आखिरकार छोटी उम्र के विद्यार्थियों को कुछ राहत देने हेतु केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड ने हाल ही में पाठ्यक्रम-सामग्री में कमी करने का आदेश दिया है, यह छूट खासकर ऐसे समय पर आई है जब कोरोना महामारी ने छात्रों में बेतरह संत्रास पैदा कर रखा है। उनकी सामान्य पढ़ाई प्रक्रिया को छिन्न-भिन्न कर दिया है। मौजूदा राजनीतिक-सांस्कृतिक वातावरण के बीच कक्षा 9वीं से 12वीं तक की पुस्तकों से कुछ पाठों को बाहर रखा गया जो लोकतंत्र, विविधता, नागरिकता और धर्मनिरपेक्षता से संबंधित हैं, हालांकि इसके पीछे के असल मंतव्य को लेकर बहस छिड़ी है। ऐसा समाज जो अपने लोकतांत्रिक, समतावादी और सांस्कृतिक एकरसता के मूल्यों को तेजी से खो रहा है, वहां इस बात पर चर्चा होने की पूरी संभावना है कि केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड अथवा वहां बैठे शिक्षा मठाधीश, जो इतने भी मासूम नहीं हैं, उन्होंने उन मूल्यों को घटाना शुरू कर दिया है, जिनको सीखकर एक बच्चा अनेकवादी व लोकतांत्रिक समाज में बतौर जिम्मेवार नागरिक बड़ा होता है।
हालांकि, इस विषय पर और गहरे गौर करने के लिए हमें ‘दक्षिणवादी कदमों’ और ‘वामपंथी प्रतिक्रिया’ से परे जाकर देखना होगा। यहां हमें पढ़ाई-संस्कृति, अध्यापन-प्रथाओं और आधिकारिक पाठ्यक्रम में छिपी राजनीति से संबंधित ईमानदार सवाल उठाने की जरूरत है। यह अहसास करने की जरूरत है कि महज सूचना देने का मतलब ज्ञान नहीं होता, और ऐसे अर्जित ‘ज्ञान’ पर गर्व करना कोई बुद्धिमत्ता नहीं है। तथापि स्कूली बच्चों के लिए ज्ञान का मतलब सूचना के ढेर में रूप में कर दिया गया है। विज्ञान हो या इतिहास, सामाजिक ज्ञान, ज्यामिती, नैतिक शिक्षा, जीव-विज्ञान, गणित हो या फिर कंप्यूटर तकनीक, हमारे बच्चों को या तो सूचना का ढेर ढोने को मजबूर किया जा रहा है या फिर पाठ्य पुस्तकों में दिए ‘ज्ञान’ की गोली को निगलना पड़ता है। हफ्तावार इम्तिहान, गर्मी की छुट्टियों में दिए जाने वाले निरर्थक प्रोजेक्ट और अपना प्रदर्शन लगातार बढ़िया रखने का दबाव वाली शिक्षा व्यवस्था बनाकर हमारे शिक्षा-कर्णधार, नीति-नियंता और नौकरशाहों ने पहले ही हमारे युवा दिमागों को उन अवयवों से महरूम कर दिया है जो किसी अर्थपूर्ण शिक्षा के लिए जरूरी है और अपने निजी वजूद को हल्का-फुल्का रखना, खुद जाकर चीजों का गहरा अवलोकन करना या एक घुमक्कड़ की तरबियत रखना। अभिभावकों के समूह से की गई बातचीत में पता चला है कि कोरोना महामारी वाले मौजूदा वक्त में भी विद्यालय ऑनलाइन पढ़ाई और पाठ्यक्रम पूरा करवाने के नाम पर अपने छात्रों पर असहनीय बोझ बनाए हुए हैं।
दरअसल, बोर्ड परीक्षाओं में 99 से 100 प्रतिशत अंक लाने की आसक्ति के चलते सृजनशील पाठ्यशास्त्र अपना अर्थ गंवा बैठता है। यहां तक कि अक्सर बहुत से ‘वामपंथी’ भी यह अहसास करने से चूक जाते हैं कि अगर बच्चों के पाठ्यक्रम में रोमिला थापर या इरफान हबीब जैसे लेखकों के लेख या बिरसा मुंडा और सावित्रीबाई फुले पर आधारित पाठ शामिल करने भी दिए जाएं तो भी मौजूदा अध्यापन-शास्त्र के तौर-तरीके एवं मूल्यांकन प्रक्रिया का ढर्रा सब कुछ ध्वस्त कर देगा क्योंकि सब कुछ एक ही आधार पर टिका दिया गया है नंबरों वाला सवाल! ऐसा तंत्र मुर्दा है, इसमें कोई आत्मा नहीं है, यह विद्यार्थी में आंतरिक दोलन नहीं जगा सकता। न सिर्फ यही एक कारण है बल्कि लोकतंत्र के बारे में भी अलोकतांत्रिक ढंग से पढ़ाया जा रहा है, इसे पाओलो फ्रेरे के शब्दों में कहें तो शिक्षा को बैंकिंग सरीखे ढंग से दिया जा रहा है। यानी सर्वज्ञाता शिक्षक है जो यंत्रवत् तरीके से पढ़ाता चला जा रहा है और अनमना-सा छात्र ग्रहण करता है!
12वीं कक्षा के एक औसत विद्यार्थी से पैब्लो नेरूदा और कमला दास के बारे पूछकर देखिए (हालांकि इनकी लिखी कविताएं पाठ्यक्रम में हैं)। इनका जिक्र करने पर आपको उनकी आंखों में न चमक दिखाई देगी, न ही कविता के लिए शौक जगेगा। तथ्य तो यह है कि कक्षा के नीरस-ढर्रेदार-उबाऊ माहौल में कविता जैसा सरस विषय कब का मर चुका है। इसलिए हमें कोई भ्रम नहीं पालना चाहिए कि लोकतंत्र या मूल अधिकारों के बारे में पाठ पढ़ाने से बच्चों के बीच कौतूहल जगेगा। सीसीटीवी कैमरों से सुसज्जित कक्षाएं, एकतरफा संवाद करने वाले शिक्षक, ऑब्जेक्टिव किस्म के सवालों का त्वरित जवाब देने वाली प्रक्रिया को बढ़ावा देना और कक्षा में वर्गानुगत भेदभाव होता देख छात्रों को खुद अहसास हो जाता है कि किताबी ज्ञान और यथार्थ में कितना फर्क है।
हालांकि, पाठ्यक्रम में जो कुछ है, मैं सभी के महत्व को नकार नहीं रहा हूं। मुझे यह भी अहसास है कि जिसे हम एक ‘बहुमूल्य शिक्षा’ की तरह आज देख रहे हैं, उसे बृहद राजनीतिक-आर्थिक विचारधारा से अलग नहीं किया जा रहा और समय-समय पर यह राजनीतिक झुकाव सभी रंगों के शिक्षा-मठाधीश चरित्रार्थ करते आए हैं, चाहे वे अंबेडकरवादी हों या मार्क्सवादी, दक्षिणपंथी हों या मध्यमार्गी। तभी तो केंद्रीय शिक्षा बोर्ड की पाठ्य पुस्तकों की समूची लीक पाठ्यक्रमों में राजनीतिक संदर्भ वाले झुकावों को चरितार्थ करती आई है। बतौर एक शिक्षक और चिंतातुर नागरिक मैं भी इस बात पर यकीन करता हूं कि हमारे बच्चों को स्वतंत्रता आंदोलन के ढके-छिपे विचारों को जानने के लिए प्रोत्साहित और बढ़ावा दिया जाना चाहिए। मसलन गांधी के विचारों की आत्मा, भगत सिंह की तीव्रता और अंबेडकर द्वारा उठाए गए सवाल। उन्हें मालूम हो कि विविधता एवं अनेकता भरे समाज में जीने की कला क्या होनी चाहिए, उन्हें दूसरों को सुनने का माद्दा सिखाया जाना चाहिए, भले ही विचार एकदम विरोधी क्यों न हों। उन्हें विज्ञान, कविता, धार्मिकता एवं समतावाद, राष्ट्रभक्ति और विविधता भरे बड़े शहरों में जीने के तौरतरीकों के साथ बड़ा होना सिखाया जाए, यह भी बताया जाए कि वर्गविहीन समाज और सबको साथ लेकर चलने वाली मानसिकता क्या होती है। अन्य शब्दों में कहें तो ‘वाम’ और ‘दक्षिण’ वाली लीक से परे उन्हें मुक्त, वक्ता, मुलायम और ग्रहण करने वाला बनाना चाहिए।
शायद सभी व्यावहारिक बड़े शिक्षाविदों जैसे कि गांधी, टैगोर, टॉलस्टॉय, कृष्णमूर्ति, इवान इल्लिच और पाअलो फ्रेरे के दिमाग में इसी आदर्श का विचार था। ज्ञान के बोझ से परे सूचना का भारी अंबार लगा देना और परीक्षा में अच्छे अंक लाने पर जश्न मनाने वाला जो ढर्रा बना दिया गया है, उसने अध्यापक-छात्र के बीच गुणवत्तापूर्ण संबंध, खेल-खेल में चीजों को सीखने और भूल जाने के आनंद, वत्सल एवं और स्नेह बनाने की प्रवृत्ति को चोट पहुंचाई है। अफसोसनाक यह है कि हम इन बुनियादी विषयों पर शायद ही ध्यान देते हैं। इसकी बजाय घटिया राजनीति, नौकरशाहों की उदासीनता, पाठ्य-शास्त्र से कक्षा को लाद देना, राजनीतिक विचारधारा से प्रेरित पाठ्य पुस्तकें और जिंदगी बर्बाद करने वाली परीक्षा व्यवस्था आज के शैक्षणिक परिदृश्य का चरित्रण करती है। हम शायद ही कभी उस ढर्रे से परे देखते हैं, जिसमें ‘दक्षिणपंथी प्रस्ताव लाते हैं’ तो ‘वांमपंथी प्रतिक्रिया में विरोध’ करते हैं, दक्षिणपंथी लोग शिवाजी और राणा प्रताप की वीरता को आगे रखना चाहते हैं तो वामपंथियों के लिए बच्चों को सर्वहारा का उफान और सोवियत क्रांति पढ़ाना जरूरी लगता है या नेहरूवादी चाहते हैं कि देश की आजादी में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का योगदान उभारा जाए, वहीं अंबेडकरवादी इसको नकारना चाहते हैं। तथापि इन सबों में कोई भी वास्तव में शिक्षा की सही आत्मा बनाने को इच्छुक नहीं है। यानी ऐसा वातावरण बनाना, जिसमें बच्चे का कौतूहल जागे और वह उससे सीखे, अपने को और से जुड़ा समझे, प्यार बनाए और कुछ नयी सृजन एवं अनुसंधान करे।
लेखक समाज शास्त्री हैं।