विश्वनाथ सचदेव
लगभग साठ साल पुरानी बात है, जब मैं पहली बार अयोध्या गया था। गये तो हम तीर्थयात्री की ही तरह थे पर एक ऐतिहासिक जगह को देखने का भाव भी कहीं न कहीं अवश्य था। तब तांगे वाला हमें एक ‘सोने की अयोध्या’ दिखाने भी ले गया था। यह सोने की अयोध्या वास्तव में भगवान श्रीराम के जीवन से जुड़ी कथाओं को चित्रित करने का एक प्रयास था, जहां सभी मूर्तियां अथवा कलाकृतियां सुनहरे रंग से रंगी थीं। हमारा परिवार तथा कुछ अन्य यात्री वह सब देखकर कुछ ज़्यादा प्रभावित नहीं हुए थे। हमने तांगे वाले से पूछा था—वह हमें वहां क्यों लेकर गया। उसने बड़े ही सहज ढंग से जवाब दिया था—हर तीर्थयात्री को वहां लाने के उसे चार आने अर्थात अब के पच्चीस पैसे मिलते हैं। स्पष्ट है, उसने भले ही तीर्थयात्री कहा हो पर उस ‘अयोध्या’ के आयोजक हम जैसे लोगों को पर्यटक ही मानते थे। पर्यटन तब भी एक उद्योग था, अब भी एक उद्योग है। अब, जबकि अयोध्या में भूमि पूजन के बाद श्रीराम मंदिर का शिलान्यास हो गया है और भव्य श्रीराम मंदिर बन रहा है, उसके साथ-साथ समूची अयोध्या को एक शानदार पर्यटन-स्थल के रूप में भी विकसित किए जाने की योजना है। इसमें कुछ ग़लत भी नहीं है, दुनियाभर में ‘धार्मिक-पर्यटन’ को एक उद्योग और अवसर के रूप में स्वीकार किया गया है। इसलिए प्रधानमंत्री द्वारा भगवान श्रीराम के भव्य मंदिर का शिलान्यास अथवा भूमि पूजन के साथ ही अयोध्या के संदर्भ में नई संभावनाओं के द्वार भी खुले हैं।
इन्हीं संभावनाओं का एक छोर राजनीति से भी जुड़ा है। अयोध्या में भव्य श्रीराम मंदिर का बनना भले ही इस देश की करोड़ों-करोड़ों हिंदुओं की आस्था और श्रद्धा से जुड़ा हो, पर यह तो स्वीकारना ही होगा कि जब से श्रीराम मंदिर-बाबरी मस्जिद विवाद ने तूल पकड़ा है, इस पूरे प्रकरण का राजनीतिकरण भी हुआ है। सब ने इसका लाभ उठाने की पूरी कोशिश की है। भाजपा आडवाणी की रथयात्रा से मिले राजनीतिक लाभ को नहीं नकार सकती, और कांग्रेस इस बात को दुहराने से नहीं बचती कि कांग्रेसी प्रधानमंत्री के कार्यकाल में ही ‘राम मंदिर’ का ताला खुला था। आज भी, जब उच्चतम न्यायालय के आदेश के बाद राम मंदिर का निर्माण कार्य प्रारंभ हो गया है, उत्तर प्रदेश और केंद्र में भाजपा के नेतृत्व वाली सरकारें इसे अपनी राजनीतिक जीत के रूप में प्रस्तुत करने से नहीं चूक रहीं।
इसमें कोई संदेह नहीं कि अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण भाजपा के चुनावी-घोषणापत्र का शुरू से ही हिस्सा रहा है। वाजपेयी के शासनकाल में भले ही इसे ठंडे बस्ते में डाल दिया गया हो, पर इसका चुनावी-लाभ उठाने की कोशिशें लगातार होती रही हैं। बिहार और उत्तर प्रदेश के आगामी चुनावों में तो भाजपा मंदिर-निर्माण का हवाला देकर वोट जुटाने की कोशिश करेगी ही, लगभग चार साल बाद जब लोकसभा के लिए चुनाव होंगे, तब तक राम-मंदिर का निर्माण हो जायेगा, और एक बार फिर राम का नाम राजनीति की नाव को खेने का सहारा बन सकेगा। राष्ट्र-हित का तकाज़ा है कि अब मंदिर-मस्जिद के इस मुद्दे को यहीं पूर्ण-विराम दिया जाये! अतीत को भुलाया जा भी नहीं सकता, पर अतीत के सहारे भविष्य को संवारने का लालच भी बुरी चीज़ है।
विवादित ढांचे को ढहाये जाने के बाद इस आशय के प्रस्ताव भी देश में आए थे कि अयोध्या में एक ऐसा राष्ट्रीय स्मारक बनाया जाये जो हर भारतीय की भावनाओं को प्रकट करे और उसकी प्रेरणा का स्रोत बने। वह तो नहीं हो पाया, पर फिर भी यह अवसर अब भी हमारे हाथ में है कि हम श्रीराम मंदिर को ही ऐसी प्रेरणा के रूप में देखें-समझें। ‘बीती ताहि बिसार दे आगे की सुधि ले’ का तकाज़ा है कि अयोध्या के लोगों और भगवान राम का मंदिर, दोनों, एक राष्ट्रीय भावना की अभिव्यक्ति बनें। अयोध्या तो पहले भी सांप्रदायिक सौहार्द का उदाहरण बनी रही है। श्रीराम अयोध्या का भरण-पोषण करते रहे हैं, आगे भी करेंगे। यह बात अपने आप में भरोसा देने वाली है कि इस विवाद को लेकर न्यायालय में जाने वाले मुस्लिम पक्षकार को भी श्रीराम मंदिर निर्माण के इस कार्यक्रम में आमंत्रित किया गया और वे वहां प्रधानमंत्री के लिए ‘रामचरित मानस’ की एक प्रति भेंट करने के लिए लेकर गए। भरोसा देने वाली बात यह भी है कि अयोध्या में फूल बेचने वाले मुस्लिम व्यापारियों को भी यही लग रहा है कि अब उनके भी अच्छे दिन आएंगे। यह बात भी एक सुखद अहसास देने वाली है कि मंदिर में पूजा-अर्चना के लिए चढ़ाये जाने वाले फूलों के इन व्यापारियों में से ही एक ने मुझे बताया था कि वह सवेरे-सवेरे यहां फूल बेचने के लिए बैठते हैं।
सच तो यह है कि सारे विवादों के बावजूद राम जी की अयोध्या सांप्रदायिक सौहार्द का उदाहरण रही है। अब, जबकि विवाद समाप्त हो गया है और अयोध्या में आने वाले भारत के कल का एक नया अध्याय लिखा जा रहा है, अयोध्या को भारतीयता का एक नया उदाहरण बनना होगा। श्रीराम-कथा सामाजिक समरसता का संदेश देती है, निषाद को गले लगाकर, शबरी के जूठे बेर खाकर और वानर जाति की सहायता से रावण को पराजित करके राम ने सामाजिक भेदभाव को समाप्त करने का एक उदाहरण प्रस्तुत किया था। अब श्रीराम के भक्तों का यह दायित्व बनता है कि वे इस सामाजिक समरसता को विस्तार दें। सांप्रदायिक एकता की भावना के प्रसार के प्रति जागरूक रहें लेकिन यह तभी संभव है जब धर्म की राजनीति करने वाले, धर्म के नाम पर अपनी राजनीति साधने वाले, अपनी दृष्टि और दिशा दोनों बदलें।
सुना है मुसलमानों ने श्रीराम मंदिर के निर्माण के लिए कार-सेवा करने का प्रस्ताव रखा है। यह निश्चित रूप से एक स्वागतयोग्य कदम है। देश में भाईचारे को बढ़ावा देने वाले ऐसे कार्यों को बढ़ावा देने का हरसंभव प्रयास होना चाहिए। सुना यह भी है कि उच्चतम न्यायालय ने अयोध्या में मस्जिद के निर्माण के लिए जो ज़मीन दी है, वहां मस्जिद के साथ-साथ सर्व धर्म समभाव को बढ़ावा देने वाला एक केंद्र भी स्थापित किया जायेगा। वहां एक अस्पताल बनाने की योजना भी है। उम्मीद की जानी चाहिए कि इस पुनीत कार्य में हिंदू भी सम्मिलित होंगे।
श्रीराम मंदिर के नाम पर देश में कटुता का वातावरण पैदा करने की कोशिशों का सही उत्तर देने का अब समय आ गया है। यह उत्तर हम नागरिकों को देना है। हम चाहे किसी भी धर्म को मानने वाले हों, हमें बताना है कि धर्म के नाम पर हमें बांटने वालों की कोशिशें अब हम सफल नहीं होने देंगे। अयोध्या पर्यटन केंद्र नहीं, हर भारतीय के लिए एक तीर्थ बनेगा। मनुष्यता का तीर्थ राम के प्रति सच्ची भक्ति का यही अर्थ है।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।