सुषमा रामचंद्रन
आखिरकार कुछ गलत शुरुआत के बाद लगता है कि एयर इंडिया को बेचने का काम सही दिशा में और सचमुच पूरा होने को है। मोदी सरकार द्वारा सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनी बेचने का यह कोई पहला उदाहरण नहीं है, किंतु एयर इंडिया सबसे नामचीन सरकारी कंपनी है। इसके अलावा तेल शोधन और विक्रेता कंपनी भारत पेट्रोलियम कॉर्पोरेशन लिमिटेड (बीपीसीएल) की बिक्री का कार्य भी परिणति की ओर बढ़ गया है। परंतु पिछले सालों में जिस प्रकार मोदी सरकार ने अनेक मर्तबा सरकारी कंपनियों को बेचने की मंशा जाहिर की है, उसके तहत यह तो आरंभिक कदम है।
सनद रहे, वाजपेयी सरकार ने निजीकरण का जो दौर शुरू किया था, उसकी बराबरी करने में उनके बाद आई कोई सरकार, यहां तक कि मौजूदा मोदी प्रशासन भी, कहीं आसपास नहीं ठहरते। आर्थिक सुधारों के पुरोधा डॉ. मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री बनने के बावजूद यूपीए सरकार ने विनिवेश के काम पर रोक लगा दी थी। वाजपेयी के वक्त भी अरुण जेतली देश के पहले विनिवेश मंत्री बने थे, हालांकि यह उनके बाद आए अरुण शौरी ही थे, जिन्होंने दरअसल कई कंपनियों के निजीकरण का काम सिरे चढ़ाया था। यह अपेक्षाएं तब और भी बढ़ गईं, जब प्रधानमंत्री मोदी ने कई साक्षातकारों में कहा था ः ‘काम-धंधा करना सरकार का व्यवसाय नहीं है।’
हालांकि मोदी सरकार ने हाल तक विनिवेश के सालाना ध्येय की पूर्ति हेतु केवल कुछ कंपनियों में अपनी छुटपुट हिस्सेदारी बेचकर काम चलाया है। यूपीए सरकार ने भी अपने वक्त में वित्तीय स्रोत जुटाने वाले लघु कालीन ध्येय प्राप्ति की खातिर कई सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों में अपनी हिस्सेदारी कम की थी। पर एनडीए सरकार ने एक कदम आगे जाकर मुनाफा कमाने वाली एक सरकारी कंपनी से दूसरे सरकारी उपक्रम के शेयर खरीदवाए। उदाहरणार्थ ओएनजीसी को हिंदुस्तान पेट्रोलियम कॉर्पोरेशन लिमिटेड के 36,015 करोड़ मूल्य के शेयर खरीदने को कहा गया। परंतु एक भी सरकारी कंपनी का पूरी तरह निजीकरण मोदी के कार्यकाल में अब तक नहीं हो पाया था। यह उन लोगों के लिए मायूसी का बायस था जो मौजूदा सरकार से बड़े स्तर के आर्थिक सुधारों की आस लगाए बैठे थे, क्योंकि संसद में भारी बहुमत की वजह से यह कर पाना बहुत सहज है।
लेकिन अब इस परिदृश्य में बदलाव हो सकता है क्योंकि एयर इंडिया और बीपीसीएल की बिक्री बस होने को है और यह घाटे में चल रही अन्य कई सरकारी कंपनियों से छुटकारा पाने की दिशा में पहला कदम हो सकता है। आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार मार्च 2019 तक ऐसी कंपनियों का कुल घाटा लगभग 31000 करोड़ छू गया था। 23 ऐसी कंपनियों की बिक्री को कैबिनेट ने इस साल के शुरू में हरी झंडी दिखा दी थी। इसमें स्कूटर इंडिया जैसे निष्क्रिय पड़े उपक्रम भी शामिल हैं, जिन्हें बेचने की सिफारिश राजीव गांधी सरकार के वक्त भी हो चुकी थी।
सवाल यह है कि इन कंपनियों का वजूद इतने लंबे समय तक आखिर रह कैसे पाया? निःसंदेह यह एक महत्वपूर्ण पहलू है, किंतु निजीकरण की राह में इस विषय पर पार पाना ही होगा। हालांकि इस समस्या का समाधान उन्हें सामाजिक सुरक्षा, मसलन, व्यावहारिक स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति योजनाएं इत्यादि देकर किया जा सकता है। उदाहरणार्थ बीएसएनएल कर्मियों को दिया गया पैकेज इतना सफल रहा है कि वहां अनुपादक श्रेणी में आने वाले कर्मियों की संख्या में बहुत कमी आई है, जिससे कंपनी को पुनर्जीवित करना आसान हो पाएगा। एयर इंडिया और बीपीसीएल कर्मियों के मुद्दे को अलहदा तरीकों से निपटना पड़ेगा क्योंकि दोनों की परिस्थिति बिल्कुल विपरीत है। जहां एयर इंडिया पर 60000 करोड़ का कर्ज है, वहीं बीपीसीएल मुनाफा बनाने वाला उपक्रम है, जिसके पास तेल संबंधी बाजार के 22 फीसदी शेयर हैं। पर एयर इंडिया की बिक्री को विगत में नजरअंदाज किया जाता रहा है क्योंकि एक राष्ट्रीय वायुसेवा कंपनी को निजी हाथों में बेचने का मतलब है, देश की साख को बट्टा लगना। सनद रहे कि ‘मुकुट में जड़ी इस मणि’ को बेचने का काम वर्ष 2018 में विफल हो चुका है।
मौजूदा सरकार भविष्य में पेट्रोलियम की खपत और मांग नीचे की ओर ले जाने के मद्देनजर सरकारी तेल कंपनियों में अपनी हिस्सेदारी धीरे-धीरे कम करना चाहती है। पर्यावरण बदलाव का मुद्दा और इसके बचाव की खातिर वाहनों को बैटरी-व्हीकल में तबदील करने की जरूरतों ने पहले ही पेट्रोलियम की भावी मांग पर सवाल खड़े कर रखे हैं। मौजूदा वित्तीय वर्ष में एयर इंडिया और बीपीसीएल की बिक्री होने से सरकार को 2020-21 अवधि में 2.1 लाख करोड़ रुपये प्राप्ति का ध्येय पाने में मदद मिलेगी। परंतु सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि एनडीए सरकार अंततः सार्वजनिक उपक्रमों के चिरपरीक्षित निजीकरण की ओर चल निकली है। इस देरी में एक बड़ा अवयव आरएसएस संबंधित राष्ट्रीय कर्मचारी संघ का प्रतिरोध भी था, जो निजीकरण योजना के सख्त खिलाफ था परंतु राजनीतिक दबावों को दरकिनार करते हुए आर्थिक सुधार लागू करने ही होंगे।