अखिलेश आर्येन्दु
वैदिक काल गणना का इतिहास विश्व की अन्य काल गणनाओं में सबसे अधिक प्राचीन, वैज्ञानिक, गणतीय, तार्किक और शास्त्रीय है। वेदों में काल गणना का जितना वैज्ञानिक, विशद और सूक्ष्म चिंतन किया गया है, वह आज के विज्ञान के मुताबिक भी तार्किक, प्रामाणिक और तथ्यपरक है। अन्य काल गणनाओं में वैज्ञानिकता, तार्किकता और प्रामाणिकता नहीं है। वे किसी न किसी महापुरुष, किसी घटना या जन्म दिन से शुरू होती है, जिसमें समय के बारे में चिंतन की सूक्ष्मता नहीं है। इन काल गणनाओं में खगोलीय पक्ष भी वैज्ञानिक व शास्त्रीय नहीं है। ज्ञान परम्परा में नववर्ष चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को माना जाता है। इस दिन सृष्टि की शुरुआत हुई। काल के प्रारम्भ के साथ आयु की गणना की शुरुआत भी इस दिन से हुई।
ऋग्वेद के नासदीय सूक्त के मुताबिक सृष्टि के पहले सतzwj;् नहीं था और असतzwj;् भी नहीं था। न धरती बनी थी और न आकाश ही बना था। न मृत्यु थी न अमरत्व था। यानी कुछ भी नहीं था। चित्रा नक्षत्र से ताल्लुक रखने वाले चैत्र मास की प्रतिपदा को गणितीय गणना के मुताबिक यह शून्य की स्थिति थी। और इसलिए सृष्टि की शुरुआत की गणना पूरी तरह वैज्ञानिक है। जो सृष्टि चल रही है उसकी आयु 1 अरब 97 करोड़, 58 लाख 85 हजार एक सौ चौबीस वर्ष हो चुकी है। आधुनिक विज्ञान के मुताबिक भी सृष्टि की आयु यही है। लेकिन यह मानव का आविर्भाव काल नहीं है। मनुष्य का इस धरती पर जन्म वर्तमान चतुर्युगी माना जाता है। इसकी गणना इस प्रकार की गई है, जिसमें 4,32,00,00,000 सौर वर्ष का ब्रह्मा का दिन माना गया है। पूर्ण ब्रह्म को 14 मन्वंतरों में बांटा गया है। इन मन्वन्तरों में से छह बीत चुके हैं। 28वीं चतुर्युगी का सतzwj;्युग, त्रेतायुग, द्वापरयुग बीत चुके हैं। और कलियुग के 5119 वर्ष बीत चुके हैं। सृष्टि रचना का कार्य तब शुरू होता है जब परमाणुओं की साम्यावस्था भंग होती है। सूर्य सिद्धांत के मुताबिक ब्रह्मा को सृष्टि की रचना करने में 47,400 दिव्य वर्ष लगे थे। गौरतलब है देवताओं का एक वर्ष (एक दिव्य वर्ष) हमारी पृथ्वी के 360 सौर वर्ष के बराबर होता है।
नव संवत्सर का वर्णन वेदों से लेकर आधुनिक काल गणना के ग्रंथों में पाया जाता है। इससे जो घटनाएं, धार्मिक अनुष्ठान, जीवन दर्शन और सांस्कृतिक संबंध जुड़े हैं, वे सहज रूप से हमारे जीवन, समाज, कला, अध्यात्म और विज्ञान से भी जुड़े हैं। नवरात्र में नव दिनों में किए जाने वाले व्रत उपवास और फिर रामनवमी पर भगवान राम के प्रति आस्था, श्रद्धा, उनके जीवन से लिए जाने वाली प्रेरणाएं और आत्मोन्नति का रास्ता भी इस विशेष अवसर से जुड़ा हुआ है। संस्कृत के तमाम ग्रंथों में नव संवत्सर मानव चेतना की नूतनता की अभिव्यक्ति है। यदि हम अपने जीवन में नवीनता, मौलिकता और उत्तमता को अपनाएं तो नववर्ष हमारे जीवन का आधार हो सकता है।
आयुर्वेद में बारह महीनों के लिए अलग-अलग तरह के आहार-विहार बताए गए हैं। हर तीन महीने में ऋतु में बदलाव आ जाता है। चैत्र यानी अप्रैल में ठंड खत्म हो जाती है और गर्मी की शुरुआत होने लगती है। प्रकृति में खास तरह का बदलाव देखने में आता है। हर तरफ नयापन, नव उल्लास और नई तिथि का नये भाव के साथ हम स्वागत करते हैं। एक-दूसरे के प्रति आनंद का भाव भी इस नयेपन में दिखाई देता है। महीने का शुक्ल पक्ष कृष्ण पक्ष की अपेक्षा अधिक सकारात्मक ऊर्जा वाला होता है। सृष्टि की जब शुरुआत हुई तब से अब तक चैत्र माह की शुक्ल प्रतिपदा का महत्व कई रूपों में रहा है। ऋतु बदलाव के कारण इसमें खास तरह के आहार-विहार करने का विधान आयुर्वेद में बताया गया है। इसी के साथ पर्यावरण की शुद्धि, आत्मशुद्धि, शरीरशुद्धि और मनशुद्धि का भी अवसर इस खास महीने में होता है।
यदि इंसान धरती और स्व-अस्तित्व को सुरक्षित व प्रवृद्ध रखना चाहता है तो उसे सृष्टि के विभिन्न घटकों- धरती, जल, हवा, अग्नि, आकाश को प्रदूषण से मुक्त रखना होगा। नव-संवत्सर में समय को उसके विभिन्न अंगों- वर्ष, मास, तिथि, वार, नक्षत्र आदि के साथ पूजन करने का मकसद वक्त की महत्ता को समझाना है। यानी वक्त के सदुपयोग से फायदा और दुरुपयोग से नुकसान होता है।
नववर्ष का यह संदेश मानव जीवन के चहुंमुखी विकास, कल्याण और वैज्ञानिकता को बढ़ाने का दार्शनिक अवसर भी है।