आखिरकार राज्यपाल कलराज मिश्र राजस्थान विधानसभा का सत्र आहूत करने को मान गये। विधानसभा अध्यक्ष सी.पी. जोशी ने 14 अगस्त को सत्र आहूत करने की अधिसूचना भी जारी कर दी है। उम्मीद की जानी चाहिए कि प्रस्तावित विधानसभा सत्र में राजस्थान के राजनीतिक गतिरोध की तार्किक परिणति भी हो जायेगी। जैसा कि 1994 में एस.आर. बोम्मई केस में सर्वोच्च न्यायालय का ऐतिहासिक फैसला भी है, किसी भी सरकार के बहुमत का परीक्षण सदन में ही हो सकता है। बेशक राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत कई दिन से विधानसभा सत्र आहूत करने के लिए राज्यपाल को सरकार की ओर से प्रस्ताव भेज रहे थे, लेकिन एजेंडा में विश्वासमत परीक्षण लिखने से बच रहे थे। उधर, राज्यपाल किंतु-परंतु के सहारे विधानसभा सत्र आहूत करने की मांग को टाल रहे थे। दोनों ही तरफ अपने-अपने ज्ञात-गुप्त कारण थे, लेकिन अब जबकि 14 अगस्त को विधानसभा सत्र का मार्ग प्रशस्त हो गया है, राजस्थान का राजनीतिक नाटक शायद ज्यादा लंबा नहीं चल पायेगा। इस सत्र में इस स्वाभाविक सवाल का जवाब मिल जायेगा कि जादूगर कहे जाने वाले पुराने खिलाड़ी अशोक गहलोत को अब भी विधानसभा में बहुमत हासिल है या फिर महत्वाकांक्षी बागी युवा सचिन पायलट ने बाजी पलटने का इंतजाम पूरा कर लिया है।
बेशक इस पूरे खेल में एक खिलाड़ी बसपा भी बनने की कोशिश कर रही है, जिसके छह विधायकों को अशोक गहलोत ने अपनी राह निष्कंटक बनाने के लिए कांग्रेस में शामिल करा लिया था। अब जबकि पायलट की बगावत से गहलोत सरकार पर संकट के बादल घिरे हैं, तो बसपा सुप्रीमो मायावती भी राजस्थान में हुए उस दलबदल पर अचानक सक्रिय होकर न्यायपालिका पहुंच गयी हैं। दलबदल और बगावत के दांवपेंच विधानसभा अध्यक्ष से लेकर न्यायपालिका तक कितने लंबे चलेंगे, और उनकी अंतिम परिणति क्या होगी—वर्तमान परिस्थितियों में कह पाना आसान नहीं, लेकिन इस खेल में प्रत्यक्ष खिलाड़ियों के अलावा सूत्रधारों की भूमिका भी साफ महसूस की जा सकती है। हमारी राजनीति नीति और नैतिकता से हटकर नाटकीयता की ओर बढ़ रही है, इसलिए उसमें सूत्रधारों की भूमिका महत्वपूर्ण होते जाना भी स्वाभाविक ही है, पर क्या यह समाज, देश और लोकतंत्र के हित में भी है? माना कि लोकतंत्र भी एक शासन प्रणाली ही है, जिसमें चुनाव के जरिये सत्ता सिंहासन की हार-जीत का फैसला होता है, लेकिन चुनाव से इतर भी हार को जीत और जीत को हार में बदलने के लिए जो खेल अब खेले जाने लगे हैं, उनसे तो दरअसल लोकतंत्र के ही सत्ता के खेल में तब्दील हो जाने का खतरा मंडरा रहा है।
लोकतंत्र में मतदाता को प्राथमिक इकाई माना गया है। मतदाता को ही यह अधिकार भी दिया गया है कि तमाम राजनीतिक दलों-उम्मीदवारों के चुनाव घोषणापत्रों, वादों और आचरण के आधार पर मतदान के जरिये वह सत्तापक्ष और विपक्ष की भूमिका के लिए जनादेश दे। चुनाव परिणाम के बाद जनादेश के सम्मान की बात भी सभी दल-नेता कहते हैं, लेकिन कई बार उनका आचरण उनके कथन के एकदम उलट नजर आता है। वर्ष 2018 में हुए छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और राजस्थान के विधानसभा चुनावों में मतदाताओं ने भाजपा से छीन कर सत्ता कांग्रेस को सौंपी थी। जाहिर है, लंबे सत्ता सुख के बाद भाजपा को वापस विपक्ष की भूमिका मिली थी। छत्तीसगढ़ में कांग्रेस को स्पष्ट बहुमत मिला था, तो राजस्थान में कामचलाऊ, जबकि मध्य प्रदेश में सावधानी हटी, दुर्घटना घटी वाली स्थिति थी। इसी बीच 2019 में हुए लोकसभा चुनाव में इन तीनों राज्यों के मतदाताओं ने कांग्रेस से किनारा करते हुए नरेंद्र मोदी के नाम पर भाजपा के पक्ष में जबर्दस्त जनादेश दिया। मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की जीत का श्रेय लेने वाले ज्योतिरादित्य सिंधिया खुद लोकसभा चुनाव हार गये। हारे भी अपने ही एक पूर्व समर्थक से, जो बगावत कर भाजपाई हो गया।
सिंधिया राज परिवार से आते हैं। बिना सांसद बने भी उनका रुतबा कुछ कम नहीं रहता, लेकिन उन्होंने इच्छा जतायी कि कांग्रेस वर्ष 2020 में होने वाले राज्यसभा चुनाव में उन्हें प्रत्याशी बनाये। इसमें भी समस्या नहीं होती, पर सिंधिया की राह रोकने के लिए मुख्यमंत्री कमलनाथ और पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह एकजुट हो गये। दिग्विजय खुद तो राज्यसभा में पुन: आना चाहते ही थे, दूसरी सीट के लिए उन्होंने प्रियंका गांधी का नाम चला दिया। यहां तक यह कांग्रेस का आंतरिक संकट ही था, लेकिन भाजपा उसे अपने लिए सत्ता के अवसर में बदलने में जुट गयी। अंतत: जो हुआ, सबके सामने है। प्रदेश-देश कोरोना संकट से जूझ रहा है, पर इसी बीच सिंधिया की बगावत को हर संभव हवा देकर भाजपा ने कांग्रेस को सत्ता से बेदखल कर शिवराज सिंह चौहान के नेतृत्व में अपनी सरकार की ताजपोशी करा दी। मंत्रिमंडल में सिंधिया समर्थकों का दबदबा खुद पुराने भाजपाइयों को हजम नहीं हो पा रहा, पर सत्ता के खेल में सब चलता है।
मध्य प्रदेश प्रकरण के समय ही यह अटकलें लगायी जाने लगी थीं कि अगली बारी राजस्थान की है। कांग्रेस ने सचिन पायलट की अध्यक्षता में विधानसभा चुनाव लड़ा और जीता था, लेकिन अंतिम क्षणों में मुख्यमंत्री बन गये अशोक गहलोत। पायलट को उपमुख्यमंत्री पद पर संतोष करना पड़ा, पर दोनों के बीच रार जारी रही। सिंधिया के झटके के बाद पायलट ने भी मुख्यमंत्री बनने के लिए दबाव बढ़ाया तो गहलोत को उनमें अपने बेटे वैभव की राह का रोड़ा नजर आया। कांग्रेस आलाकमान एक बार फिर अपने आंतरिक संकट को सुलझाने में नाकाम दिखा तो भाजपा फिर उसे अपने लिए अवसर में बदलने में जुट गयी। जयपुर से गुरुग्राम-मानेसर तक जो बिसात बिछी, वह दरअसल इसी सत्ता के खेल की है। राजस्थान में सत्ता के इस खेल की जो भी अंतिम परिणति हो, पर वह आखिरी खेल तो नहीं होगा। इसलिए भी कि यह खेल नया नहीं है। राजभवनों के अघोषित राजनीतिकरण के बाद केंद्र में सत्तारूढ़ दल विरोधी दलों की राज्य सरकारों को येन-केन-प्रकारेण गिराने के खेल में सिद्धहस्त हो गये हैं।
वैसे इस खेल की शुरुआत भी कांग्रेस ने ही की थी, वह भी बहुत पहले 1959 में। उसके बाद जोड़तोड़, दलबदल और राजभवनों का दुरुपयोग कर गैर-कांग्रेसी राज्य सरकारें गिराने और अपनी या कठपुतली सरकार बनाने के उदाहरणों की फेहरिस्त बहुत लंबी है। इसलिए आज जब कांग्रेसी किसी राज्यपाल पर भाजपाई कार्यकर्ता की तरह व्यवहार करने का आरोप लगाते हैं तो आश्चर्यमिश्रित वितृष्णा ज्यादा होती है। तब देश पर कमोबेश एकछत्र राज के दंभ में कांग्रेस ने संवैधानिक-लोकतांत्रिक संस्थाओं से जैसा खिलवाड़ किया, उसी का खमियाजा उसे अब अपने दुर्दिनों में भुगतना पड़ रहा है, पर भाजपा को तो उन गलतियों की पुनरावृत्ति करने के बजाय कांग्रेस के हश्र से सबक सीखना चाहिए। बेशक 1984 की दो लोकसभा सीटों से 2019 में 303 सीटों तक पहुंच जाने में भाजपा की सकारात्मक भूमिका भी रही होगी, पर उसमें कांग्रेस की कारगुजारियों का योगदान कम नहीं । इसके बावजूद भाजपा राज्य-दर-राज्य न सिर्फ लोकतंत्र को सत्ता का खेल बना रही है, बल्कि कांग्रेस मुक्त भारत के नारे के बीच कांग्रेसियों को भी अपना मोहरा बना रही है, वह नीति-नैतिकता नहीं, विशुद्ध अवसरवादी आचरण है। स्वाभाविक ही इस खेल से भाजपाशासित राज्यों की संख्या फिर बढ़ जायेगी और कांग्रेसशासित राज्यों की संख्या सिमट जायेगी, लेकिन लगातार दो लोकसभा चुनावों में मिले अप्रत्याशित जनादेश से फर्श से अर्श पर पहुंची भाजपा की छवि पर जो दाग लगेंगे, उन्हें मिटा पाना संभव नहीं होगा। कांग्रेस जैसा ही आचरण कर भाजपा उसका बेहतर विकल्प बनने का दम नहीं भर सकती।
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