बचपन में जब हम खुली छतों पर सोया करते थे तो मां और दादी नीले आकाश में विद्यमान एक अलौकिक परिवार से अक्सर परिचय कराया करती थीं। केवल बादलों, तारों और चंदा मामा की लुकाछिपी को देखते हुए उनसे हाथी-घोड़ों की आकृतियों की परिकल्पना भी हम किया करते थे। दादी और मां हमारा ध्यान खींचा करती थीं तारों के एक विशेष समूह की ओर। हमारे भीतर विश्वास जगाया जाता था कि ये सप्तऋषि हैं। ननिहाल में प्रवास के दौरान नानी के कथन से हमारे भीतर पैदा हुए विश्वास की पुष्टि हो जाया करती थी। आसमान के तारे तोड़ लाने की परिकल्पना भी बचपन से ही हमारे भीतर कूट-कूट कर भर दी जाती थी।
बाल्यकाल की वे मीठी यादें ताजा उस वक्त हुईं जब वर्ष 2023-24 के केंद्रीय बजट प्रस्तुतीकरण के दौरान एक नया भारी-भरकम शब्द सामने आया : सप्तऋषि। जो भी सरकार आती है, उसका आना जुमलों की सवारी के जरिये होता है। अब चाहे उसका चुनावी घोषणापत्र हो या चुनावी दृष्टिपत्र हो, वे लुभाने वाले शब्दजाल से लकदक ही दिखते हैं। एक पार्टी से दु:खी अवाम दूसरी पार्टी के जुमलों पर भरोसा करके गच्चा खा जाती है। लगता है अवाम की नियति ही सियासतदानों के शब्दजाल व सब्जबाग में फंसना लिखी होती है। दूसरे शब्दों में कहें तो नेता सपनों के सौदागर हैं। सपनों के सब्जबाग दिखाकर ही उनकी राजनीति की नैया पार होती रहती है। फिक्र का जिक्र ये है कि कभी इस बात का ऑडिट नहीं होता कि जो घोषणा पिछले चुनाव या साल में हुई थी, उसकी जमीनी हकीकत क्या है? कितने लोगों को फायदा वाकयी हुआ। लाभ पाने वालों के चंद नाम गिने जाते हैं। बाकी सरकारी कर्मचारियों की आंकड़ों की बाजीगरी होती है। कहते भी हैं आंकड़े तो कच्ची मिट्टी की तरह होते हैं। अब तो बनाने वाले के दिमाग पर निर्भर करता है कि वो इस कच्ची मिट्टी से अवाम के देवता बनाता है या अवाम को दुखी करने वाला दानव बनाता है। वैसे ही जैसे इस साल के आम बजट पर सियासी बयानबाजी हो रही है। सरकार वाली पार्टी के नेता कह रहे हैं वाह जी-वाह क्या बजट है। वहीं विपक्षी नेता इसे गरीब व किसान विरोधी बता रहे हैं।
बहरहाल, गद्दीनशीं सरकार के दौर में भारी-भरकम शब्दों के जरिये जो लच्छेवाली सियासत आमतौर पर की जाती है, उसकी छाप इस बजट में देखी गई है। इस बजट को अमृतकाल का बजट बताया जा रहा है। जैसे कि अवाम के हिस्से में कल्याण का रस बरसने ही वाला हो। सब कुछ मीठा-मीठा ही होने वाला हो। कायदा तो ये है कि इन अमृत की बूंदों का अहसास हकीकत में भी तो नजर आये। जनता की जिंदगी में बदलाव तो आये। कुछ तो अमृत महोत्सव में अमृत बरस लिया, जो बचा है लगता है इस आम बजट के जरिये बरस लेगा। सब को पता है कि इस साल नौ राज्यों में चुनाव होने वाले हैं। उसके बाद तो चुनाव का महाकुंभ होगा, जिसके लिये अलग से अमृत बरसेगा। सरकार कहती है कि वह सप्तऋषि के सात लक्ष्यों के जरिये विकास का आधार बनाएगी, जिसमें विकास के जरूरी लक्ष्य रखे गये हैं। खजाना मंत्री ने कहा कि देश के विकास में सात बिंदुओं पर ही फोकस करने का इरादा है। इस सप्तऋषि नजरिये का पहला स्तंभ है- समावेशी विकास। यानी हर जाति-धर्म और वर्ग से परे सबका विकास। दूसरे ऋषि नजरिये का मकसद है- हाशिये पर गये लोगों को तरजीह देना। तीसरा है मुल्क के लिये बुनियादी ढांचा बनाना और निवेश को तरजीह। चौथा है क्षमताओं को बढ़ाना। पांचवां हरित विकास यानी तरक्की का नजरिया ऐसा हो जिससे अवाम की जिंदगी सुरक्षित व सुकून वाली रहे। यानी कुदरत की नेमतों को बचाकर रखा जा सके। छठे ऋषि स्तंभ हैं युवा ताकत को तरजीह देना। सबको पता है कि दुनिया में हिंदुस्तान ही ऐसा मुल्क है जहां सबसे ज्यादा तादाद में नौजवान रहते हैं। उनकी तरक्की को तरजीह देना हर सियासी पार्टी का फर्ज होना चाहिए। सप्तऋषि की कड़ी में सातवां मकसद आर्थिक क्षेत्र है। सरकार की बात का लब्बोलुआब है कि अवाम की शिरकत से हर तबके के साथ, सबका भला करना।
दरअसल, हकीकत यह है कि भारतीय पौराणिक ग्रंथों में मुख्यरूप से सात ऋषियों का जिक्र किया गया है। इन सातों ऋषियों में कश्यप, अत्रि, भारद्वाज, विश्वामित्र, गौतम, जमदग्नि व वशिष्ठ शामिल हैं। ये ऋषि अपने-अपने समय में लोककल्याण के कार्यों के लिये जाने जाते हैं। देश की अवाम की भलाई के लिये काम करने के इनके गुणों के कारण सप्तऋषि का विचार सामने आया है। पर मौजूं सवाल ये है कि सियासत के कहने-करने में इन ऋषियों का कुछ भी अंश है? आमतौर पर नेता कहते कुछ हैं और करते कुछ हैं। बड़े-बड़े नाम गिनाने से क्या अवाम का भला खुद-ब-खुद हो जायेगा? हुक्मरानों की नीति व नीयत भी तो साफ होनी चाहिए।
नेता जान लें कि सोशल मीडिया के जमाने में जनता खासी सतर्क-सचेत है। अब वो नेताओं को ठोक-बजा के देखना जानती है। पर राजनीति भी जुमलों से लुभाने से पीछे कहां हटती है। महाभारत का वो प्रसंग याद आता है, जब कुरुक्षेत्र में द्रोणाचार्य पुत्र अश्वत्थामा की मौत की अफवाह उड़ी। कौरव सेना का मनोबल गिराने के मकसद से अश्वत्थामा हाथी का वध किया गया था और अफवाह उड़ा दी गई कि द्रोण पुत्र अश्वत्थामा मारा गया। जब द्रोणाचार्य ने धर्मराज युधिष्ठिर से अश्वत्थामा की मौत की सच्चाई जाननी चाही तो युधिष्ठिर गुरु के सामने झूठ नहीं बोल सकते थे। वे बोलेndash;’अश्वत्थामा हतो नरो वा कुंजरो वा’ बाद का वाक्य युद्ध के दौरान शंखनाद से साफ नहीं सुना गया। यानी अश्वत्थामा मारा गया है मगर ये नहीं पता कि नर है या हाथी। अपने देश की सियासत का भी ये हाल है बड़े-बड़े जुमले तो बोल दिये जाते हैं लेकिन उनकी सच्चाई की बात नहीं होती। यह कि वे जुमले हकीकत बने कि नहीं। जब तक उसके नफा-नुकसान की बात की जायेगी तब तक नया जुमला तैयार हो जायेगा।
हकीकत यह है कि हमारे देश की सियासत ऐसे ही आकाश के तारे तोड़ लाने जैसे वादों के साथ चल रही है। सियासत का दल कोई भी है- छद्म एजेंडे और वादों का पिटारा हर जगह खुलता है। ध्यान खींचने को नये-नये शब्द गढ़े जाते हैं। अवाम तो चाहती है सिर्फ रोटी, कपड़ा, मकान और रोजगार। सरकारों को भी पता है कि उसके पास स्कीमों को सिरे चढ़ाने के लिये कितना पैसा खजाने में है। पैसा कहां से आना है, कहां जाना है। यह भी कि इस सिस्टम में छेद कहां-कहां हैं। कितना राजनेताओं का हिस्सा है, कितना पूंजीपति का हिस्सा है, कितना ठेकदार का हिस्सा है तथा कितना व्यवस्था में रिस जाना है।
होना तो यह चाहिए कि अमृतकाल में अवाम के हिस्से में भले ही अमृत न आये, मगर नलों में पानी तो आ जाये। महंगाई खत्म न हो मगर कम तो हो। सरकार सोच ले जब भरपूर फसल के बावजूद किसान घाटे में है और खरीददार भी महंगे दाम चुका रहा है तो मुनाफा कौन खा रहा है? देख लें कि महंगाई बढ़ने के असली कारण क्या हैं? क्यों बेरोजगारों की लाइन लंबी होती जा रही है? क्यों अमीर ज्यादा अमीर हुआ है और गरीबी का दायरा बढ़ता जा रहा है? कौन है वो जो रात-दिन मेहनत करके नौकरी के लिये प्रतियोगिता परीक्षा की तैयारी करने वाले का पेपर मुनाफे के लिये आउट कराके उसके अरमानों पर पानी फेर जाता है? ऐसे में अमृत की बात तो हो मगर उसका अहसास अवाम को भी तो हो।
यक्ष प्रश्न यह है कि क्या सियासतदान भलीभांति समझते-बूझते हैं कि अलौकिक परिकल्पनाओं और आस्था रूपी ईंट-मिट्टी से हमारे संस्कारों की नींव रखी होती है। आज के लोकतंत्र में क्या हमारी धार्मिक और पौराणिक आस्था का शोषण सियासी जुमलों से किया जाने लगा है?