अनूप भटनागर
उच्चतम न्यायालय के सख्त रुख के बावजूद बेअंत सिंह हत्याकांड में मौत की सजा पाने वाले बलवंत सिंह राजोआना की दया याचिका के निपटारे में लगातार अनिर्णय की स्थिति कई सवाल पैदा कर रही है। ऐसे मामलों में न्यायपालिका पहले भी कई दोषियों की सजा उम्रकैद में तबदील कर चुकी है। ऐसा लगता है कि शीर्ष अदालत की तल्ख टिप्पणियों और दोषियों को सजा में राहत देने के बावजूद कार्यपालिका ऐसे मामलों के प्रति ज्यादा गंभीर नजर नहीं आती।
माफी याचिका पर निर्णय में अत्यधिक विलंब पर न्यायालय की व्यवस्था के परिप्रेक्ष्य में ही पहला सवाल यही है कि आखिर किस वजह से राजोआना की माफी देने की प्रक्रिया सितंबर, 2019 के प्रस्ताव के बाद भी आगे क्यों नहीं बढ़ सकी? देश की सर्वोच्च अदालत का स्पष्ट मत रहा है कि किसी अपराधी का अपराध भले ही बहुत जघन्य हो सकता है लेकिन न्यायालय संविधान के अनुच्छेद 21 में प्रदत्त जीने के अधिकार को सबसे ऊपर रखता है और उसकी सजा पर अत्यधिक विलंब उसे मानसिक यंत्रणा ही देता है।
हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि सितंबर, 1993 में युवक कांग्रेस के अध्यक्ष मनिन्दर सिंह बिट्टा को निशाना बनाकर युवक कांग्रेस कार्यालय पर हुए बम विस्फोट की घटना के सिलसिले में अदालत ने देविन्दरपाल सिंह भुल्लर को मौत की सजा सुनाई थी। इस मामले में भुल्लर ने 14 जनवरी, 2003 को राष्ट्रपति के पास दया याचिका दायर की थी, जिसे उन्होंने 14 मई, 2011 को अस्वीकार किया था।
शीर्ष अदालत ने दया याचिका के निपटारे में विलंब के मद्देनजर ही मार्च, 2014 में उसकी सजा को उम्रकैद में तबदील कर दिया था। पंजाब के तत्कालीन मुख्यमंत्री बेअंत सिंह हत्याकांड में मौत की सजा पाने वाले राजोआना की दया याचिका के मामले में भी केन्द्र सरकार का रवैया इसी तरह का नजर आ रहा है। उसकी दया याचिका 2012 से लंबित है।
ऐसा लगता है कि सरकार ने अगर राजोआना मामले में अपना ढुलमुल रवैया नहीं बदला तो न्यायपालिका द्वारा उसकी मौत की सजा को उम्रकैद में तबदील किये जाने की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता। संविधान के अनुच्छेद 72 के अंतर्गत राष्ट्रपति और अनुच्छेद 161 के अंतर्गत राज्य के राज्यपाल को कतिपय मामलों में माफी देने, सजा निलंबित करने या इसे कम करने का अधिकार प्राप्त है। राजोआना को अगस्त, 1995 में मुख्यमंत्री बेअंत सिंह की बम विस्फोट में मृत्यु में संलिप्तता के तहत मौत की सजा सुनायी गयी थी। वह पिछले 25 साल से जेल में बंद है और उसकी दया याचिका 2012 से राष्ट्रपति के पास विचाराधीन है।
स्थिति यह हो गयी है कि न्यायालय केन्द्र सरकार से जानना चाहता है कि संबंधित प्राधिकारी राजोआना के मामले में अनुच्छेद 72 के अंतर्गत अपना प्रस्ताव राष्ट्रपति के पास कब भेजेंगे। सरकार का कहना है कि सक्षम प्राधिकारी इस पर गौर कर रहे हैं। हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि फरवरी, 2019 में न्यायमूर्ति एनवी रमण की अध्यक्षता वाली तीन सदस्यीय पीठ ने पत्नी और पांच बच्चों की हत्या करने वाले मुजरिम की मौत की सजा उम्रकैद में तबदील करने का फैसला सुनाया था। इस मामले में दोषी की दया याचिका के निपटारे में करीब पांच साल का विलंब हो गया था। इस मामले में न्यायालय ने कहा था कि मौत की सजा पाने वाले व्यक्ति की अंतिम आस दया याचिका पर ही टिकी होती है और दोषी का एक-एक दिन मौत के इंतजार में ही गुजरता है। ऐसी स्थिति में दया याचिका के निपटारे में अत्यधिक विलंब होने पर मुजरिम राहत पाने का हकदार है।
इन न्यायिक व्यवस्थाओं से यह तो स्पष्ट है कि राजोआना को भी मौत की सजा से देर-सवेर राहत मिलना निश्चित है। देखना यह है कि राजोआना की दया याचिका पर कार्रवाई करते हुए राष्ट्रपति उसकी सजा को उम्रकैद में तबदील करते हैं या फिर भुल्लर और इसी तरह के एक अन्य मामले की तरह शीर्ष अदालत उसे राहत प्रदान करती है।
बहरहाल, दया याचिकाओं के निपटारे में अत्यधिक विलंब की घटनायें केन्द्र और राज्य सरकार के ढुलमुल रवैये पर सवाल खड़ा करती हैं। जरूरत है कि केन्द्र और राज्य स्तर पर दया याचिकाओं के समयबद्ध तरीके से निपटारे के बारे में उचित व्यवस्था की जाये और इसमें विलंब होने की स्थिति में संबंधित अधिकारियों की जिम्मेदारी निर्धारित की जाये।
इस तरह की व्यवस्था करके ही घृणित और बर्बरतापूर्ण अपराध के लिये मृत्युदंड पाने वाले दोषियों की सजा पर एक निश्चित समय के भीतर अमल सुनिश्चित किया जा सकेगा और समाज को विश्वास दिलाया जा सकेगा कि ऐसे अपराध करने वाले अपराधी सजा से बच नहीं सकते।