सुबीर रॉय
एक समाचारपत्र के प्रबंधन विभाग में मेरे पुराने साथी से कुछ समय पहले फोन पर बात हुई। वे इस बात को लेकर क्षुब्ध थे कि छोटी बचत योजनाओं पर सरकार ने एक बार फिर से ब्याज घटा दिया है। इससे कर्मचारी भविष्य निधि खाता, जहां उनकी अधिकांश पूंजी जमा है, उस पर मिलने वाले ब्याज पर असर होना स्वाभाविक है। जिंदगी भर निजी क्षेत्र में काम करते रहे किसी इनसान के लिए तो ब्याज के रूप में आने वाली यह आमदनी ही पेंशन होती है, क्योंकि सेवानिवृत्त सरकारी कर्मी जैसी बाकायदा पेंशन सुविधा जो नसीब नहीं है। सहानुभूति दिखाने के अलावा मैं उनके लिए कुछ कर भी नहीं सकता था। कुछ दिन पहले, जब ब्याज दरें एक बार फिर से कम की गईं (हालांकि एक दिन के भीतर ही निर्णय वापस हुआ) तो मुझे उनका फोन दुबारा आने की आस थी।
उन भलेमानस की दयनीयता और सरकार द्वारा मारी पलटी का भारत के मध्य वर्ग की नाजुक स्थिति पर सरकारी फैसलों का असर किस कदर गहरा होता है, इस ओर ध्यान खींचा है। भले ही इस मध्य वर्ग के पास राजनीतिक रूप से महत्वपूर्व वैसा वोट-बैंक वाला संख्या बल नहीं है जैसा इससे नीचे वाले आर्थिक रूप से और भी कमजोर तबके के पास है, लेकिन जनता के रुख की नब्ज क्या है, उसे तय करने में मध्य वर्ग काफी भूमिका रखता है। एक सेवानिवृत्त इनसान के लिए ब्याज रूपी आमदनी में कमी होने से बड़ी कड़वाहट और कोई नहीं हो सकती, वह भी ऐसे वक्त जब रोजमर्रा की वस्तुओं के दाम फिर से ऊपर उठने लगें।
लघु बचत योजनाएं – जैसे कि डाकघर बचत खाता, बचत पत्र और सामाजिक सुरक्षा योजनाएं जैसे कि कर्मचारी निधि और वरिष्ठ नागरिक बचत योजनाएं – घरेलू बचत का महत्वपूर्ण स्रोत हैं। तमाम लघु बचत योजनाओं की मार्फत इकट्ठा हुए धन का इस्तेमाल केंद्र और राज्य सरकारें अपने वित्तीय घाटे को पूरा करने में करती हैं। जो कुछ बच जाता है, उसे सरकारी प्रतिभूतियों में निवेश कर दिया जाता है।
हालांकि प्रथम दृष्टया सरकार के वित्तीय प्रबंधन प्रशासकों द्वारा ब्याज दर में कमी करने वाली सलाह को गलत ठहराना भी ठीक नहीं होगा। वित्तीय घाटा सूचकांक, जो किसी भी सरकार के वित्तीय स्थायित्व का पहला संकेत होता है, जब वह लॉकडाउन और उससे पहले बनी आर्थिक मंदी की वजह से काफी ऊपर चला गया तो उसे कम करके नियंत्रण वाली स्थिति में बनाना ही होगा। इसका एक कारगर तरीका यह होता कि सरकार द्वारा उठाए कर्ज पर सूद को कम किया जाए और इसके लिए जरूरी है बैंकों की समूची ब्याज दर तालिका को कम किया जाए। किंतु यहां आवश्यक है कि ब्याज की वंशावली में, जैसे कि सरकार द्वारा जारी किए गए दीर्घकालीन बॉन्ड्स से लेकर बैंकों द्वारा बचत खातों पर दिए जाने वाले ब्याज तक नाना प्रकार की बचत योजनाओं में लघु बचतों पर मिलने वाली ब्याज दरों को अलग श्रेणी में रखते। क्योंकि अगर बचत की सभी श्रेणियों पर सूद की दर नीचे की जाएगी तो लघु बचत पर मिलने वाली ब्याज दर भी नीचे आना अवश्यंभावी है। यहां एक सोच यह भी बताई जाती है कि अगर लघु बचत पर दिए जाने वाले ब्याज को अन्य से अलहदा रखें यानी बाकी बचत योजनाओं से ज्यादा रहे तो फिर बैंकों में रखे पैसे का प्रवाह लघु बचत की ओर मुड़ने लगेगा। इससे बैंकों के लिए ऊंचे स्तर पर वाणिज्यिक कर्ज उठाने वालों को देने के लिए पैसा देना मुश्किल हो जाएगा। इसका आगे असर यह होगा कि सरकार को बड़े उद्योग-धंधों से मिलने वाली कराधान आमदनी में कमी हो जाएगी, लिहाजा आर्थिक घाटा कम रखने के प्रयास सिरे नहीं चढ़ पाएंगे, यूं हम घूम-फिरकर वहीं आन पहुंचेंगे, जहां से शुरू किया था। लेकिन यह भी उतना ही सही है कि अगर सरकार आज लघु बचत योजनाओं पर ब्याज दर घटाती है तो अपने लिए मुसीबत मोल लेती है क्योंकि इसका राजनीतिक प्रभाव नकारात्मक होगा। वह भी ऐसे वक्त पर जब मुद्रास्फीति फिर से ऊपर जाने लगी है। फरवरी के आंकड़े बताते हैं कि उपभोक्ता मूल्य और खाद्य पदार्थ मूल्य सूचकांक पुनः ऊपर की ओर जा रहे हैं। इससे पहले वाले महीनों में जब यह नीचे गिरे थे तो उम्मीद बंधी थी कि हमने 2020 के दौरान ज्यादातर समय ऊंची रही मुद्रास्फीति वाला वक्त पीछे छोड़ दिया है।
इसलिए सरकार के लिए दुविधा यह है कि अगर वह खुद द्वारा उठाए ऋण पर सूद का खर्च कम करके देश की आर्थिकी को पुनः गति देने का उपाय अपनाती है तो इसके लिए तमाम ब्याज योजनाओं की दर नीचे करनी पड़ती है और लघु बचत योजनाएं भी इसी में आती हैं। लेकिन जब इन्हीं लघु बचत योजनाओं पर ब्याज कम मिले, खासकर चुनावी मौसम में, तो नाराज हुए मध्य वर्ग (सेवानिवृत्त लोग जिसका अंग हैं) की वोटें हाथ से खिसकने का सबब बन जाता है।
जो एक बात सीखने की जरूरत है वह यह कि सरकार ढर्रे के उपाय करने की बजाय नयी संभावनाएं तलाशे। बेशक वित्तीय घाटा सूचकांक का ख्याल रखना बहुत महत्वपूर्ण होता है, किंतु इससे ज्यादा अहम है सम्पूर्ण आर्थिकी को फिर से खड़ा करने की जरूरत। एक बार यह होना शुरू हो जाए यानी बैंकों द्वारा वहन योग्य सूद पर दिए जाने वाले कर्ज में इजाफा होने से सभी प्रकार की आर्थिक गतिविधियों में प्रसार होगा, जिससे आगे सरकार को कर से मिलने वाली आमदनी में बढ़ोतरी होगी। इस तरह पिछले कुछ समय के अंतराल के बाद वित्तीय घाटा पूरा करने के उपाय राह पकड़ लेंगे।
साफ है कि बैंकों द्वारा दिए जाने वाले कर्ज पर ब्याज दर या तो कम रखी जाए या नीचे ही बनी रहे। लेकिन ठीक इसी वक्त, आर्थिक तर्क और राजनीतिक मजबूरियों की दृष्टि से भी, लघु बचत योजनाओं की ब्याज दरों से छेड़छाड़ करना समझदारी नहीं होगी। यह इसलिए भी जरूरी है क्योंकि सेवानिवृत्त पेंशनभोगी अपने वजूद के लिए लघु बचत से मिलने वाली इसी आमदनी पर निर्भर होते हैं।
हमारा तर्क यह है कि शेष बचत अथवा कर्ज योजनाओं पर घटते ब्याज दर वाले माहौल में भी लघु बचत योजनाओं पर मिलने वाले सूद को कम न किया जाए। बेशक लगे कि ऐसा करने से यह योजना विशेष बैंकों की अन्य बचत योजनाओं से अधिक आकर्षक बन जाएगी, किंतु इसका यह मतलब नहीं है कि लोगबाग अन्य बचतों में रखे पैसे का रुख लघु बचत की ओर करने को उमड़ेंगे, क्योंकि अक्सर लघु बचत की अवधि दीर्घकालिक होती है, जिसे कोई व्यक्ति काफी सोच-समझ के बाद चुनता है। यही कारण है कि बैंक के दो अन्य लोकप्रिय खाते यानी चालू एवं आम बचत खाता, इनमें धन में कमी आई है क्योंकि अक्सर यह वह नकदी होती है, जिसे लोगबाग अपने रोजमर्रा का खर्च-धंधा चलाने को इस्तेमाल करते हैं। चूंकि सावधि बचत योजनाओं को समय-पूर्व तोड़ने पर ब्याज दर में कटौती स्वयमेव होने से घाटा होता है, इसलिए सेवानिवृत्त लोग ही इसका ज्यादा इस्तेमाल करते हैं। कुल मिलाकर सेवानिवृत्त लोगों की भलाई की खातिर यह कहना न्यायोचित होगा कि वे अपना ध्यान रखने लायक यथेष्ट रूप से समर्थ बने रहें, इसलिए कोशिश हो कि सेवानिवृत्ति उपरांत आमदनी में किसी वजह से कमी न आने पाए, ठीक वैसे ही जैसे नागरिकों की बुनियादी स्वास्थ्य सुविधा और उच्चतर विद्यालय तक शिक्षा को बतौर सामाजिक सुरक्षा ध्येय अपनाया गया है अर्थात् जरूरतमंद नागरिकों के लिए यह सुविधाएं मुफ्त रहें और सरकार खर्च उठाए। कायदे से तो आर्थिक रूप से सेवानिवृत्त हो चुके आर्थिक रूप से कमजोर लोगों को हाथ में आने वाली नकदी या पेंशन, जो भी कहें, वह सरकार की ओर से मिलनी चाहिए। अत: लब्बोलुआब यह कि मध्य वर्ग के सेवानिवृत्तों की पेंशन या बचत संबंधी आमदनी से छेड़छाड़ नहीं होनी चाहिए।
लेखक आर्थिक मामलों के वरिष्ठ विश्लेषक हैं।