सुरेश सेठ
बात कोरोना महामारी की कालरात्रियों और अंधदिवसों को झेलने की है। एक-दो नहीं, पूरे पन्द्रह महीनों से विश्व और उसके सर्वाधिक भीड़ भरी आबादी वाले भारत में कोरोना के रहस्यमय वायरस से उत्पन्न इस अबूझ मृत्यु झंझावात का यह त्रासद दौर चल रहा है। सबसे अधिक आबादी वाले देश चीन की बात अभी हम नहीं करते। वुहान की प्रयोगशालाओं से उत्पन्न हुआ यह वायरस, इसको आरोपित तो बहुत ने किया। चाहे विश्व सेहत संगठन ने इसे नकार दिया, लेकिन अमेरिका का खोजी विभाग और अन्य जांच-पड़ताल के सूत्र चीन को बरी करने के लिए तैयार नहीं। उधर जब दुनिया में इंग्लैंड, अमेरिका, रूस और भारत ने प्रतिरोधी टीकों का विकास कर लिया तो दुनिया भर में टीकाकरण अभियान शुरू हुआ। तब भी चीन को लेकर वही रहस्यमय चुप्पी छायी रही कि महामारी का प्रस्फुटन भी यहीं से और चीनियों ने अपना टीका ईजाद भी कर लिया।
खैर, बिना किसी राजनीतिक हड़बोंग के हम इतना तो कह सकते हैं कि जब कोविड की लहर अपने उफान पर आयी तो त्रासदियों का करुण क्रन्दन भारत ही नहीं, पूरे विश्व से सुनायी दिया है। लेकिन क्या कारण कि चीन ने चुप्पी धारण किये रखी। टीका भी उसने अपना बना लिया, लेकिन उसे लेकर वह किसी अंतर्राष्ट्रीय बाजारीकरण में उलझता नजर नहीं आया।
हां, उसकी सोची-समझी हठवादिता और शत्रुओं को छकाने की रणनीति में बड़ी से बड़ी मानवीय त्रासदियों के समय में भी कोई अन्तर नहीं आया। महामारी की दूसरी लहर का तांडव झेलता मानव समाज चाहे चीन को खलनायक कहता रहा, लेकिन इसके बावजूद वायरस ग्रस्त देशों में इससे बचाव के टीकाकरण अभियान अथवा प्राणरक्षक दवाओं, टीकों अौर आक्सीजन, वेंटिलेटर जैसे चिकित्सा उपकरण जुटाने में भागदौड़ साफ नजर आयी। फिर भी सामान्य जिंदगी, शैक्षणिक माहौल, मनोरंजन, कलात्मक अथवा पर्यटन से जीवन विस्तार लौटता नजर नहीं आया।
पिछले बरस कोरोना वायरस की पहली लहर का प्रहार भारत पर हुआ। उसने देश की अर्थव्यवस्था के बखिये उधेड़ कर रख दिये। इसका सामना देश भर में पूर्णबंदी और आंशिक पूर्णबंदी से करने की चेष्टा की गयी। लगभग छह महीनों की आर्थिक और सामाजिक पाबंदियों का नतीजा यह निकला कि देश आर्थिक प्रगति के स्थान पर रिकार्ड आर्थिक अवनति का शिकार हो गया। कहां तो दस प्रतिशत आर्थिक विकास दर को प्राप्त करके स्वत: स्फूर्त हो जाने का लक्ष्य था और कहां इस वर्ष आलम यह रहा कि देश में विकास दर शून्य से नीचे गिरकर -7.7 प्रतिशत तक चली गयी और सकल घरेलू उत्पादन 22 प्रतिशत तक घट गया।
पिछले बरस के अक्तूबर मास तक कोरोना का दुष्प्रभाव कम हो गया था लेकिन महानगरों से उखड़ा हुआ श्रम बल उसी तीव्र अंदाज से अपने गांव-घरों से वापस नहीं लौटा। पीछे रही गिनती ने बताया कि इस बहुरूपिये कोरोना का क्या भरोसा। धूर्त वायरस है। रूप बदल-बदल कर नयी लहर के रूप में लौटता है। अभी ‘सब अच्छा मान’ शहरों की ओर लौटें, और फिर कोरोना लहर का नया प्रहार, आर्थिक नाकाबन्दी लौटा लाये।
पिछले साल के आखिरी दिनों में कोरोना प्रकोप का दबाव निम्नतम और देश की आर्थिक गतिविधियां फिर अपनी लय पकड़ना चाहती थीं। आंकड़ा शास्त्रियों को भारतीयों के जीवट और उनकी जिजीविषा पर भरोसा था। उन्होंने अपनी उजली भविष्यवाणियां देनी शुरू कीं कि अर्थ स्थिति सामान्य होगी, कोरोना प्रताड़ित अब जुझारू हो परिश्रम करेंगे, आर्थिक विकास अपनी अवनति को पूरा करते हुए बारह प्रतिशत विकास दर छू लेगा।
लेकिन सपनों की इस प्रगति यात्रा में फिर व्यवधान आ गया। सामान्य माहौल बनाने और कोरोना से सुरक्षा के लिए देश भर में टीकाकरण अभियान शुरू कर दिया गया था लेकिन उस पर इस साल के फरवरी मास में कोरोना के नये म्यूटेंट वेरिएंट ने दूसरी लहर बनकर हमला कर दिया। यह लहर पिछले वर्ष की लहर से अधिक भयावह थी। संक्रमण की गिनती इतनी बेहिसाब, कि अस्पतालों में बेड नहीं, दम घुटने से बचाने के लिए प्राण वायु के ऑक्सीजन सिलेंडर नहीं, गंभीर होते रोगियों के लिए वेंटिलेटर नहीं, तो उन्हें चलाने वाले कहां से आते? मरने वालों की तादाद इतनी बढ़ी कि दाह कर्म के लिए कतारें लग गयीं।
कोरोना का विकराल रूप इस बार शहरों तक ही नहीं सिमटा, गांवों में चला आया। विशेषज्ञ बताते हैं कि इस दूसरी लहर का दबाव अब कम हो रहा है। तो यह अलविदा नहीं है। इस बार गांववासियों को लपेटा है तो आशंका है कि तीसरी लहर अगर अक्तूबर तक फिर चली आई तो बच्चों को लपेटेगी। वैसे इन दिनों में कोरोना के लौट जाने के आंकड़े नजर आ रहे हैं।
इन असामान्य दिनों के महंगाई के आकाश छूते आंकड़े, पेट्रोल की कीमतों में बेतहाशा वृद्धि और बेकारी और कोरोना प्रभावित अतिरिक्त बेकारी के रिकार्ड तोड़ आकड़े हैं। उधर टीकाकरण की अनिवार्यता का विश्वास हुआ तो अब टीके गायब हैं।
फिर भी समय साक्षी है कि इस देश का आधार बन उखड़े लोगों ने भी अपना जीवट नहीं छोड़ा। जिजीविषा को अपने दैनिक व्यवहार में शामिल कर लिया। देश की रीढ़ किसानों को देख लीजिये। इस बार कोरोना का हस्तक्षेप गांवों के दैनिक जीवन में हो गया। छह महीनों से इन किसानों का मोर्चा दिल्ली की सरहद पर लगा था। अभी उन्होंने काला दिवस मनाया है, परन्तु फिर भी सामाजिक अन्तर रख कर शांतिपूर्ण ढंग से प्रदर्शन करते हुए वे लोग अपने आक्रोश को जारी रखे हैं।
उनके इस प्रदर्शन के आवेश ने उनके अपनी खेतीबाड़ी के प्रति प्रतिबद्धता को कम नहीं किया। इस फसल सत्र के नतीजे बता रहे हैं कि ऐसे घोर कोरोना काल में उन्होंने अपनी फसलों की बिजाई में कोई कोताही नहीं की है। नये कानूनों के अंतर्गत भी फसलें बेची हैं तो कुल प्राप्त धनराशि पिछले सत्र की कमाई से अधिक कर ली है। उधर, पढ़ाई ऑफलाइन से ऑनलाइन हुई, सेमिनार से वेबिनार होने लगे, और इन्टरनेट पुस्तकों की जगह लेता नजर आया।
इस देश के श्रमशील और जुझारू लोग बार-बार संक्रमण के प्रहारों के बावजूद भगोड़े नहीं हुए। वह आत्मसम्मान के साथ जिन्दा रहने के लिए जीवन का हर परिवर्तन और विकल्प अपनाने के लिए तैयार हैं। अब कोरोना के प्रहार की शिद्दत के कम होने का स्वागत है। उम्मीद है कि जीवन जीने के लिए भी लोग तैयार हैं लेकिन सही रास्ता तो देश के मार्गदर्शकों को ही दिखाना होगा। देखना यह है कि देश के मसीहा कब नयी रोशनी की मशालें लेकर मजबूती से आगे आते हैं?
लेखक साहित्यकार एवं पत्रकार हैं।