आलोक पुराणिक
आक्सीजन सिलेंडर की कालाबाजारी करने वाला एक बंदा बता रहा था कि वह बहुत ईमानदार कालाबाजारी है, सिर्फ सिलेंडर में रकम कमाता है, उसका एक दोस्त है, वह तो कोरोना की नकली दवा बेच रहा है।
असली सिलेंडर में ज्यादा कमाना पुण्य का काम है। नकली दवा में बहुत ज्यादा कमाना पाप का काम है। पाप और पुण्य की परिभाषाएं इधर नयी-नयी हो रही हैं। उस शहर की खबर थी कि पूरे अप्रैल महीने तक रिश्वतखोरी का एक भी केस सामने न आया। भ्रष्ट क्या दयालु हो गये हैं, न न न, भ्रष्ट डरालु हो गये हैं, एकैदम डर गये हैं। जो न डरे हैं, वो कालाबाजारी में लग गये हैं। रिश्वतखोरी न रही है, सिर्फ कालाबाजारी चल रही है। इसे बेहतरी माना जा सकता है क्या। खबरें आ रही हैं कि कोरोना नकदी नोटों से भी फैल रहा है। नोट और कवि सम्मेलन वाले कवियों का आना-जाना बहुत दूर-दूर तक रहता है। मेरे एक कवि मित्र बताते हैं—अभी छैलभोटरा ईंट-भट्टा एसोसिएशन द्वारा आयोजित कवि सम्मेलन से छैलभोटरा से लौटे हैं और रुकुनूझैंटा जाना है, कल वहां छोले-भटूरे एसोसिएशन ने कवि सम्मेलन रखा है। परसों खूंकटगंड शराब विक्रेता एसोसिएशन द्वारा आयोजित कवि सम्मेलन है खूंकटगंट में। कवि ईंट-भट्टे वालों से लेकर शराब वालों के बीच घूमता-टहलता रहता है और नोट भी। नोट अब तक फर्जी होते थे, नकली होते थे, पर अब कोरोनामय भी होने लगे हैं, ऐसे समाचार आये हैं। कविता अभी कोरोनामय न हो पायी है, कई कवि मित्र पाकिस्तान का संहार कविता के जरिये कर चुके हैं, अभी कोरोना-संहारक काव्य शक्ति के दर्शन होना बाकी है।
एक रिश्वतखोर ने बताया—अब कुछ रिश्वत-वैराग्य टाइप आ रहा है। मन में भाव उठ रहे हैं कि हाय क्यों कमायें, लोगों का दिल दुखाकर। नोट घर भी ले जायें, तो खर्च कहां करें। बाजार बंद पड़े हैं। नये कपड़े पहनें तो पहनकर जायें कहां, घनिष्ठ से घनिष्ठ परिचित-दोस्त दूर से नमस्कार कर रहे हैं। उस रिश्वतखोर में वैराग्य एक खबर पढ़कर जाग गया था। कोरोना से मृत पिता का अंतिम संस्कार करने से इनकार कर दिया था उसके पुत्र ने। पुत्र का तर्क था, यह तो निकल लिये, बाय चांस मुझे लग गया कोरोना, तो। बेटा बाप को बाप मानने से इनकार कर रहा है। श्मशान के दरवाजे पर शरीर छोड़कर भाग रहे हैं परिजन। हा हंत, क्या करना है रिश्वत का। कोरोना ने धर लिया तो बेटा भी बाप मानने से इनकार कर देगा। किसके लिए कमाना है, ऐसे सद्विचार कोरोना काल में कई भ्रष्टाचारियों के मन में आ गये हैं। कोरोना के कई साइड-इफेक्ट्स तो बहुत सकारात्मक हैं।
दिल्ली के आसपास के इलाकों में कई छोटे-बड़े भूकंप आ गये हैं। पर पब्लिक भूकंप के प्रति एकदम निस्पृह हो गयी, भूकंप का कोई नोटिस ही नहीं लिया जा रहा है। भूकंप की कोई चर्चा ही नहीं हो रही है।
यानी अगर बड़ा बवाल सिर पर खड़ा हो, तो छोटे मोटे बवालों से लोग बेखौफ हो जाते हैं। एकाध बड़ा बवाल बना रहे, तो छोटे-मोटे बवालों का भय खत्म हो लेता है।