जी. पार्थसारथी
भारत में इस बात को लेकर संशय और सवाल उठने लाजिमी थे कि यदि भारत सरकार जम्मू-कश्मीर में अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन करवाती है तो इस पर दुनिया की महत्वपूर्ण ताकतों की प्रतिक्रिया कैसी रहेगी। जाहिर था पाकिस्तान किसी भी देश की शिरकत पर तीखा एतराज उठाएगा और कुछ भी करके इस आयोजन में खलल डालना चाहेगा। भारत ने सावधानीपूर्वक और जान-बूझकर श्रीनगर में पर्यटन को बढ़ावा देने संबंधी विषय पर जी-20 के सदस्यों की बैठक रखी। आमतौर पर श्रीनगर को पर्यटकों का पसंदीदा स्थल कहा जाता है। अपने युवा विदेश मंत्री की अगुवाई में पाकिस्तान ने सभी देशों को श्रीनगर वाली बैठक में भाग लेने से गुरेज करवाने पर सारा जोर लगा दिया। जैसा कि पूर्वानुमान था, चीन ने श्रीनगर सत्र में भाग लेने से मना कर दिया और चार अन्य इस्लामिक यानी सऊदी अरब, मिस्र, इंडोनेशिया और तुर्की ने भी यही किया। हालांकि इंडोनेशिया और सऊदी अरब का प्रतिनिधित्व नई दिल्ली में नियुक्त उनके राजदूतों की उपस्थिति से रहा। तुर्की चूंकि दशकों से पाकिस्तान का तगड़ा समर्थक है, सो उसने भारत से कम दोस्ती निभाने का फैसला लिया।
कुछ हफ्ते पहले, राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल और उनके अमेरिकी समकक्ष जेक स्लीवन ने सऊदी अरब में वहां के युवराज मोहम्मद बिन सलमान और यूएई के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार शेख तहनून बिन ज़ायद से भेंटवार्ता की है। तेल संपन्न सऊदी अरब के साथ संबंध अच्छे बनाए रखने में अमेरिका का हित जुड़ा है, लेकिन राष्ट्रपति जो बाइडेन के एक कम सावधान और लचर बयान से रिश्तों पर विपरीत असर पड़ा है। हालांकि सऊदी अरब और ईरान के बीच संबंध सामान्य बनवाने में चीनी मध्यस्थता से अमेरिका हिल उठा है। जो अधिक हैरानकुन है, वह यह कि लगता है अमेरिका को ईरान के प्रति दुश्मनी जारी रखने में ज्यादा आनंद आता है। पिछले चार दशकों से अमेरिका के निरंतर विरोधी रवैये के बावजूद ईरान फला-फूला है। फारस का खाड़ी क्षेत्र, जहां लाखों भारतीय कामगार रहते हैं, वहां के तेल संपन्न राष्ट्रों के साथ चीन के प्रभाव का उद्भव होना वह घटनाक्रम है जिसको लेकर भारत शायद ही आशावादी हो। भारत के पश्चिमी पड़ोस में दो सबसे मुख्य मुल्क यानी यूएई और सऊदी अरब के साथ भारत-अमेरिका संयुक्त वार्तालाप से उम्मीद है इस क्षेत्र में सुरक्षा, स्थायित्व और आपसी सहयोग बढ़ेगा। इस वार्ता में बनी आपसी समझ को सावधानीपूर्वक विस्तार देकर यू2आई2 समूह (जिसमें भारत, अमेरिका, इस्राइल, और यूएई हैं) के साथ एकीकृत किया जाएगा। वह क्षेत्र जहां लगभग 81 लाख प्रवासी भारतीय रहते हैं, अकेले यूएई में ही लगभग 34 लाख भारतीय हैं, वहां की सुरक्षा, स्थायित्व और शांति बने रहना, जाहिर है भारत के लिए काफी महत्व रखती है।
इस तमाम घटनाक्रम के बीच, भारत को थलीय और जलीय सीमाओं पर जो मुख्य सुरक्षा चुनौतियां दरपेश हैं, वह चीन की शी जिनपिंग सरकार के निरंतर दुश्मनी व भारत विरोधी कृत्यों से पैदा हुई है। चीनी करतूतों से भारत के सामने बने खतरों को पश्चिमी कमान के पूर्व कमांडर जनरल पनाग ने कुशलतापूर्वक शब्दों में समेटा है। लद्दाख में महीनों तक चली तनातनी और मुठभेड़, जो कि वर्ष 2020 में शुरू हुई थी, जनरल पनाग इसको वर्ष 1959 में घोषित एकतरफा चीनी सीमारेखीय दावों की ओर लौटने की जिद से जोड़ते हैं। लेकिन भारत की कड़ी टक्कर से चीन को अपने इरादों में पर्याप्त सफलता नहीं मिल पाई। चीन के साथ सीमा तनावों में पिछले तीन सालों में इजाफा हुआ है। 2020 का चीनी हमला, जो जाहिर है सुनियोजित था, उत्तरी लद्दाख के कुछ इलाकों को उसने दबा लिया है। भारत ने अपनी प्रतिक्रिया में अतिरिक्त बलों की नियुक्ति करते हुए सामरिक महत्व की कैलाश पर्वतमाला की पहाड़ियों पर सुदृढ़ नियंत्रण बना लिया। साफ है चीन को इस तरह के कदम की आस नहीं थी।
इसके बाद से, वरिष्ठ क्षेत्रीय सैन्य कमांडरों के बीच बैठकें तो होती रहीं किंतु यथा-स्थिति में कोई बदलाव नहीं हुआ है। सबसे महत्वपूर्ण यह है कि इलाका कब्जाने की चीनी कोशिशें निरंतर जारी हैं। भारत ने पाएदार प्रतिक्रिया में, अरुणाचल प्रदेश के त्वांग इलाके में भूमि दबाने के चीनी प्रयासों को सफलतापूर्वक निष्फल किया है। भारत-चीन सीमाओं पर तनाव आगे भी बने रहने के कयास हैं। चीन का निशाना एकदम साफ है कि वह लद्दाख और अरुणाचल प्रदेश में भारतीय फौज को दुरूह और अत्यंत ठंडे इलाके में फंसाए रखना चाहता है। चीजें तभी बदलेंगी जब चीन को अहसास हो कि उसकी ‘सलामी कटिंग’ नीति (छोटे-छोटे हिस्सों में भारतीय इलाका हड़पना) से भारत के रूस, अमेरिका और जापान से बढ़ते रिश्तों पर बदलाव नहीं आने वाला न ही इससे हिंद-प्रशांत महासागरीय क्षेत्र को लेकर, भारत का क्वाड और यू2आई2 जैसे समूहों के साथ आर्थिक एवं रक्षा गठबंधन बनाने के दृढ़-निश्चय पर कोई असर होने वाला है। बल्कि भारत ने शंघाई सहयोग संगठन और ब्रिक्स जैसे संगठन (जिसके सदस्य रूस और चीन भी हैं) की सदस्यता लेकर अपने इन प्रयासों में आगे विस्तार किया है।
चीन का नेपाल में भी भारत का प्रभाव घटाने को लेकर दृढ़-संकल्प बना हुआ है और नेपाल के राजनीतिक वर्ग के एक वर्ग को डोरे डाल रहा है। हालांकि कहने से ज्यादा यह कर दिखाना मुश्किल है क्योंकि समुद्र तट विहीन नेपाल और इसके लोग भारत पर काफी निर्भर हैं। जहां भारत और भूटान काफी लंबे समय से चली आ रही संधि पर प्रतिबद्ध हैं वहीं चीन अब भूटान के साथ सीमा संधि करके अपनी पैठ बनाना चाहता है। चीन के साथ वार्ता को आगे बढ़ाते वक्त वह भारत के साथ अपने आर्थिक, सांस्कृतिक व आध्यात्मिक संबंधों और भारतीय चिंताओं के प्रति संवेदनशील है। सबसे महत्वपूर्ण, भारत के साथ पाकिस्तान के टकराव को हवा देने के सिलसिले में चीन उसे रिवायती हथियारों की दिल खोलकर आपूर्ति करने के अलावा उसके परमाणु एवं मिसाइल कार्यक्रम में मदद करता आया है। चीन भारत की सामरिक रूप से घेराबंदी करने की नीति में काफी लंबे अर्से से लिप्त है। यह एक हकीकत है, इसका मुकाबला करने को दीर्घ-कालिक तैयारी रखे।
लंबे समय से, चीन की ओर से जो चुनौतियां बनती आई हैं, उस पर भारत के प्रतिक्रियात्मक प्रयास धीरे-धीरे गति पकड़ रहे हैं। इसके तहत, रूस से अच्छे संबंध कायम रखना है, भले ही पश्चिमी जगत एतराज करे, जो कि यूक्रेन युद्ध के बाद काफी बढ़ गए हैं। भारत का मानना है कि यूक्रेन के इलाकों पर रूसी कब्जा अनिश्चितकाल तक नहीं बना रह सकता और यह भी कि युवा और महत्वाकांक्षी यूक्रेनी राष्ट्रपति जेलेंस्की अपने इरादों को पूरा करने की जल्दी में अमेरिका के साथ पींगें बढ़ाने में कुछ ज्यादा ही आगे निकल गए और उसकी शह पाकर क्रीमिया पर नियंत्रण बनाना चाहा। चीन, जिसने रूस-यूक्रेन युद्ध में मध्यस्थता करने की पेशकश की है, उसे पता चल जाएगा कि यूक्रेन मसले का कोई भी हल तब तक नहीं मिल पाएगा जब तक कि क्रीमिया में रूस के महत्वपूर्ण हितों और दक्षिणी यूक्रेन में रूसी मूल के लोगों की समस्या का कोई समाधान न हो। रूस और यूक्रेन के बीच रिश्तों में जो कड़वाहट बनी है उसका फायदा उठाकर अमेरिका निकट भविष्य में रूस को नाथना चाहता है, जो कि असंभव काम है। इसी बीच, भारत के सामने यह मुश्किल कार्य होगा कि इस साल के अंत में देश में होने जा रहे जी-20 शिखर सम्मेलन की सफलता पर न तो चीन के साथ अपने सीमा संबंधी विवादों की छाया पड़ने दे और न ही उस गुटबंटी की, जिसमें एक ओर चीन-रूस है तो दूसरी ओर अमेरिका और उसके यूरोपियन सहयोगी मुल्क।
लेखक पूर्व वरिष्ठ राजनयिक हैं।