लक्ष्मीकांता चावला
यह नहीं कहा जा सकता कि आज़ादी के बाद देश में विकास नहीं हुआ। बहुत से क्षेत्रों में हम स्वावलंबी हो गए। कभी दूसरे देशों से अन्न मांगने वाले आज हम दुनिया को अन्न देने में समर्थ हैं। देश की सुरक्षा के लिए जो कुछ चाहिए, वह सब देश ने अपने बलबूते पर बना लिया है। हमारी सीमाएं सुरक्षित हैं। सच यह भी है कि स्वतंत्रता के पश्चात आज तक देश की महिलाओं ने भी शिक्षा, विज्ञान, ज्ञान और अंतरिक्ष के क्षेत्र में शानदार कारनामे किए हैं, पर आम आदमी का शोषण अभी तक बंद नहीं हो सका।
जो शोषण सरकारी स्तर पर होता है, वह ज्यादा दर्दनाक है। संविधान की शपथ लेकर सत्ता के शिखरों पर बैठने वाले यह भूल जाते हैं कि उनका पहला कर्तव्य उन लोगों तक अन्न, धन और जीवन की आवश्यक सुविधाएं पहुंचाना है जो इस देश के कमजोर गरीब नागरिक हैं और जिनके वोटों से वे सत्ताधीश बने हैं। अब पंजाब का ही एक उदाहरण देखिए। कभी यह होड़ लग जाती है कि जो बुजुर्ग, बेसहारा, विधवाएं और अनाथ बच्चे हैं, उनकी पेंशन लगवाई जाए। पर उससे भी ज्यादा कुठाराघात आज की सरकार कर रही है। ऐसा ही काम सन् 2002 में सरकार में आते ही तत्कालीन और वर्तमान मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह ने किया था। एक ही झटके में लगभग पचास हजार लोगों को अयोग्य लाभार्थी कहकर उनकी पेंशन काट दी। एक प्रशासनिक अधिकारी को हजारों लोगों की जांच का काम दिया जाएगा तो ऐसा ही होगा।
सरकारी तंत्र की सबसे बड़ी खामी यह रहती है कि उनके आंख-कान बंद रहते हैं। देखना, सुनना उनका विषय नहीं। इसी प्रकार मजदूरों का न्यूनतम वेतन कितने लोगों को मिल रहा है, पूरे देश में ही यह विडंबना है। पहले सरकार ठेकेदारों से काम करवाती है और फिर ठेकेदार आगे ठेकेदारी करते हैं। क्या देश की सरकार, सभी प्रांतों की सरकारें यह नहीं जानतीं कि प्राइवेट तंत्र को तो छोड़ दिया जाए, सरकारी तंत्र में कितना शोषण है, उसे रोकने या कम करने के लिए एक भी प्रयास नहीं। इसके साथ ही कोई सांसद, मंत्री या पूर्व सांसद, विधायक किसी बीमारी का इलाज देश-विदेश में या प्राइवेट अस्पतालों में करवाता है तो उस पर असीमित खर्च किया जाता है। क्या कोई विश्वास करेगा कि एक ही परिवार पर तीन करोड़ से ज्यादा चिकित्सा खर्च किया गया, लेकिन आमजन सरकारी अस्पतालों की दहलीज पर धक्के खाता और कभी-कभी बिना उपचार के ही मर जाता है। कभी सरकारी कर्मचारियों से पूछिए कि जब वे अपना मेडिकल बिल देते हैं तो उसमें से कितनी कटौती सरकार करती है और कभी-कभी तो वर्षों तक उन्हें खर्च किया धन नहीं मिलता।
अगर सरकार यह तय करे कि जनप्रतिनिधियों का उपचार भी सरकारी अस्पताल में ही बिना खर्च होगा, प्राइवेट उपचार या विदेशों में उपचार उन्हें अपने खर्च पर ही करवाना पड़ेगा तब संभव है राज्यों के करोड़ों रुपये बच जाएं। पूरे देश में तो अरबों बच जाएंगे। जिस राशि को आमजन को स्वास्थ्य सेवाएं देने में खर्च किया जा सकता है।
एक और ज्वलंत समस्या। पूर्व विधायकों और सांसदों को तो जीवन भर के लिए पेंशन मिलती है। पेंशन मिलनी चाहिए, इसमें कोई बुरी बात नहीं, पर लाखों में पेंशन देना कहां का न्याय है, जबकि सरकारी कर्मचारियों को सन् 2004 के बाद पेंशन नहीं मिलेगी। कड़वे करेले पर नीम यह कि जो सीमाओं की रक्षा कर रहे अर्द्धसैन्य बल हैं, उनको भी सेवानिवृत्ति के बाद कोई पेंशन नहीं मिलेगी। यही आज का काला कानून है। जो शहीद हो गया, उसी के परिवार को पेंशन।
अध्यापकों को राष्ट्र निर्माता कहते हैं, पर पंजाब में उन्हें पेंशन देने को पंजाब सरकार तैयार नहीं। सन् 2000 में मुख्यमंत्री बादल से बार-बार यूनियनों के पदाधिकारी मिलते रहे, पर बादल और उनके उच्चाधिकारी टस से मस नहीं हुए। इसी प्रकार नेशनल चाइल्ड लेबर प्रोजेक्ट के अंतर्गत काम करने वाले सैकड़ों अध्यापकों को अमृतसर में और भी कई नगरों में संभवतः देश के कई प्रांतों में दो वर्ष से ज्यादा समय से वेतन नहीं मिला। कुल मिलाकर चार वर्ष का वेतन सरकार की ओर से देय हैं।
हमारे ग्रंथों में भी कहा गया है कि श्रमिक का पसीना सूखने से पहले उसे पारिश्रमिक दिया जाए, पर अपने यहां जो बड़े-बड़े कानून के ग्रंथ पढ़ सकते हैं, लाखों रुपये खर्च कर अदालत की शरण में जा सकते हैं, उनको तो समानता मिलती होगी, पर जिन बेचारों ने हजारों भी नहीं देखे, उनके लिए कोई समानता इस देश में नहीं है।
प्रश्न यह है कि स्वतंत्रता के सात दशक बाद भी संविधान प्रदत्त समानता का अधिकार उनको क्यों नहीं मिला जो अपने साधनों से सुप्रीम कोर्ट की दहलीज तक जाकर अपने लिए समानता नहीं मांग सकते। समानता केवल दिवास्वप्न है।