राजेन्द्र चौधरी
हाल में पारित कृषि कानूनों के माध्यम से मोदी सरकार द्वारा कृषि क्षेत्र में लाई गई ‘1991 सरीखी क्रांति’ का देश भर में विरोध हो रहा है। तीन कांग्रेस शासित राज्यों ने विधानसभा में कानून पास कर केन्द्रीय कानून को भोथरा करने और किसानों के हितों की रक्षा करने का दावा किया है। सबसे पहले पंजाब ने, फिर छत्तीसगढ़ और राजस्थान ने इस आशय के कानून बनाए हैं।
मान्यता यही रही है कि तीनों कांग्रेस शासित राज्यों में पारित कानून एक जैसे होंगे। पर वास्तव में ऐसा नहीं है। तीनों कांग्रेस शासित राज्यों में पारित कृषि सम्बन्धी कानूनों में न केवल काफी अंतर है, अपितु वे मोदी सरकार द्वारा कृषि क्षेत्र में लाई गई ‘1991 सरीखी क्रांति’ यानी बाज़ार आधारित अर्थव्यवस्था के मूल तत्वों को बरकरार रखते हैं।
पंजाब ने केवल गेहूं एवं धान की न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम दाम पर खरीदी को गैरकानूनी घोषित किया है, तो छत्तीसगढ़ के कानून में न्यूनतम समर्थन मूल्य संबंधी कोई प्रावधान नहीं है, और राजस्थान ने न्यूनतम समर्थन मूल्य को केवल करार खेती कानून के तहत अनिवार्य किया है—बाकी जगह बिक्री के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य को अनिवार्य नहीं किया। इतना फर्क अवश्य है कि जहां पंजाब ने केवल गेहूं और धान के लिए इसे अनिवार्य किया है, वहीं राजस्थान ने इसे सभी फसलों के लिए अनिवार्य किया है (पर केवल करार खेती कानून के तहत)। लेकिन इन तीनों कांग्रेस सरकारों ने किसान को न्यूनतम समर्थन मूल्य उपलब्ध कराने का कोई ठोस प्रावधान नहीं किया है।
एक काम जो सभी कांग्रेस शासित सरकारों ने किया है, वह यह है कि मंडी कर सभी तरह की कृषि उपज की खरीद पर लगेगा, फिर चाहे वह सरकारी मंडी में हो, निजी मंडी में, मंडी से बाहर हो या अनुबंध खेती के तहत। इस बदलाव से राज्य सरकार के राजस्व पर पड़ने वाले केन्द्रीय कानून के दुष्प्रभाव निरस्त हो जायेंगे। केन्द्रीय कानून के चलते मंडी खरीद, मंडी से बाहर की खरीद के मुकाबले महंगी हो गई थी, अब यह प्रभाव भी निरस्त हो जाएगा पर इसका किसानों को मिलने वाले भाव पर कोई अंतर नहीं पड़ेगा। राजस्थान ने करार खेती के तहत बिक्री और नियंत्रित मंडी से बाहर हुए सौदों में विवाद होने पर मंडी कानून के तहत ही कार्रवाई का प्रावधान किया है। विवाद की स्थिति में लागू होने वाले कानूनी प्रावधानों में कुछ बदलाव छत्तीसगढ़ और पंजाब में भी किये गए हैं।
इन कानूनी बदलावों के माध्यम से राज्य सरकारों ने कृषि क्षेत्र पर राज्य सरकार के नियंत्रण का कानूनी दावा ठोका है और यह स्वागत योग्य है। परन्तु दो बड़े मुद्दों पर ये राज्य सरकारें मोदी सरकार की राह पर ही चली हैं। इनमें से एक, न्यूनतम समर्थन मूल्य पर किसानों को खरीद का कोई आश्वासन नहीं। दूसरा है करार खेती के नाम पर कम्पनियों द्वारा खेती की जो राह मोदी सरकार ने खोली है, उस पर रोक लगाने के बजाय राजस्थान सरकार ने इसे और भी स्पष्ट कर दिया है। राजस्थान द्वारा पारित करार खेती संबंधी कानून की धारा 6 के तहत इस आशय का प्रावधान है कि प्रायोजक, यानी किसान से करार करने वाला, अपने द्वारा लगाए गए श्रमिकों को करार ख़त्म होते ही खेत से हटा लेगा। इससे स्पष्ट है कि करार खेती कानून के तहत करार केवल पैदवार की बिक्री का नहीं होगा अपितु सब तरह के कृषि कार्य यानी खेती का भी होगा। यद्यपि केन्द्रीय कानून की धारा 8 ए के तहत इसका निषेध किया गया था परन्तु इसी कानून की धारा 2 डी, 2 जी ii एवं 8 बी के तहत कम्पनियों द्वारा खेती के लिए अप्रत्यक्ष प्रावधान था। लेकिन केन्द्र द्वारा पारित कानून के मसविदे के पृष्ठ 11 पर उद्देश्यों एवं कारणों पर प्रकाश डालने वाले हिस्से से केंद्र की मंशा स्पष्ट हो जाती है।
इस हिस्से की शुरुआत ही भारत की कृषि में ‘छोटी-छोटी’ जोतों से पैदा होने वाली समस्या गिनवाने से होती है। स्पष्ट है कि छोटी-छोटी जोतें तो तभी ख़त्म हो सकती हैं जब खेती कम्पनियाें द्वारा होने लग जाए। केन्द्रीय कानून में जो बात कुछ हद तक दबी छुपी थी, वह राजस्थान के कानून में स्पष्ट हो गई है।
उपरोक्त से स्पष्ट है कि दोनों, भाजपा और कांग्रेस, देश की अर्थव्यवस्था में 1991 में आए बदलावों को, यानी देश की अर्थव्यवस्था को ज्यादा से ज्यादा कम्पनियों के हवाले करने के रास्ते पर चलते हुए, अब कृषि क्षेत्र को भी उसमें शामिल करना चाहती हैं।