मृदुल कश्यप
एक था बल्ला और एक थी गेंद। दोनों में थी दांत काटी दोस्ती। एक-दूसरे के बिना एक पल भी नहीं रह सकते थे। दोनों बने थे जैसे एक-दूजे के लिए। दोनों के बीच जब ‘टच-बलिए’ होता तो सब तरफ आनंद ही आनंद फैल जाता। और जाने कहां से खेल की उत्पत्ति हो जाती। दोनों जब तक एक-दूसरे के करीब रहते तो खेल भी वहीं उनके बीच फुदकता रहता। दोनों के जुदा होते ही खेल भी न जाने कहां अदृश्य हो जाता।
यह बात छुप न सकी। उनकी क्रीड़ा देखने दोपाए भी आने लगे। उनमे से कुछ सीटी बजा कर उनका हौसला बढ़ाते तो कुछ करतल ध्वनि करते। कुछ अति उत्साहित हो मैदान में उतर कर उनका साथ भी देने लगे। गेंद-बल्ला उन्हें खिलाड़ी कहकर सम्मानित करते। जैसे-जैसे समय बीतता गया, भीड़ भी बढ़ती चली गई। यह बात एक गांव से दूसरे गांव, एक शहर से दूसरे शहर फैलने लगी। धीरे-धीरे पूरे देश में फैल गई। बातों ही बातों में बात सात समंदर पार भी चली गई।
जो भी खिलाड़ी मैदान में आते, गेंद-बल्ला उन्हें समान दृष्टि से खेलने का अवसर प्रदान करते। उनके लिए सब बराबर थे, गरीब-अमीर, छोटे-बड़े, गोरे-काले। वे न तो जात-पात मानते न लिंग-भेद। भीड़ थी कि बढ़ती ही जा रही थी।
ऐसे ही एक दिन जब खेल चल रहा था तभी वहां से सपनों के सौदागर गुजरे। इतनी भारी-भरकम भीड़ को देखकर वह सपनों के सौदागर हैरान रह गए। यह दृश्य देखकर उन्होंने दांतों तले अंगुली दबा ली।
उनकी आंखों ही आंखों में आपस में बात हुई और फिर उन्होंने अपना डेरा वही डाल दिया। अगले दिन वह फिर उसी जगह पर आए। पर इस बार उनके पास कुछ अलग ही सपने थे, कुछ भिन्न योजनाएं थीं। उन्होंने अपना मजमा लगाया और कहा कि वे क्रिकेट द्वारा समाजवाद लाएंगे। कहा कि समाजवाद अब सिर्फ पूंजीवाद की अंगुली पकड़ कर ही लाया जा सकता है। सपनों के सौदागरों ने कहा कि हम मैदान में सब को लाएंगे। खेल, फिल्म, तेल और साबुन आदि की अनेक कम्पनियां और ढेर सारे विज्ञापन। फिर उन्हें मुंबई के भेल जैसा हिला-हिला कर मिलाएंगे। फिर सबकी पेट-पूजा करेंगे। हो सकता है कि खिलाड़ी ठुमके लगाएं और अभिनेता गेंद थाम ले।
लोगों को उनके दिखाए सपनों में मजा आने लगा। और फिर सारी बागडोर उन सपनों के सौदागरों ने ले ली। देखते ही देखते दृश्य ही बदल गया। टीम बंटने लगी, नीलामी की तैयारी हो गई। बोलियां लगनी चालू हो गई। बैट की बोली ज्यादा लगी तो वह अपने आप को बड़ा समझने लगा, गेंद की बोली लगी कम तो वह रुआंसी हो गई। बल्ला अकड़ता हुआ बाजार में खड़ा हो गया जबकि गेंद मुंह फुलाकर पतली गली में घुस गई और खेल, उसे तो लोग ढूंढ़ते ही रह गए। वह जाने कहां गुम हो गया।