अनूप भटनागर
उग्र भीड़ या कुछ व्यक्तियों के समूह द्वारा लोगों की पीट-पीट कर हत्या करने की घटनाओं को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से सही ठहराने के प्रयास कानून व्यवस्था के लिए ही नहीं बल्कि न्यायिक व्यवस्था के लिए भी चुनौती बन रहे हैं। इस तरह की कोई भी घटना, चाहे वह लखीमपुर खीरी की हो या फिर राजस्थान के हनुमानगढ़ या अलवर की हो, निंदनीय और शर्मनाक है। इस तरह की बर्बर घटनाओं को सही ठहराना या इसे क्रिया की प्रतिक्रिया का नाम देना उच्चतम न्यायालय की 2018 की व्यवस्था को चुनौती देने जैसा है।
देश की शीर्ष अदालत ने बार-बार कहा है कि संविधान में प्रदत्त जीने का अधिकार बेशकीमती है और प्रत्येक नागरिक को गरिमा के साथ जीने का अधिकार है। इस अधिकार के प्रति किसी प्रकार का समझौता नहीं किया जा सकता। स्पष्ट न्यायिक व्यवस्थाओं के बावजूद संकीर्ण और दकियानूसी सोच वाले वर्ग पर इसका ज्यादा असर नहीं पड़ रहा है। किसी असहाय व्यक्ति को पीट-पीट कर उसकी हत्या करने, जिसे लिंचिंग भी कहते हैं, की घटना में तत्काल प्राथमिकी दर्ज होनी चाहिए। न्यायालय की व्यवस्था है कि पुलिस को ऐसे मामले में तत्काल प्राथमिकी दर्ज करनी चाहिए और ऐसे मामलों की सुनवाई भी त्वरित अदालतों में होनी चाहिए, जहां यह कार्यवाही छह महीने के भीतर पूरी की जानी चाहिए। लेकिन इस तरह की घटनाओं में ऐसा नहीं होता है। इस तरह की किसी भी घटना पर शुरू में पर्दा डालने या फिर ढुलमुल रवैया अपनाने का प्रयास होता है, लेकिन जब मामला तूल पकड़ लेता है तो पुलिस प्राथमिकी दर्ज करके कार्रवाई शुरू करती है।
लखीमपुर में पीटकर चार व्यक्तियों की हत्या की घटना को क्रिया की प्रतिक्रिया बताने वाले किसान नेताओं के खिलाफ अभी तक कार्रवाई क्यों नहीं हुई? ऐसे बयानों के बावजूद बयानवीरों के खिलाफ कार्रवाई नहीं होना भविष्य के लिए एक बड़ी चुनौती बन सकता है।
यह दुर्भाग्यपूर्ण ही है कि तथ्यों की जानकारी के बगैर ही इसे सांप्रदायिक रंग देने के लिए राजनीति शुरू हो जाती है। आज भी देश के विभिन्न ग्रामीण इलाकों में अक्सर ही बच्चा चोरी करने, काला जादू करने, मवेशी या वाहन चोरी करने के संदेह में ग्रामीणों द्वारा संदिग्ध चोर को पीट-पीट कर अधमरा कर देने या फिर उसकी हत्या कर देने की घटनाएं होती रहती हैं। आजकल तो गौरक्षा के नाम पर या फिर गौमांस का सेवन करने के संदेह मात्र पर ही कुछ लोग कानून अपने हाथ में लेने में संकोच नहीं कर रहे हैं। स्थिति यह है कि भीड़तंत्र में लगातार कुछ लोग कानून अपने हाथ में ले रहे हैं। कुछ लोग इस तरह की बर्बर घटनाओं को सही ठहराने का प्रयास भी करते हैं।
उच्चतम न्यायालय ने भीड़ द्वारा कानून अपने हाथ में लेने और असहाय व्यक्ति की पीट-पीट कर हत्या करने जैसे जघन्य अपराध के मामले में कड़ा रुख अपनाया था और 17 जुलाई, 2018 को केंद्र और राज्य सरकारों को इन पर प्रभावी तरीके से काबू पाने के निर्देश दिये थे।
न्यायालय ने ऐसे मामलों में तत्काल प्राथमिकी दर्ज करने का निर्देश देने के साथ ही लिंचिंग के मुकदमों की सुनवाई छह महीने के भीतर पूरी करने पर जोर दिया था। न्यायालय ने दोषियों को संबंधित धाराओं में प्रदत्त अधिकतम सज़ा देने को कहा था।
न्यायालय ने केन्द्र और राज्य सरकारों से कठोर शब्दों में कहा था कि लोकतंत्र में भीड़तंत्र बर्दाश्त नहीं है और सरकारें ऐसे मामलों को नजरअंदाज नहीं कर सकतीं। उन्हें ऐसे मामलों में सख्त कार्रवाई करनी ही होगी।
न्यायालय का कहना था कि समाज के व्यवहार को नियंत्रित करने के लिए कानून बनाए जाते हैं और इन्हें लागू करना कानून पर अमल करने वाली एजेंसियों का कर्तव्य है। फैसले में कहा गया था कि कानून अपने हाथ में लेने वाले संगठन या समूह यह भूल जाते हैं कि किसी को भी अपनी मर्जी के माफिक इसे अपने हाथ में लेने की अनुमति नहीं है।
शीर्ष अदालत ने एहतियाती उपायों के तहत राज्य सरकारों को प्रत्येक जिले में पुलिस अधीक्षक स्तर के वरिष्ठ अधिकारी को नोडल अधिकारी बनाने का निर्देश दिया था। साथ ही पुलिस उपाधीक्षक स्तर के अधिकारी को जिले में भीड़ की हिंसा गतिविधियों की रोकथाम के लिए नोडल अधिकारी की मदद करने की जिम्मेदारी सौंपी गयी थी। न्यायालय ने हिंसक घटनाओं में संलिप्त होने की संभावना वाले समूहों और संगठनों के बारे में खुफिया जानकारी एकत्र करने के लिए विशेष कार्यबल गठित करने का भी निर्देश दिया था।
शीर्ष अदालत के इतने स्पष्ट निर्देशों के बावजूद देश के विभिन्न हिस्सों में लिंचिंग की घटनाएं बदस्तूर जारी हैं और इनके वीडियो क्लिप भी सोशल मीडिया पर आते हैं।
इन घटनाओं के मद्देनजर जरूरी है कि पुलिस और प्रशासन अपनी जिम्मेदारी समझें और स्थानीय स्तर पर अपना खुफिया तंत्र सुदृढ़ करें ताकि हिंसक प्रवृत्ति वाले समूहों और संगठनों का पहले से पता लगाया जा सके और उनकी गतिविधियों पर प्रभावी तरीके से अंकुश लगाया जा सके।