शमीम शर्मा
जब भी देश के बड़े आदमियों की लिस्ट बनती है तो उसमें एकाध महिला का नाम भी सम्मिलित होता है। सवाल है कि आदमियों की लिस्ट में महिलाओं का क्या काम और फिर बड़े आदमियों की लिस्ट बनती है तो साथ ही बड़ी महिलाओं की लिस्ट क्यों नहीं बनती? बचपन से ही हमें बड़ा आदमी बनने का पाठ पढ़ाया जाता है और सपना दिखाया जाता है। पर किसी भी बिटिया को यह नहीं कहा जाता कि उसे बड़े होकर बड़ी औरत बनना है।
औरतों के बड़े होने पर किसी को आपत्ति क्यों है? आपत्ति हो न हो पर शक जरूर है। यह नहीं सोचते कि औरतें भी बड़ा काम करके बड़ी बन सकती हैं। और अपनी हिम्मत से जो औरतें बड़ी बन जाती हैं, उन्हें छोटा करने का काम पूरे जतन से किया जाता है। उन्हें ज्यादा चैलेंजिंग जाॅब देने से परहेज ही किया जाता है। कभी महकमों के बंटवारे पर सीनियर आईएएस महिलाओं से उनकी व्यथा सुनकर देखो। सतही तौर पर देखें तो लगता है कि स्थिति में सुधार हुआ है पर यह आटे में नमक के समान है। पुरुष मानसिकता में बड़ा बदलाव नहीं आया।
लिस्ट उनकी बनती है, जिन्हें गिना जा सकता है या जो इक्का-दुक्का हों। बड़ी औरतों की लिस्ट इसलिये नहीं बनती हो कि औरतें तो बड़ी ही होती हैं। जो आदमी अपनी औरत के अनुरोध पर पानी तक नहीं पिला सकता, वह बड़ा कैसे हो सकता है?
हाल ही में ‘शकुन्तला देवी’ फिल्म देखी जो ह्यूमन कंप्यूटर कही जाने वाली भारतीय महिला शकुन्तला के जीवन पर आधारित है। सेकेंडों में गणित के हर सवाल का तुरंत जवाब देने वाली शकुन्तला का एक डाॅयलाग दिल को छू गया। जब शकुन्तला की प्रतिभा देखकर उसकी बहन ने कहा कि तुम एक दिन बहुत बड़ी आदमी बनोगी तो उन्होंने बहन की बात को बीच में ही काट कर कहा कि मैं बड़ा आदमी नहीं, बड़ी औरत बनूंगी। इस पर बहन बोली—बड़ा आदमी ही होता है, बड़ी औरत तो होती ही नहीं।
आजकल की बेटियां भी लड़कों से कम नहीं हैं। इस पर एक मनचला बोला—हां क्या मजाल कि घर का काम कर लें।
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एक बर की बात है अक नत्थू तै देखणिये आ रे थे। देख-दाख कै आखिर मैं छोरी का ताऊ बोल्या—माफ करणा जी, हमनैं तो छोरा पसन्द नी आया। नत्थू का बाब्बू छोह मैं बोल्या—पसन्द तो हमनै भी कोनी, फेर के करां? घर तै काढ द्यां के?