राजकुमार सिंह
भले ही बिहार विधानसभा चुनाव में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन यानी राजग और महागठबंधन के बीच मुख्य मुकाबला नजर आ रहा हो, पर चुनाव पश्चात संभावित परिदृश्य अभी भी अबूझ पहेली-सा दिख रहा है। चुनाव कार्यक्रम की घोषणा के समय संभावित चुनावी परिदृश्य में जद(यू) भाजपा के राजग की बढ़त नजर आ रही थी, लेकिन आज यह बात दावे से नहीं कही जा सकती। मतदान के पहले चरण से पहले ही परिदृश्य में आया बदलाव आने वाले दिनों में भी रंग बदलेगा ही। वर्ष 2014 में मोदी लहर पर सवार भाजपा का विजय रथ जिन राज्यों में लड़खड़ा-सा गया था, उनमें बिहार भी था। मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाये जाने से खफा बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने जद (यू ) का भाजपा से 17 साल पुराना गठबंधन तोड़ दिया था और वापस उन्हीं लालू प्रसाद यादव के राजद से हाथ मिला लिया था, जिनके जंगलराज के विरोध में जनता दल बिखरता गया और बिहार की राजनीति भी बदलती रही। लोकसभा चुनाव में केसरिया रंग में रंगे नजर आये बिहार के मतदाताओं ने विधानसभा चुनाव में दो धुर विरोधियों : लालू-नीतीश के गठबंधन को स्पष्ट बहुमत देकर बता दिया कि उनमें हर चुनाव में परिस्थिति और उपलब्ध विकल्पों के मद्देनजर फैसला करने का विवेक है।
राजद के अधिक सीटें जीतने के बावजूद नीतीश को मुख्यमंत्री बना कर लालू यादव ने भी अपनी छवि से उलट व्यवहार से विवेक का ही संकेत दिया, लेकिन लंबी दुश्मनी के बाद फिर दोस्त बने लालू-नीतीश की ज्यादा निभी नहीं। बीच राह राजद का साथ छोड़ फिर भाजपा से हाथ मिलाने वाले नीतीश ने कारणों का खुलासा कभी नहीं किया। राजद के कोटे से उनके साथ उपमुख्यमंत्री रहे लालू पुत्र तेजस्वी यादव ने भी अभी तक राज को राज ही रहने दिया है, पर कुछ तो ऐसा हुआ होगा कि जिन मोदी ने नीतीश के डीएनए पर ही सवाल उठा दिया था, तमाम तल्ख बयानी के बावजूद फिर उन्हीं से गलबहियां करनी पड़ीं। हां, यह अवश्य है कि बीच कार्यकाल में समीकरण बदल कर बदली सरकार के इस गठबंधन पर पिछले साल लोकसभा चुनाव में मतदाता अपनी स्पष्ट मुहर लगा चुके हैं, पर अब चुनाव केंद्र की नहीं, बिहार की सत्ता के लिए हो रहे हैं, जहां बदले समीकरणों के साथ ही सही, राजद-कांग्रेस का महागठबंधन टक्कर देने को तैयार है।
नीतीश सरकार में भाजपा की भागीदारी होने तथा पिछले साल लोकसभा चुनाव मिलकर लड़ने के बावजूद मोदी सरकार में जद(यू) की हिस्सेदारी न होने के अलावा दोनों के रिश्तों में किसी खिंचाव का कोई साफ संकेत नहीं मिलता। वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में महज दो सीटों पर सिमट गये जद(यू) को पिछले साल हुए लोकसभा चुनाव में लगभग बराबरी का हिस्सा देने वाली भाजपा ने इन विधानसभा चुनावों में प्रतीकात्मक तौर पर ही सही, एक सीट कम लेकर जूनियर पार्टनर की भूमिका स्वीकार कर ली है। इसे भी दोनों दलों में समझदारी का संकेत माना जा सकता है, लेकिन राजनीति में जो दिखता है, वह अक्सर होता नहीं है। इसीलिए फिल्म अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की मौत के प्रकरण से लेकर दिवंगत केंद्रीय मंत्री दिग्विजय सिंह की पुत्री श्रेयसी सिंह को टिकट देने और राजग में रहते हुए भी लोजपा को अलग विधानसभा चुनाव लड़ने देने तक ऐसा बहुत कुछ हुआ है, जिससे इस आशंका को बल मिलता है कि भाजपा सुशासन बाबू कहलाने के शौकीन नीतीश को शीर्षासन कराने की रणनीति पर भी चल रही है।
बेशक हर राजनीतिक दल अपना जनाधार बढ़ाना चाहता है। फिर भाजपा को तो जूनियर पार्टनर से शुरुआत कर सीनियर पार्टनर बन जाने की रणनीति में महारत हासिल है। महाराष्ट्र में शिवसेना के साथ भाजपा ने दशकों पहले जूनियर पार्टनर की भूमिका में गठबंधन राजनीति शुरू की थी, लेकिन देखते-देखते भूमिकाएं बदल गयीं। रिश्तों में आया यह बदलाव अंतत: अलगाव का कारण भी बना और शिवसेना ने प्रतिशोध स्वरूप उसी कांग्रेस से हाथ मिलाकर सरकार बना ली, जिसकी राजनीति के विरोध में कभी बाला साहब ठाकरे ने शिवसेना बनायी थी। नहीं भूलना चाहिए कि सोनिया गांधी के विदेशी मूल के मुद्दे पर अपनी अलग राकांपा बनाने वाले शरद पवार भी मूलत: कांग्रेसी ही हैं। दशकों तक लोकदल-इनेलो की जूनियर पार्टनर रही भाजपा ने 2014 की मोदी लहर में हरियाणा में तो अकेले दम सरकार बनाने का चमत्कार कर दिया, पर जनाधार बढ़ाने और भूमिकाएं बदलने की यह कोशिश पंजाब में, नये कृषि कानून के मुद्दे पर ही सही, एक और पुराने मित्र शिरोमणि अकाली दल से अलगाव का आधार ही बनी।
इन अनुभवों-उदाहरणों के मद्देनजर भी बिहार में भाजपाई रणनीति अबूझ पहेली बनती जा रही है। चुनाव कार्यक्रम की घोषणा के बाद केंद्रीय मंत्री रामविलास पासवान के निधन से भी समीकरण बदले हैं। हालांकि उनके पुत्र चिराग पासवान पहले ही लोजपा का नेतृत्व संभाल चुके थे, लेकिन पहली बार सांसद बने इस युवा की बड़बोली भूमिका ने चुनावी सस्पेंस और गहरा कर दिया है। मोदी मंत्रिमंडल में रामविलास लोजपा के इकलौते प्रतिनिधि थे, लेकिन उनके निधन के बाद भी लोजपा राजग का अंग तो है ही। फिर वह बिहार में राजग से अलग होकर चुनाव कैसे लड़ रही है? मोदी में अपना अभिभावक देखने वाले चिराग खुद को प्रधानमंत्री का हनुमान बता रहे हैं। राम के हनुमान ने उनके शत्रु रावण की लंका जलायी थी, पर चिराग के निशाने पर नीतीश कुमार हैं, जिनके चेहरे और नाम पर राजग बिहार में चुनाव लड़ रहा है।
यह जानना दिलचस्प हो सकता है कि लोजपा ने जिन 136 सीटों पर उम्मीदवार उतारे हैं, उनमें 115 जद(यू) के हिस्से वाली हैं। कुल 243 सीटों के बंटवारे में जद(यू) के हिस्से 122 सीटें आयी हैं, जिनमें से सात उसने दुश्मन से फिर दोस्त बने जीतनराम मांझी के हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा (हम) के लिए छोड़ी हैं। चिराग ने इस सात सीटों पर भी उम्मीदवार उतारे हैं। यह भी जान लीजिए कि लोजपा के टिकट पर कई चिर-परिचित भाजपाई चेहरे भी चुनाव मैदान में हैं। बेशक भाजपा ने भी अपने हिस्से की 121 सीटों में से 11 विकासशील इनसान पार्टी (वीआईपी) के लिए छोड़ी हैं, पर उनमें से कई पर चुनाव भाजपाई ही लड़ रहे हैं। उधर नीतीश को जेल भेजने की धमकी देते हुए चिराग अपील भी कर रहे हैं कि जहां लोजपा उम्मीदवार मैदान में न हो, वहां उनके समर्थक भाजपा उम्मीदवार को वोट दें। हालांकि केंद्रीय मंत्री प्रकाश जावड़ेकर के बाद अब भाजपा अध्यक्ष जे. पी. नड्डा ने भी चिराग को सार्वजनिक रूप से कुछ नसीहत देने की कोशिश की है, लेकिन जिन नीतीश के नाम और चेहरे पर राजग यह विधानसभा चुनाव लड़ रहा है, भाजपा के पोस्टरों से उनका ही गायब होना क्या संदेश दे रहा है? लोकलुभावन वायदों की बाढ़ में कोरोना वैक्सीन के मुफ्त वितरण का भाजपाई चुनावी वायदा भी सत्ता विरोधी भावना से किसकी कितनी सुरक्षा करेगा—देखना दिलचस्प होगा।
ऐसे में स्वाभाविक सवाल यह उठता है कि क्या भाजपा दोहरी रणनीति के साथ बिहार विधानसभा चुनाव लड़ रही है? अगर महागठबंधन के साथ-साथ, खुद को प्रधानमंत्री का हनुमान बता रहे चिराग के निशाने पर भी 15 साल से मुख्यमंत्री पद पर काबिज नीतीश हैं, तो यह समझना मुश्किल नहीं होना चाहिए कि वह संभवत: अपने राजनीतिक जीवन की सबसे कठिन चुनावी परीक्षा से गुजर रहे हैं। मान भी लें कि लड़कपन की छवि वाले अनुभवहीन तेजस्वी के महागठबंधन से मुकाबले में अंतत: राजग को बहुमत मिल जायेगा, तब भी बंटवारे में भाजपा से महज एक सीट ज्यादा पाने वाले नीतीश भाजपा से ज्यादा सीटें जीत पायेंगे, इसमें विरोधियों को नहीं, खुद उनके समर्थकों को भी संदेह है। ऐसे में लाख टके का सवाल यह है कि क्या ज्यादा सीटें जीत कर भी, लालू की तरह, भाजपा भी नीतीश को मुख्यमंत्री मान लेगी? लोजपा भले ही 136 सीटों पर लड़ रही हो, पर खुद चिराग भी जानते हैं कि उनकी भूमिका जीतने से ज्यादा जद(यू) उम्मीदवारों को हराने की है। इसलिए यह मान लेना तर्कसम्मत नहीं होगा कि लोजपा की सीटों के सहारे भाजपा अपनी सरकार बना पायेगी। ऐसे में दो ही विकल्प होंगे : एक, नीतीश राज्य में जूनियर पार्टनर की भूमिका स्वीकार कर खुद मोदी मंत्रिमंडल की शोभा बढ़ाने दिल्ली चले आयें। दो, धर्मनिरपेक्षता की दुहाई देते हुए वापस महागठबंधन के दरवाजे पर दस्तक दें।
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