती है : राजग ने अगर हारी हुई बाजी जीत ली तो महागठबंधन जीती हुई बाजी हार गया। नीतीश कुमार के 15 साल के मुख्यमंत्रित्वकाल के बाद भी सत्ता विरोधी भावना को मंद करते हुए राजग ने जिस तरह इस बार जनादेश हासिल किया, उसका श्रेय मुख्यत: प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा को जाता है। सत्ता विरोधी भावना के चलते ही राजद-कांग्रेस-वामदल महागठबंधन के लिए चुनावी परिदृश्य अनुकूल नजर आ रहा था। ज्यादातर एग्जिट पोल में तो महागठबंधन को प्रचंड बहुमत भी दिखाया गया था। बेशक विदेश की तर्ज पर सैंपल सर्वे के जरिये भारतीय मतदाता के मन को पढ़ने के ऐसे दावे अतीत में भी औंधे मुंह ही गिरते रहे हैं। आश्चर्य नहीं कि इस बार भी वैसा ही हुआ, लेकिन तीन चरणों में मतदान वाले इन चुनावों के परिणाम जिस तरह हर चरण में अलग-अलग आये, उससे साफ है कि चुनाव प्रचार और मतदान के दौरान भी समीकरण और परिदृश्य बदला। इसीलिए कहा जा सकता है कि समय के साथ रणनीति बदलते हुए राजग ने हारी हुई दिख रही बाजी भी आखिर में जीत ली, जबकि महागठबंधन जीती नजर आ रही बाजी भी हार गया।
जाहिर है, जिस तरह जीत का यश मिलता है, वैसे ही हार का अपयश भी लेना पड़ता है। यश में हर कोई भागीदार बनना चाहता है, लेकिन अपयश का कोई हिस्सेदार नहीं बनना चाहता। फिर भी इस सच से तो इनकार नहीं किया जा सकता कि बिहार में शुरू में विजयी नजर आ रहे महागठबंधन में सबसे कमजोर कड़ी कांग्रेस ही साबित हुई। 2013-17 के बीच लगभग चार साल के अंतराल को छोड़ दें तो नीतीश कुमार सरकार में भाजपा भी भागीदार रही है, लेकिन सत्ता विरोधी भावना के बीच भी उसने इन चुनावों में शानदार प्रदर्शन किया। 2015 के विधानसभा चुनाव में नीतीश के जद(यू) का लालू के राजद और कांग्रेस के साथ महागठबंधन था, जबकि भाजपा रामविलास पासवान की लोजपा और उपेंद्र कुशवाहा की रालोसपा के साथ मिलकर लड़ी थी। तब भाजपा ने 157 सीटों पर चुनाव लड़कर 53 सीटें जीती थीं, जबकि इस बार 110 सीटों पर लड़कर 74 जीतने में सफल रही। बेशक राजद उससे एक सीट ज्यादा जीतने में सफल रहा, लेकिन स्ट्राइक रेट भाजपा का ही सबसे शानदार रहा। निश्चय ही लालू की चुनाव प्रचार में अनुपस्थिति के बावजूद तेजस्वी के नेतृत्व में राजद ने भी बहुत अच्छा चुनावी प्रदर्शन किया। वामदलों को महागठबंधन में शामिल कर तेजस्वी ने जो दांव चला, उसके भी उम्मीद से बेहतर परिणाम आये। जिन वाम दलों को उत्तर भारतीय राजनीति में इतिहास की वस्तु मान लिया गया था, वे बिहार में इस बार 16 सीटें जीतने में सफल रहे। स्ट्राइक रेट उनका भी भाजपा से कम प्रभावशाली नहीं रहा।
महागठबंधन में सबसे निराशाजनक प्रदर्शन अगर किसी का रहा तो वह है देश की सबसे पुरानी और देश पर सबसे ज्यादा समय तक शासन करने वाली राजनीतिक पार्टी कांग्रेस का। महागठबंधन में सीट बंटवारे में कांग्रेस के हिस्से 70 सीटें आयी थीं, राहुल गांधी ने प्रचार भी किया, पर कांग्रेस महज 19 सीटें ही जीत पायी। कहना नहीं होगा कि अगर कांग्रेस ने जीतन राम माझी या असदुद्दीन औवेसी के छोटे दलों जैसा भी चुनावी प्रदर्शन किया होता तो बिहार का निर्णायक नतीजा कुछ और हो सकता था। यह भी कि अगर सीट बंटवारे में ही ज्यादा व्यावहारिक नजरिया अपनाते हुए कांग्रेस को कम तथा राजद और वाम दलों को ज्यादा सीटें दी गयी होतीं तब भी अंतिम परिणाम उलट हो सकते थे। यह समझना मुश्किल नहीं होना चाहिए कि अभी भी गौरवशाली अतीत की खुमारी से बाहर नहीं निकल पायी कांग्रेस, खासकर उसके नेताओं ने ज्यादा सीटों के लिए राजद पर दबाव बनाया होगा। प्रतिकूल परिस्थितियों से घिरे तेजस्वी दबाव का प्रतिकार नहीं कर पाये होंगे, पर उस सबका अंतिम निष्कर्ष क्या निकला? यही न कि लोकसभा चुनाव में जबरदस्त बहुमत पाने के बाद भी महाराष्ट्र और झारखंड में सत्ता गंवा चुकी भाजपा को आगामी चुनावों के लिए चुनावी जीत की जरूरी डोज मिल गयी तो गहरे आत्मविश्वास के संकट से जूझ रहे विपक्ष को ऐसा जोरदार झटका, जिससे उबर पाना आसान नहीं होगा।
राष्ट्रीय राजनीति और लोकसभा चुनाव में मोदी और भाजपा के समक्ष मुकाबले में भी नजर न आने वाले विपक्ष की उम्मीदें अब राज्यों के विधानसभा चुनावों तक ही सीमित हैं, जहां दो ध्रुवीय राजनीति है या फिर भाजपा अकेलेदम चुनाव न लड़ पाने की स्थिति में है। अगर वहां भी विपक्ष आत्मघाती रणनीति से जीती हुई बाजी हारेगा तो तय मानिए कि भारतीय राजनीति में सशक्त विपक्ष का शून्य भरने के बजाय और पराभव का विस्तार ही पायेगा। बेशक यह संकट पूरे विपक्ष का है। आखिर 2017 में हम देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश का विधानसभा चुनाव परिणाम देख चुके हैं। दो दशक से भी ज्यादा समय तक उत्तर प्रदेश की राजनीति ही नहीं, सत्ता पर भी दो क्षेत्रीय दलों : सपा-बसपा का वर्चस्व रहा, लेकिन 2017 के विधानसभा और फिर 2019 के लोकसभा चुनाव में मोदी की भाजपा की ऐसी लहर चली कि शेष सभी दलों का अस्तित्व ही संकट में नजर आने लगा है। फिर भी कांग्रेस का संकट इसलिए ज्यादा बड़ा और चिंताजनक है, क्योंकि वह देश की आजादी के आंदोलन से निकली पार्टी है और जाति-वर्ग-संप्रदाय से ऊपर उठ कर उसकी स्वीकार्यता रही है,पर 2014 के लोकसभा चुनाव में हुए ऐतिहासिक पराभव के बाद लगता है मानो कांग्रेस का अपना आत्मविश्वास डगमगा गया है। यह सही है कि अतीत में भी केंद्र की सत्ता से बेदखल कांग्रेस वापस लौटी है, लेकिन इस बार मामला सिर्फ सत्ता से बेदखली तक सीमित नहीं है। 2014 के लोकसभा चुनाव में मात्र 44 और 2019 के लोकसभा चुनाव में 52 सीटों पर सिमट जाना बताता है कि फिसलती कांग्रेस का संकट कितना गहरा है। चाहे 1977 की हार हो या फिर 1989 और 1996 की, कांग्रेस सत्ता से बेदखल हुई थी, पर राजनीतिक दल के रूप में उसका आत्मविश्वास और प्रासंगिकता, दोनों ही बरकरार थीं। इस बार का संकट गहरा इसलिए है कि अब आत्मविश्वास और प्रासंगिकता, दोनों पर ही सवालिया निशान लग गया है।
कुछ महीने पहले 23 वरिष्ठ नेताओं द्वारा कांग्रेस की कार्यवाहक अध्यक्ष सोनिया गांधी को पार्टी में व्यापक सुधारों के लिए लिखा गया पत्र हो या अब बिहार चुनाव के बाद कपिल सिब्बल की आत्मविश्लेषण की नसीहत, संकेत साफ है कि खुद कांग्रेस नेताओं का आत्मविश्वास टूट चुका है। ऐसे में वे कार्यकर्ताओं में विश्वास और जोश कहां से भरेंगे, और जब कार्यकर्ताओं में ही जोश नहीं होगा तो मतदाताओं को कौन उत्साहित कर मतदान केंद्रों तक लायेगा? इसलिए महत्वपूर्ण यह नहीं है कि आत्मविश्लेषण और सुधार की नसीहत देने वाले नेताओं का जनाधार और योगदान क्या है, महत्वपूर्ण यह है कि जो सवाल वे उठा रहे हैं, सुझाव वे दे रहे हैं, उनसे कांग्रेस के पुनरुत्थान की राह निकल सकती है या नहीं। अगले साल होने वाले पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनावों में वाम दलों से गठबंधन की कवायद बताती है कि कांग्रेस इस हद तक दिशाहीन है कि उसे यही नहीं पता कि लड़ना भाजपा से है या कांग्रेस की दरबारी संस्कृति से आजिज आकर अलग तृणमूल कांग्रेस बनाकर वाम मोर्चा के तीन दशक से भी पुराने शासन को उखाड़ फेंकने वाली ममता बनर्जी से, जो आज भाजपा के लिए सबसे बड़ी चुनौती बनी हुई हैं? कहना नहीं होगा कि अगर कांग्रेस ने अब भी आत्मविश्लेषण कर जनाधार वाले नेताओं का महत्व नहीं समझा तो उसकी प्रासंगिकता पर लगा सवालिया निशान लगातार गहराता जायेगा, जो नेहरू परिवार और कांग्रेस के लिए ही नहीं, भारतीय लोकतंत्र के लिए भी सुखद स्थिति नहीं होगी।
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