पुष्परंजन
काठमांडो स्थित सत्ता के गलियारों में दो दूतावासों का खेल गर्माया हुआ है। चीनी दूतावास की कोशिश रही है कि चुनाव बाद नेपाल के कम्युनिस्ट नेता फिर से एक हो जाएं। तराई व राजावादी सांसदों से सौदेबाज़ी कर सरकार बना लें। उन्हें काउंटर करने के इरादे से भारतीय राजदूत भी प्रधानमंत्री निवास बालुआटार पहुंचे। काठमांडो स्थित भारतीय राजदूतावास इसकी तफसील देने से इंकार कर रहा है, मगर प्रधानमंत्री शेर बहादुर देउबा के परराष्ट्र सलाहकार अरुण सुवेदी ने बताया कि भारतीय राजदूत नवीन श्रीवास्तव बालुआटार आये थे, उन्होंने समसामयिक राजनीति पर ‘पीएम ज्यू’ से छलफल (विमर्श) किया था। वहीं चीनी दूतावास भारतीय राजदूत की शेर बहादुर से मुलाक़ात को लेकर सतर्क है। दूतावासों में होड़ लगी है कि सरकार उनके मुताबिक़ बने।
चुनाव से चार माह पहले चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की सेंट्रल कमेटी में इंटरनेशनल डिपार्टमेंट के प्रभारी लिउ चिएनचाओ काठमांडो आये थे। यह 10 जुलाई 2022 की बात है, जब लिउ चिएनचाओ की मुलाक़ात खुमल्टार निवास पर माओवादी नेता प्रचंड से हुई थी। इसके प्रकारांतर लिउ पूर्व प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली, माधव नेपाल और झलनाथ खनाल से भी मिले थे। लिउ चिएनचाओ का मकसद था कि अभी नहीं तो चुनाव बाद ओली की ‘नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी (एमाले)’, प्रचंड के नेतृत्व वाली ‘नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी केंद्र)’ और ‘नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी (एकीकृत समाजवादी)’, जिसके नेता माधव नेपाल हैं, एक प्लेटफार्म पर आ जाएं। इस समय नेपाल में यदि वाम का झाम फैला तो सत्तालोलुप दलों व पांच निर्दलीयों से सौदेबाज़ी आसान होगी।
नेपाल में जो लोग वामपंथी नेताओं के एकजुट होने की उम्मीद बांधे बैठे हैं, वो उस अतीत को याद दिलाते हैं, जिसमें चीनी दूतावास की पहल पर मई 2018 में एकीकृत नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी का गठन हुआ था। तब प्रचंड और ओली गुटों में विलय हो गया था। 2017 के आम चुनाव में नेकपा-एमाले और माओवादी साथ-साथ चुनाव लड़े थे, अपेक्षित परिणाम के कुछ महीनों बाद 2018 में विलय हुआ। मगर, 2021 में ओली और प्रचंड के बीच इतना घमासान हुआ कि दोनों ने एक दूसरे को पार्टी से निकाला और कुट्टी कर ली। खाई को चीनी राजदूत होऊ यांगशी नहीं पाट पाईं।
यों, नेपाल में वामपंथ की राजनीति में टूट, विलय बहुत बार हुआ है। ‘नेकपा-एमाले’ का गठन 1991 में हुआ था। उस समय यूनाइटेड लेफ्ट फ्रंट, नेकपा (मार्क्सवादी) और नेकपा (लेनिनवादी) का विलय कराया गया था। 1991 के आम चुनाव में नेकपा एमाले दूसरे नंबर की पार्टी बन गई। 1994 में पहली बार नेकपा-एमाले की सरकार बनी। 1998 में नेकपा-एमाले में टूट हो गई, जिसका खमियाज़ा 1999 के चुनाव में उसे भुगतना पड़ा।
बहरहाल, नवंबर 2022 के समर में देउबा और दाहाल अपने चिर शत्रु ओली को रोकने में विफल रहे। नेपाली कांग्रेस के व्यूह रचनाकार राजा समर्थक सात सांसदों वाली राष्ट्रीय प्रजातंत्र पार्टी (राप्रपा), मधेसवादी, निर्दलीयों और नवोदय शक्ति नेताओं को अपने आइने में उतारने के वास्ते सक्रिय हैं। सत्ताधारियों का उपनिवेश कहे जाने वाले मधेस में कुछ ‘बिकाऊ माल’ उपलब्ध है। पिछली बार ओली सरकार बचाने के वास्ते महंथ ठाकुर-राजेंद्र महतो गुट के सांसदों के समर्थन ने लोगों को हैरान किया था। चीनी एजेंट के रूप में कुख्यात जनता समाजवादी पार्टी अध्यक्ष उपेन्द्र यादव सप्तरी-2 से इस बार चुनाव हार गये। महंथ ठाकुर जैसों को भी मतदाताओं ने नहीं बख्शा। तराई के कई सारे दिग्गजों की जमानतें जब्त हुई हैं। इस सबक के बावज़ूद, साम-दाम की राजनीति रुकी नहीं है। मगर, सवाल है कि कई सौ करोड़ रुपये की हाॅर्स ट्रेडिंग में दूतावासों की कोई भूमिका होगी क्या?
बहस चल रही है कि नई सरकार में कौन किस खेमे में जाएगा। विश्लेषक बता रहे हैं कि माओवादी केंद्र के प्रमुख ‘प्रचंड’ नेपाली कांग्रेस के सभापति देउबा के साथ सत्ता में बने रहेंगे। मगर, कुछ को लगता है कि आखि़री वक्त कहीं कोई खेल न हो जाए। पिछले आम चुनाव में नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी (एमाले) दरबार समर्थक राष्ट्रीय प्रजातंत्र पार्टी (राप्रपा) और अशोक राई-उपेंद्र यादव की जनता समाजवादी पार्टी (जसपा) से गठबंधन कर चुकी थी। प्रेक्षकों का अनुमान है कि इस बार भी ये लोग ओली के पाले में न आ जाएं।
केपी शर्मा ओली दो बार सत्ता में रहे। 7 जून 2017 को शपथ ली, केवल नौ माह सरकार चला पाये। उस समय ओली सरकार से मधेसी जनाधिकार फोरम और राष्ट्रीय प्रजातंत्र पार्टी नेपाल ने समर्थन वापसी की घोषणा कर दी थी। तब ओली ने दिल्ली के विरुद्ध गोली दागते हुए कहा था, ‘मेरी सरकार को गिराने के लिए भारत ने माओवादियों, राजावादियों, और तराई की पार्टियों का इस्तेमाल किया। हम भूलेंगे नहीं।’ ओली, 15 फरवरी 2018 को दोबारा सत्ता में आये। 1183 दिनों के बाद ओली 13 मई 2021 को सत्ता से बाहर हो गये। दोनों बार उन्होंने भारत को जमकर कोसा।
यों, परिणाम से हफ्तों पहले चीनी राजदूत होऊ यांगशी का सीन से ग़ायब हो जाना हैरान करता है। चार वर्षों तक होऊ यांगशी नेपाली राजनीति के रिमोट कंट्रोल को गाहे-बगाहे दबाती रहीं। लोग मानकर चल रहे थे कि चीन इस बार के चुनाव में कमाल करेगा। मगर, 2022 में नेपाली ज़मीन पर चीनी कूटनीति की उर्वरता कम नज़र आने लगी। क्या उसकी वजह भारतीय राजदूत नवीन श्रीवास्तव हंै? 25 जून 2022 को नवीन श्रीवास्तव ने नेपाल में बतौर भारतीय राजदूत पदभार ग्रहण किया था। नवीन श्रीवास्तव चीनी कूटनीति की नब्ज़ को पहचानते हैं। वाशिंगटन डीसी से लेकर, कंबोडिया की राजधानी प्नोम पेन व शांधाई तक कूटनीतिक ज़िम्मेदारी संभालने वाले एंबेसडर नवीन श्रीवास्तव को ऐसे मौके पर नेपाल आना पड़ा, जब वहां की कम्युनिस्ट लीडरशिप खंड-खंड बंटी थी। ऐसे में भारत को अपनी बिसात बिछाने में कोई दिक्क़त नहीं हुई।
इस चुनाव से कुछ महीने पहले ही होऊ यांगशी का ‘मिशन नेपाल’ लगभग फेल हो चुका था। पेइचिंग स्थित चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की सेंट्रल कमेटी में अंतर्राष्ट्रीय प्रभाग के सूत्र बताते हैं कि होऊ यांगशी की इस विफलता को देखकर ही उन्हें इंडोनेशिया, आसियान का दूत बनाकर भेजने का निर्णय करना पड़ा। आने वाले कुछ दिनों में चेन सोंग नेपाल में चीन के नये राजदूत का कार्यभार संभालेंगे। काठमांडो चार्ज लेने से पहले चेन सोंग चीनी विदेश मंत्रालय में नेपाल, अफगानिस्तान और मालदीव मामलों के निदेशक पद पर विराजमान थे। चेन सोंग की देखरेख में चीनी खुफिया एजंेसी एमएसएस (मिनिस्ट्री आॅफ स्टेट सिक्योरिटी) के लोग नेपाली नेताओं से कोआॅर्डिनेशन के वास्ते सक्रिय हैं। सबसे बड़ा सवाल यह है कि सरकारें बनाने या गिराने में दूतावासों की भूमिका सही है, या ग़लत?
-लेखक ईयू-एशिया न्यूज़ के नई दिल्ली संपादक हैं।