शायद यह पहली बार है जब देश में किसी टीवी चैनल के कार्यक्रम को लेकर उठा विवाद अंतर्राष्ट्रीय स्तर तक पहुंच गया हो और यह भी शायद पहली बार है जब किसी राजनीतिक दल ने अपने राष्ट्रीय प्रवक्ता को पार्टी से इसलिए निलंबित या निष्कासित किया हो कि उसकी करनी से ऐसा कोई विवाद उठ खड़ा हुआ है। प्रवक्ता द्वारा अल्पसंख्यकों के आराध्य देव को लेकर की गयी टिप्पणी निश्चित रूप से आपत्तिजनक थी। किसी भी जिम्मेदार चैनल से अथवा ज़िम्मेदार पार्टी-प्रवक्ता से इस तरह की चूक या भूल की अपेक्षा नहीं की जा सकती। हालांकि, भाजपा के राष्ट्रीय प्रवक्ता ने बिना शर्त खेद प्रकट किया है, पर इसमें संशय नहीं है कि इस विवाद ने राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय दोनों स्तरों पर देश के लिए एक मुश्किल स्थिति पैदा कर दी है। मुश्किल स्थिति इसलिए कि पिछले एक अर्से से देश में ऐसी घटनाएं हो रही हैं जो सांप्रदायिकता को बढ़ावा देने वाली हैं।
हमारा संविधान हमें अपने-अपने धर्म के अनुसार आचरण करने, और अपने धर्म का प्रचार-प्रसार करने की भी, आज़ादी देता है, लेकिन उस लक्ष्मण-रेखा का उल्लंघन करने का अधिकार किसी को नहीं है जो देश में धार्मिक सौहार्द की स्थिति को बनाये रखने के लिए ज़रूरी है। लेकिन इस रेखा का उल्लंघन न करने का दायित्व जिन पर है, वे अक्सर अपनी सीमा लांघ लेते हैं। यह चिंता की बात है, और खतरे की भी।
आज़ादी के बाद जब हमने अपना संविधान बनाया तो उसमें सर्वसम्मति से यह कहना ज़रूरी समझा था कि भारत के हर नागरिक को अपने धर्म के अनुसार आचरण करने का अधिकार होगा, और यह भी कि सरकार के स्तर पर धर्म के संदर्भ में किसी के साथ भी किसी प्रकार का भेदभाव नहीं किया जायेगा। भारत के हर नागरिक के अधिकार समान हैं, और कर्तव्य भी। पंथ-निरपेक्षता के इसी सिद्धांत के अनुसार हमने एक बहुधर्मी देश का सपना देखा और इस बात के प्रति सावधान रहे कि हमारा यह सपना खंडित न हो। लेकिन इस व्यवस्था और सावधानी के बावजूद ऐसे तत्वों को सिर उठाने के अवसर मिलते रहे हैं जो धार्मिक सौहार्द बिगाड़ने का कारण बनते हैं। जब अवसर मिलते नहीं हो ये तत्व अवसर बना लेते हैं।
ऐसा ही एक अवसर भाजपा के प्रवक्ता का टीवी बहस में अनुत्तरदायी आचरण से बन गया। यह दुर्भाग्यपूर्ण है। लेकिन इससे भी अधिक दुर्भाग्यपूर्ण यह तथ्य है कि अक्सर हमारे टीवी कार्यक्रम में भाग लेने वाले, और एंकर भी, जानबूझकर ऐसे विवादों को हवा देते हैं, जो सांप्रदायिक तनाव को बढ़ाने का काम करते हैं। जो टिप्पणी की गयी, वह अनावश्यक तो थी ही, आपराधिक भी थी। संबंधित प्रवक्ता का कहना है कि वह अपने आराध्य के बारे में की जा रही टिप्पणियों से व्यथित थी, इसलिए उसके मुंह से यह बात निकल गयी। लेकिन यह भी एक दुर्भाग्यपूर्ण सच्चाई है कि ऐसी बहसों में भाग लेने वाले अक्सर ऐसा कर बैठते हैं। अक्सर हम देखते हैं कि राजनीतिक दलों के प्रवक्ता और समर्थक अपने नाटकीय और दुर्भाग्यपूर्ण व्यवहार से टीवी के दर्शकों को लुभाने की कोशिश करते हैं। लेकिन ऐसा व्यवहार सिर्फ दुर्भाग्यपूर्ण नहीं होता, अक्सर यह आपराधिक कृत्य होता है। और अक्सर ऐसा करने वाले सज़ा से भी बच जाते हैं। वैसे, सज़ा सिर्फ ऐसा कुछ बोलने वालों को ही क्यों मिले? सज़ा की भागी तो उस एंकर की चुप्पी भी होती है, जो ऐसे आपराधिक व्यवहार को देखकर अनदेखा कर देता है। एंकर का कर्तव्य बनता है कि वह हस्तक्षेप करे, ग़लत करने या बोलने वाले को ऐसा करने से रोके। पर सच्चाई यह है कि कि जहां टीवी बहस में भाग लेने वाले भड़काऊ बयानों से अपना राजनीतिक हित साध रहे होते हैं, वहीं एंकरों की निगाह अपनी टीआरपी पर होती है। राजनीति और व्यवसाय के इस खेल में हार राष्ट्रीय और सामाजिक हितों की होती है।
देश में जब-तब सांप्रदायिकता की आग फैलाने वालों को अपने स्वार्थ दिखते हैं, देश का हित नहीं। इन स्वार्थों के खिलाफ भी एक लड़ाई लड़नी होगी। सच तो यह है कि यह लड़ाई लगातार जारी रहनी चाहिए। सांप्रदायिकता फैलाने वाले व्यक्ति और विचार दोनों के दुश्मन हैं।
यह एक अच्छी बात है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुखिया मोहन भागवत ने धार्मिक उन्माद फैलाने वालों के खिलाफ आवाज़ उठायी है। काशी में ज्ञानवापी मस्जिद के संदर्भ में चल रहे विवाद में उन्होंने इतिहास को इतिहास ही रहने की सलाह दी है। उन्होंने यह भी कहा है कि हर मस्जिद के नीचे ‘शिवलिंग’ खोजने की प्रवृत्ति से बचना होगा। मंदिरों को ढहाकर मस्जिद बनवाना हमारे इतिहास का एक सच है, पर उस सच को अपना भविष्य बिगाड़ने का कारण तो नहीं बनने दिया जा सकता। भागवत की इस बात को समझने की आवश्यकता है। पर यह पहली बार नहीं है जब उन्होंने ऐसा कुछ कहा है। पहले भी भारत में जन्म लेने वाले हर व्यक्ति को हिंदू मानने की नेक सलाह वे दे चुके हैं। पर कितनों ने समझा उनकी इस बात के महत्व को? अब भी उन्होंने कहा है कि उपासना-पद्धति अलग हो जाने से कोई हम से अलग नहीं हो जाता। भारत के मुसलमानों के पूर्वज भी हिंदू ही थे। एक ही खून बहता है इस देश के हिंदुओं और मुसलमानों की धमनियों में। यह बात यदि हम समझ लेते हैं तो फिर कुछ अप्रिय कहते समय हमारी ज़ुबान भी कांपेगी।
भाजपा के प्रवक्ता ने अपनी ग़लती स्वीकारी है। लेकिन ऐसे किसी स्वीकार में ‘यदि’ के लिए कोई स्थान नहीं होना चाहिए। खेद इसलिए नहीं होना चाहिए कि किसी को बात बुरी लगी है, बल्कि इसलिए होना चाहिए कि बात बुरी है। किसी भी धर्म के खिलाफ कुछ भी कहना बुरा है। बुराई किसी धर्म में नहीं होती, बुराई धर्म के अनुरूप आचरण न करने वालों में होती है। इस बात को समझ कर ही हम गांधी की इस बात को स्वीकार कर पायेंगे कि हमारी लड़ाई बुरे के खिलाफ नहीं, बुराई के खिलाफ है।
इस बात को समझना और स्वीकारना आसान नहीं है, पर ज़रूरी है यह। भाजपा की उस प्रवक्ता को ‘अपने आराध्य’ की बुराई सुनकर गुस्सा आ गया। पर हम तो ईश्वर-अल्लाह एक हैं में विश्वास करते हैं। हम तो ‘सत्य एक है’ मानने वाले हैं। फिर क्यों हम घुलने देते हैं हवा में सांप्रदायिकता का ज़हर?
सांप्रदायिकता मनुष्यता का नकार है। सवाल किसी एक पार्टी प्रवक्ता को निलंबित या निष्कासित करने का नहीं है, सवाल उस विचार को मन-मस्तिष्क से निकालने का है जो हमें हिंदू और मुसलमान में, ईसाई और पारसी में बांटता है। धर्म के नाम पर बांटने वाली राजनीति को हर कीमत पर नकारना होगा। पार्टी का प्रवक्ता वही बोलता है जो पार्टी उसे बोलने के लिए कहती है, इसलिए राजनीतिक दलों को अपने आप को सुधारना होगा। मौजूदा संदर्भ में भाजपा के नेतृत्व को उदाहरण बनना होगा।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।