गुरबचन जगत
पांच राज्यों में विधानसभा चुनावों की तिथियों की घोषणा व नामांकन प्रक्रिया शुरू होने के बाद अब देखना होगा कि पोलिंग बूथ पहुंचकर जनता किसको चुनती है। रिवायती दलों ने चुनावी दंगल में ताल ठोक रखी है। उनके अधिकांश पुराने उम्मीदवारों को सभी दांव-पेचों का भान है। तथापि चुनाव-पूर्व परिदृश्य में पहले जैसा चुनावी कोलाहल नदारद है। चुनाव एक जीवंत प्रजातंत्र का उत्सव होता है। मुझे याद है कभी यह त्योहारों की भांति होता था। एक पूर्व उपनिवेश ने आजादी की नई सुबह में आंख खोली थी, विदेशी शासक न थे– तब हमने लोगों के लिए, लोगों की सरकार देना तय किया। जी हां, पहले चुनाव वाकई उत्सव सरीखे थे– मतदान की तारीख से हफ्तों पहले बैंड-बाजे बजते, झंडियां-गुब्बारे हवा में लहराने लगते, वयस्कों की टोलियों में राजनीति पर गर्मागर्म चर्चाएं चलतीं तो उत्साहित बच्चे प्रचार-काफिले के इर्द-गिर्द मंडराते। उम्मीदवार जाने-माने स्थानीय हस्ती होते थे । मतदाताओं के साथ उनका सीधा राब्ता था। तब पैसे के खेल को तरजीह न थी। जोश के अलावा बाकी सब दिखावा रहित था। वे दिन अब नहीं रहे। उनकी जगह नए रंग-ढंग ने ले ली। आज छद्म विकास के दावे और अच्छे दिनों के वादे नए खेल हैं। समाजवाद, नेहरूवादी समाजवाद, पूंजीवाद आदि सिद्धांतों की बात हाशिये पर है। आज आधुनिक भारत के मंदिर बनाने की राह प्राचीन मिथकों की ओर मुड़ गई। यह पथ प्रगति की ओर न ले जाकर, इतिहास में जिन चरित्रों ने गलतियां की थीं, उस वर्ग से संबंधित, किंतु निर्दोष लोगों से बदला निकालने और सताने वाला बन गया है।
दरअसल, मौजूदा दलदल से निकालने को देश का नेतृत्व करने में हमारे बीच कोई दल या क्षितिज पर कोई विलक्षण व्यक्ति है, यह दिखाई नहीं देता। ऐसा कोई नेता और दल, जिसके पास हमारी समस्याओं का हल हो, जो हमारे सपनों को हकीकत में बदले और जिसके ध्येय स्पष्ट हों और जो अपनी राह पर दृढ़ निश्चयी हो। जुमलेबाज़ नहीं चाहिए, न ही सपनों का सौदागर या वह जो नाम जनता का ले और सल्तनत अपनी कायम कर ले। लोगों को चाहिए तो ऐसा जो बदलाव का वाहक बने, वह नहीं जो अतीत के गौरव का बखान कर भरमाए या फिर सपने बेचता रहे। हमें अपना वर्तमान चाहिए, जिसमें हमारी मूलभूत समस्याओं का समाधान हो। बहुत हो चुका लोगों का वर्गीकरण कर उन्हें ‘गरीबी रेखा से नीचे’ या ‘अन्य पिछड़ी श्रेणियों’ में रखना। बस अब और नहीं, फिलहाल हमें रोजगार, सम्माननीय वेतन, शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाएं चाहिए और गरीब किसान को न्यूनतम खरीद मूल्य। हकीकत की झांकी हाल ही में बिहार व उत्तर प्रदेश के प्रसंग में दिखी, जहां युवाओं को दंगे और आगजनी पर उतरना पड़ा। उनकी मांग थी कि झूठी तसल्ली के बजाय वास्तविक रोजगार मिले। नौकरियों की चंद रिक्तियों हेतु लाखों युवा आवेदन करते हैं। फिर प्रश्नपत्र लीक हो जाता है। क्यों नहीं फुलप्रूफ व्यवस्था में युवाओं को पारदर्शी और बराबर के मौके देकर नौकरी सुनिश्चित नहीं होती? यह बात केवल रोजगार पर ही नहीं अपितु प्रशासन के अन्य क्षेत्रों पर भी लागू होती है। महामारी के दौरान तबाही ने चेताया कि देश के स्वास्थ्य-तंत्र में आमूल-चूल सुधार जरूरी है। लेकिन हैरानी की बात है कि क्या एक भी राजनीतिक दल या उम्मीदवार ने इसकी बात की? कोरोना लहरों में स्वास्थ्य-तंत्र की नाकामी की वजह से लाखों लोग काल के गाल में समा गए, फिर भी क्या किसी ने चुनाव प्रचार में हल्का-सा भी जिक्र किया? कहां है मीडिया? कहां है हमारी अंतरात्मा के रखवाले? पिछले दो सालों में जो मौतें हुईं, रोजगार व काम-धंधे खत्म हुए उसके लिए जिम्मेवार लोगों को हम दोषी क्यों नहीं ठहरा रहे? एक गुजराती परिवार का अच्छे भविष्य की खातिर कनाडा में अवैध रूप से दाखिल होने के यत्न में टुंड्रा क्षेत्र में ठंड से जमकर मरने का दृश्य भुला पाना मुश्किल है। आखिर किस निराशा ने उन्हें यह सब करने को मजबूर किया होगा? वह क्या था कि मां-बाप अपने छोटे बच्चों को उठाकर अथाह बर्फीला क्षेत्र पार करने का जोखिम उठाने को तैयार हुए… इसका जवाब कौन देगा? यह कोई एक अकेला मामला नहीं है बल्कि देशभर से विदेश हिज़रत करने वाले लाखों लोगों का प्रतिनिधित्व करता है, जो बेहतर ज़िंदगी की खातिर न सिर्फ एजेंटों को उधार उठाकर मोटी रकमें चुकाते हैं बल्कि मुश्किल समुद्री, जंगल व रेगिस्तानी राहों का जोखिम उठाते हैं।
हमारा नया नेतृत्व– राजनीतिक या प्रशासनिक– अब कहां है? फर्क जानने को आपको केवल आजादी के बाद वाली दो पीढ़ियों को देखने की जरूरत है जब हमारे पास ऐसे नेता थे, जिनकी परख स्वतंत्रता संग्राम की भट्ठी में तपकर निकलने से सिद्ध थी। ऐसे महिला-पुरुष, जिन्हें गद्दी की चाहना नहीं थी, उनके सपने आजादी पाने तक सीमित थे। जब स्वतंत्रता मिली और चुनाव हुए तो लोग उन्हें बखूबी पहचानते थे, इसीलिए चुना। तब उन्हें वोट पाने को पैसे का लालच देने की जरूरत न थी, न ही कॉर्पोरेट्स की माली मदद की, मीडिया निष्पक्ष और वस्तुनिष्ठ था। कौन थे ऐसे महिला-पुरुष? कुछेक नाम गिनाएं (क्योंकि पूरे देश में सभी स्तरों पर हज़ारों ऐसी हस्तियां थीं) तो पंजाब में हमारे पास गोपीचंद भार्गव, भीमसेन सच्चर, प्रताप सिंह कैरों और जस्टिस गुरनाम सिंह जैसे थे। उत्तर प्रदेश में हमारे बीच पंडित गोविंद वल्लभ पंत, सुचेता कृपलानी, सीबी गुप्ता और हेमवती नंदन बहुगुणा थे। गोवा में दयानंद बांदोदकर, शशिकला काकोदकर, प्रताप सिंह राणे सरीखे, बंगाल में डॉ. बीसी रॉय, मध्य प्रदेश में केएन काटजू, तमिलनाडु में के. कामराज, महाराष्ट्र में वाईबी चव्हाण और मोरारजी देसाई जैसी विभूतियां थीं।
यहां मैंने कद्दावरों के कुछ नाम गिनाए हैं, जिनका चरित्र आजादी की लंबी लड़ाई के योद्धा के तौर पर स्वयंसिद्ध था। लगभग हरेक की शैक्षणिक पृष्ठभूमि आला दर्जे की थी। राजनीति उनके लिए ‘सोने की खान’ न होकर भारतीयों की जिंदगी बेहतर बनाने का जरिया थी। उनकी पृष्ठभूमि आपराधिक नहीं थी, न ही उनके पास विभिन्न नामों वाली कोई निजी सेना थी। आज के विधायकों, मंत्रियों, पार्टी पदाधिकारियों और निपट आपराधिक छवि वाले नेताओं की तरह उनके पास 30-40 पुलिसकर्मियों का सुरक्षा घेरा भी नहीं था– आखिर इसकी जरूरत क्यों है? वह इसलिए क्योंकि अपराध व अपराधियों ने सार्वजनिक जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में पैठ बना ली है। अच्छे पढ़े-लिखे ईमानदार, दूरदृष्टि युक्त लोगों ने राजनीति की आपराधिक दलदल वाली प्रवृत्ति व तरीकों से घबराकर इससे दूरी बना ली है। इसलिए अब हमारे पास क्या बचा? आज राजनीति में वे लोग हैं, जिनका शैक्षणिक रिकॉर्ड घटिया है (कुछ ऐसे भी हैं जिन्होंने दिखाने को स्तरहीन व संदिग्ध छवि वाले संस्थानों से प्रमाणपत्र हासिल कर रखे हैं) और सार्वजनिक जीवन या व्यावसायिक जिंदगी में उनकी उपलब्धि नगण्य है। ऐसे बहुतों का इतिहास आपराधिक है। अब हमें नेताओं की नई श्रेणियां रचनी पड़ेंगी। उसके खिलाफ कौन से मामले दर्ज हैं? क्या अभियोजन सिद्ध हो चुका है? प्राथमिकी से अंतिम फैसले आने तक कितना समय लगा? कितने मामले अभी बाकी हैं? मुझे लगता है कि यह डाटा इकट्ठा करके जानकारी वेबसाइट पर अपडेट करने हेतु चुनाव आयोग सही संस्था है।
आइए, अब नजर डालते हैं, जिन राज्यों में विधानसभा चुनाव होने जा रहे हैं वहां उपलब्ध नेतागण कैसे हैं। पंजाब, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और गोवा में शीर्ष पद के लिए उम्मीदवारों को देखें–क्या उनकी पृष्ठभूमि शैक्षणिक योग्यता वाली है, क्या उनकी ईमानदारी असंदिग्ध है और क्या दूरदृष्टि रखते हैं? कितने दल उन्होंने छोड़े और कितनी मर्तबा ‘घर वापसी’ की है? मतदाता भरमाने को नदी की तरह पैसा, शराब, नशा बहाने का स्रोत क्या है। बिना पकड़ में आए इनको बांटने हेतु जो बड़ा तंत्र चाहिए, उसे कौन चला रहा है? मैं इन सवालों के जवाब नहीं देना चाहता और न ही इन नेताओं पर अपना फैसला दूंगा। यह लोगों पर है कि इनका आकलन करके जिसे चाहें उसको चुने या खारिज करें। मैं यह इसलिए कह रहा हूं क्योंकि लोगों को सबका सच मालूम है और किसान आंदोलन ने दिखा दिया है कि जब जनता तय कर लेती है कि बहुत हो चुका, तो लामबंद होकर अपना ध्येय प्राप्त कर लेती है। आखिर कब तक पीएचडी और स्नातकोत्तर शिक्षा प्राप्त युवा चपरासी या चतुर्थ श्रेणी जैसी मामूली रिक्तियों के लिए आवेदन करते रहेंगे– इनका लावा फूटकर बहने से कब तक रोका जा सकेगा?
मौजूदा नेतृत्व के लिए अब समय आ गया है कि अपने तौर-तरीकों में बड़ा बदलाव लाएं। लोगों को वह दें, जिसके वे हकदार हैं। प्रकृति को शून्यता पसंद नहीं है, फिलहाल जो मंथन चल रहा है उसमें नया नेतृत्व निकलकर रहेगा। हम सबको वह भावना पुनः जगानी पड़ेगी जो आजादी की लड़ाई के वक्त व्याप्त थी। हमें नए भाखड़ा, चंडीगढ़, कृषि विश्वविद्यालय, आईआईटी, आईआईएम, अनुसंधान एवं खोज केंद्र, आईटी और ऑटो इंडस्ट्री हब बनाने ही हैं। नवीनतम बजट भाषण में, वित्तमंत्री ने डिजिटल विश्वविद्यालय और डिजिटल रुपया बनाने की बात कही है– आशा करता हूं कि यह मेटावर्स के ‘आभासीय यथार्थ’ वाला सपना नहीं होगा, जहां हमें अपनी जिंदगी को एक तरह से कम्प्यूटरीकृत कल्पित दुनिया में जीना पड़े। हमें सामाजिक ढांचे के सबसे निचले पायदान वाले इंसान की भागीदारी बनानी होगी और उसका ‘गांधीवादी आंसू’ अंततः पोछा जा सके, यह सुनिश्चित करना होगा। हमें उनके अंदर शिक्षा का प्रसार करना होगा और दुखों का निदान भी, अमीरी-गरीबी के बीच आय असमानता के लगातार बढ़ते पाट को अवश्य कम करना होगा। हमारे बीच जो सर्वश्रेष्ठ हैं उन्हें नेतृत्व करने को आगे लाएं– वे जिनकी ईमानदारी, बुद्धिमत्ता और दूरदृष्टि सर्वोत्तम हो–और अपराधियों को उनकी सही जगह पहुंचाएं।
लेखक मणिपुर के राज्यपाल, संघ लोक सेवा आयोग अध्यक्ष एवं जम्मू-कश्मीर में पुलिस महानिदेशक रहे हैं।