प्रमोद भार्गव
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने रसायन मुक्त और पर्यावरण हितैषी खिलौने बनाने का अाह्वान व्यापारियों से किया है। भारतीय खिलौना मेले में उन्होंने कहा कि अगर देश के खिलौना उत्पादकों को वैश्विक बाजार में हिस्सेदारी बढ़ानी है तो उन्हें पर्यावरण-अनुकूल पदार्थों का अधिक से अधिक उपयोग करना होगा। इससे हम आत्मनिर्भर बनने के साथ-साथ दुनिया भर की जरूरतों को भी पूरा कर सकते हैं।
खिलौनों को बच्चों के खेलने की वस्तु भले ही माना जाता हो, लेकिन ये आकर्षित सभी आयु वर्ग के लोगों को करते हैं। बच्चे या किशोर एकाकीपन की गिरफ्त में आकर अवसाद के घेरे में आ रहे हों, तो इस अवसाद को समाप्त करने के लिए खिलौने प्रमुख उपकरण हैं। मूक, बधिर व मंदबुद्धि बच्चों को खिलौनों से ही शिक्षा दी जाती है। स्वस्थ छोटे बच्चों के लिए तो समूचे देश में खेल-विद्यालय अर्थात ‘प्ले-स्कूल’ खुल गए हैं। साफ है, बच्चों के शैशव से किशोर होने तक खिलौने उनकी परवरिश के साथ, उनके रचनात्मक विकास में भी सहायक हैं।
भारत में खिलौना निर्माण का इतिहास अत्यंत प्राचीन है। मोहन-जोदड़ो और हड़प्पा के उत्खनन में अनेक प्रकार के खिलौने मिले हैं। ये मिट्टी, पत्थर, लकड़ी, धातु, चमड़ा, कपड़े, मूंज, वन्य जीवों की हड्डियों व सींगों और बहुमूल्य रत्नों से निर्मित हैं। जानवरों की असंख्य प्रतिकृतियां भी खिलौनों के रूप में मिली हैं। खिलौनों की अत्यंत प्राचीन समय से उपलब्धता इस तथ्य का प्रतीक है कि भारत में खिलौना निर्माण लाखों लोगों की आजीविका का प्रमुख साधन था और ये स्थानीय व घरेलू संसाधनों से बनाए जाते थे।
नवें दशक में जब कंप्यूटर व डिजिटल क्रांति हुई तो एक बार फिर खिलौनों का रूप परिवर्तन हो गया। अब कंप्यूटर व मोबाइल स्क्रीन पर लाखों प्रकार के डिजिटल खेल अवतरित होने लगे हैं। हालांकि इनमें अनेक खेल ऐसे भी हैं, जो बाल मन में हिंसा और यौन मनोविकार भी पैदा कर रहे हैं। चीन से इनका सबसे ज्यादा आयात होता है। इसीलिए प्रधानमंत्री ने भारतीय लोक-कथाओं व धार्मिक प्रसंगों पर डिजिटल लघु फिल्में बनाने की बात कही है।
यदि खिलौनों के निर्माण में हमारे युवा लग जाएं तो ग्रामीण व कस्बाई स्तर पर हम ज्ञान-परंपरा से विकसित हुए खिलौनों के व्यवसाय को पुनर्जीवित कर सकते हैं। इससे हमारे बच्चे खेल-खेल में भारतीय लोक में उपलब्ध ज्ञान और संस्कृति के महत्व से भी परिचित होंगे। दूसरी तरफ रबर, प्लास्टिक व डिजिटल तकनीक से जुड़े खिलौनों का निर्माण स्टार्टअप के माध्यम से इंजीनियर व प्रबंधन से जुड़े युवा कर सकते हैं। खिलौना उद्योग से जुड़े परंपरागत उद्योगपति अत्यंत प्रतिभाशाली व अनुभवी है, इसलिए वे इस विशाल व्यवसाय में कुछ नवाचार भी कर सकते हैं।
कालांतर में ऐसा होता है तो हम एक साथ तीन चुनौतियों का सामना कर सकेंगे। एक चीन के वर्चस्व को चुनौती देते हुए, उससे खिलौनों का आयात कम करते चले जाएंगे। दो, खिलौने निर्माण में कुशल-अकुशल व शिक्षित-अशिक्षित दोनों ही वर्गों से उद्यमी आगे आएंगे, इससे ग्रामीण और शहरी दोनों ही स्तर पर आत्मनिर्भरता बढ़ेगी। यदि हम उत्तम किस्म के डिजिटल-गेम्स बनाने में सफल होते हैं तो इन्हें दुनिया की विभिन्न भाषाओं में डब करके निर्यात के नए द्वार खुलेंगे।
वर्तमान में देश में खिलौनों का बजार 1.7 अरब अमेरिकी डॉलर का है। जिसमें से हम 1.2 अरब डॉलर के खिलौने आयात करते हैं। दरअसल दुनिया में खिलौनों की मांग हर साल औसत करीब पांच फीसदी बढ़ रही है, वहीं भारत में खिलौनों की मांग में 10 से 15 प्रतिशत इजाफे की उम्मीद है। दरअसल भारत में संगठित खिलौना बाजार शुरुआती चरण में है। फन स्कूल इंडिया कंपनी की इस बाजार में प्रमुख भागीदारी है। यह कंपनी विदेशी खिलौनों का वितरण भी भारत में करती है। इनमें हेसब्रो, लोगो, डिज्नी, वार्नर ब्रदर्स, टाकरा-टोमी और रेवेंसबर्ग ब्रांड्स शामिल हैं। फिलहाल भारत में संगठित खिलौना बाजार खुदरा मूल्यों के आधार पर करीब तीन हजार करोड़ रुपए का है। हम भारत में बने परंपरगत रंगों का उपयोग कर फ्लेम रिटार्डेंट जैसे खतरनाक रसायन से बच सकते हैं।
भारतीय गुणवत्ता परिषद् (क्यूसीआई) की एक रिपोर्ट ने खिलौनों में जहर की आशंका जताई है। इस रिपोर्ट के अनुसार अनुसार भारत में आयात होने वाले 66.90 प्रतिशत खिलौने बच्चों के लिए खतरनाक हैं। सुरक्षा मानकों पर खरे नहीं उतरने के बाद भारत ने फिलहाल चीनी खिलौना कंपनियों के निर्यात पर फिलहाल पाबंदी लगाई हुई है। सरकार को इस उद्योग को बढ़ावा देने के लिए नीतियों को उदार बनाने के साथ प्रशासन की जो बाधाएं पैदा करने की मानसिकता है, उस पर भी अंकुश लगाना होगा।