समानता और सर्वकल्याण जैसी संकल्पना लोकतंत्र की मूल भावना में निहित है। लेकिन विडंबना है कि भारतीय राजनीति में यह संकल्पना कहीं गुम हो गई है और यही कारण है कि लोकतंत्र के पर्व कहे जाने वाले चुनावों में गरीब, मजदूर और किसानों की कोई पूछ नहीं होती। इसकी सबसे बड़ी वजह है कि इन चुनावों में केवल मालदार और रसूखदारों का बोलबाला होता है।
हालिया बिहार विधानसभा चुनाव में बने विधायकों के शपथपत्रों से कुछ ऐसे ही चौंकाने वाले खुलासे उजागर हुए हैं। इलेक्शन वॉच और एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) ने चुनाव में 243 विजयी उम्मीदवारों में से 241 द्वारा दायर किए गए स्व-शपथपत्रों के विश्लेषण के बाद इस तथ्य का खुलासा किया है कि इनमें से 194 विधायकों के पास करोड़ों रुपये की संपत्ति है। जबकि पिछले विधानसभा में ऐसे नेताओं की संख्या 162 थी। यानी 67 फीसद के बरअक्स इस बार 81 फीसद विधायकों के पास अकूत संपत्ति है। जीत दर्ज करने वाले एक उम्मीदवार की संपत्ति का औसत 4.32 करोड़ रुपये है जबकि 2015 के बिहार विधानसभा चुनावों में यह औसत 3.02 करोड़ रुपये था।
गौरतलब है कि जीतने वाले उम्मीदवारों में केवल 17 विधायक ऐसे हैं, जिनकी संपत्ति 10 से 50 लाख के बीच है। इतना ही नहीं, 10 लाख से कम संपत्ति वाले विधायकों की संख्या मात्र 4 है। विडंबना है कि धनकुबेर विधायकों की यह फेहरिस्त उस राज्य की है जहां प्रति व्यक्ति आय महज 46 हजार रुपये है और भारतीय राज्यों में यह सबसे कम है। इतना ही नहीं, बिहार देश के सबसे गरीब राज्यों में भी शुमार होता है। लेकिन इस गरीब राज्य में धनबली और बाहुबली विधायकों की मानो बहार आ गई है। यह सब कुछ तब हो रहा है जब इन राज्यों के हर चुनाव में गरीबी मिटाने और समानता कायम करने के वादों की गूंज सुनाई पड़ती है। सवाल है कि दस लाख की संपत्ति वाले विधायकों की संख्या महज चार हैं तो फिर उन लोगों का क्या जो विधायक बनने के योग्य हैं लेकिन वित्तीय रूप से कमजोर हैं। फिर लोकतंत्र की उस भावना का क्या, जिसमें समानता का पाठ पढ़ाया जाता है।
अगर अवैध धन की बात छोड़ भी दें तो आधिकारिक रूप से भी इस चुनाव में उम्मीदवारों को 28 लाख रुपये तक खर्च करने की छूट दी गई थी। जब चुनाव आयोग ने यह रकम तय की है तो इसका अर्थ है कि आयोग भी मानता है कि चुनाव जीतने के लिए 28 लाख रुपये की जरूरत है। लिहाजा यह अवधारणा कई सवाल खड़े करती है। पहला, अगर किसी मजदूर या किसान को चुनाव लड़ना हो तो वह इतनी रकम लाए कहां से क्योंकि संविधान तो हर किसी को समानता का अधिकार देता है। दूसरा, फिर क्या मान लिया जाए कि इस देश में गरीब हमेशा याचक और अमीर हमेशा स्वामी के अवतार में ही रहेंगे क्योंकि 28 लाख की चौड़ी खाई कभी पट नहीं सकती।
पिछले वर्ष ही एक बात सामने आई कि 20 से ज्यादा सांसद ऐसे हैं, जिनकी आय में 500 फीसद वृद्धि हुई जबकि एक तो ऐसे सांसद थे, जिनकी आय में 2300 फीसद का इजाफा हुआ। जब उच्चतम न्यायालय ने इनके नामों की जानकारी मांगी तो केन्द्र सरकार ने देने से इनकार कर दिया। जब सरकार ही जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ ले तो इसे आप क्या कहेंगे। सरकार की यह जिम्मेदारी होनी चाहिए कि वह पैसों के खेल पर अंकुश लगाने पर जोर दे और साफ-सुथरी चुनावी प्रक्रिया की संकल्पना लेकर आगे बढ़े। गौर करें तो इस व्यवस्था से भ्रष्टाचार पर भी लगाम लग सकेगा।
दरअसल व्यवस्था ऐसी होनी चाहिए कि राजनीति में प्रत्येक नागरिक को समान रूप से अवसर मिले। कहने को सभी समान हैं लेकिन हकीकत इससे कोसों दूर है। अवसर इस प्रकार से मिले कि एक मजदूर या किसान को भी अपनी चुनावी जीत का भरोसा हो। यह तभी संभव है जब चुनाव में पैसों का खेल बंद होगा। इससे सभी वर्गों के लोगों को प्रतिनिधित्व का अवसर मिल पाएगा। लिहाजा देश के विकास में विभिन्न प्रकार की सोच को जगह मिल सकेगी। अगर ऐसा नहीं हुआ तो देश की राजनीति में एक ही वर्ग अर्थात धनी वर्ग का ही बोलबाला रहेगा और देश की अधिकांश आबादी राजनीति से वंचित रह जाएगी।
उम्मीदवारों को चुनाव में खर्च किसी व्यवसाय में निवेश से कम नहीं लगता। चुनाव में लाखों करोड़ों का खर्च उम्मीदवारों को महत्वाकांक्षी बना देता है और उस खर्च को वह हर हालत में वापस पाना चाहता है। इसके लिए वह कई तरह के हथकंडे अपनाता है। समझना होगा कि मात्र ‘नो प्रोफिट नो लॉस’ की तर्ज पर चुनाव लड़ने से ही जनसेवा की भावना को भी बढ़ावा मिल सकता है। इससे राजनीतिक शुचिता पर कोई सवाल भी नहीं उठा सकेगा। हमारी सरकारों और सियासी दलों को इस दिशा में संजीदगी से सोचना होगा।