सहीराम
आंदोलनकारी किसानों का भी कुछ समझ में नहीं आता जी! एक तरफ तो फैज का तराना गाएंगे कि वो वक्त करीब आ पहुंचा है जब तख्त गिराए जाएंगे, जब ताज उछाले जाएंगे। लगता है फैज साहब को तख्त गिराने और ताज उछालने में बड़ा आनंद आता था। शायद इसीलिए हम देखेंगे वाली नज्म में भी वे यही कहते मिलते हैं कि सब तख्त गिराए जाएंगे, सब ताज उछाले जाएंगे। हम देखेंगे वाली यह नज्म तो अब खैर आंदोलनकारियों का कौमी तराना ही बन गयी है। सीएए का विरोध करने वालों से लेकर कृषि कानूनों का विरोध करने वालों तक सब बदलाव की मुहिम गाते मिल जायेंगे।
इस नज्म को अगर कोई नहीं गाता है तो सिर्फ अपने को देशभक्त, राष्ट्रवादी कहने वाले। फैज के अपने मुल्क पाकिस्तान में भी इसी तरह के लोग इसे नहीं गाते थे। समानता होती है जी। अब ऐसे लोग तो दुनिया में होते नहीं, जिन्हें तख्तोताज की कोई चिंता ही न हो। अब तो तख्तोताज वाले इन्हें बचाने की चिंता में ही घुलते रहते हैं। सो जिनके पास तख्त और ताज होते हैं, उन्हें यह नज्म पसंद नहीं आती। इसे तो अहले सफा, मरदूदे हरम ही पसंद भी करेंगे और गाएंगे भी क्योंकि उन्हें उम्मीद बंधती है कि जब तख्त गिराए जाएंगे और ताज उछाले जाएंगे, तो मसनद पर उन्हीं को बिठाया जाएगा।
अब एक तरफ तो आंदोलनकारी किसान यह गा रहे थे कि तख्त गिराए जाएंगे, ताज उछाले जाएंगे और दूसरी तरफ वे यह भी गा रहे थे—पगड़ी संभाल जट्टा! यह भी अंग्रेजों के बनाए तीन कृषि कानूनों के खिलाफ चले आंदोलन का कौमी तराना था। वह आंदोलन पिछली सदी के शुरू में चला था, यह आंदोलन इस सदी के शुरू में चल रहा है। सौ-सवा सौ साल का फर्क है। लेकिन न सरकारों की सोच में कोई फर्क है और न सरकारों से लड़ने वालों के जज्बे में कोई फर्क है। किसान तब भी लुटते थे और किसान अब भी लुटते हैं। तब भगत सिंह के चाचा अजित सिंह उस आंदोलन की अगुवाई कर रहे थे, अब भगत सिंह के अनुयायी इस आंदोलन की अगुवाई कर रहे हैं।
झगड़ा तख्तोताज और पगड़ी का ही रहा है। तख्तोताज वाले अपने तख्तोताज को बचाने के लिए लड़ते हैं और पगड़ी वाले अपनी पगड़ी की लाज के लिए लड़ते हैं। लाज सिर्फ पगड़ी की होती है, तख्तोताज की नहीं होती। तख्तोताज की शान होती है। पगड़ी संभाल लहर से पहले मीर साहब ने यही कहा था-पगड़ी अपनी संभालिएगा मीर, कोई और शहर नहीं, यह दिल्ली है।