कोई साधन-संपन्न व्यक्ति जरूरतमंदों को खाना बांटे तो समझ में आता है, मगर एक ऑटो ड्राइवर जब हजारों जरूरतमंदों को नियमित खाना खिलाये तो बहुत बड़ी बात है। एक ऑटो चालक ने लॉकडाउन के मुश्किल दिनों में हर सप्ताह पंद्रह हजार से ज्यादा लोगों को खाना खिलाया। यह क्रम टूटा नहीं है, अब भी वह हर रविवार को हजार-बारह सौ लोगों को खाना बांटता है। अनाथालयों व वृद्धाश्रमों तक भी खाना पहुंचाता है। उसने यह मुहिम अकेले शुरू की, फिर पत्नी और बच्चे जुटे। अब एक स्वयंसेवी संगठन के रूप में उसके साथ एक कार्यकुशल टीम भी है। सचमुच ऐसी ही निस्वार्थ सेवा करने वालों से समाज में इनसानियत पर भरोसा कायम है।
कोयम्बटूर के बी. मुरुगन के जीवन की कहानी तमाम झंझावातों से गुजरकर इस मुकाम तक पहुंची है। एक वक्त था कि वह जीवन की असफलता से निराश होकर आत्महत्या तक करने चला था, लेकिन जब उसने दुनिया में दुखियों-पीड़ितों को देखा तो अहसास हुआ कि लोग कितनी मुश्किलों में भी जीना चाहते हैं। उसे जीवन के महत्व का अहसास हुआ और संकल्प लिया कि वह अपना जीवन लोगों के उत्थान के लिये समर्पित करेगा।
दरअसल, वर्ष 1992 में उन्होंने हाई स्कूल की परीक्षा दी और पूरे प्रयास करने के बावजूद वह सफल नहीं हो सके। इस असफलता से वे इतने हताश हुए कि उन्हें जीवन व्यर्थ नजर आया। चेन्नई स्थित घर से वे तीन सौ रुपये लेकर भाग गये। जिस बस में मुरुगन बैठे थे वह उन्हें चेन्नई से पांच सौ किलोमीटर दूर कोयम्बटूर के सिरुमुगई ले गयी। मुरुगन रात दो बजे सिरुमुगई पहुंचे और सड़क के किनारे फुटपाथ पर बैठ गये। हताशा इतनी गहरी थी कि आत्महत्या करने का मन बना लिया। लेकिन उन्होंने बस स्टैंड के आसपास तमाम भिखारियों, गरीबों और विकलंाग लोगों को उत्साह से जीवन के लिये संघर्ष करते देखा। उस रात एक बुजुर्ग मोची ने मुरुगन को अपने घर में आश्रय दिया। मुरुगन ने उस रात फुटपाथ पर सोये विडंबनाओं से जूझते लोगों को देखा और जीवन के महत्व को समझा। फुटपाथ पर लोगों के दुख-दर्द और गरीबी को देखकर मुरुगन के मन में विचार आया कि आत्महत्या का विचार कायरता है। मैं यह अमूल्य जीवन इन बेसहारा लोगों की मदद के लिये लगा दूंगा। पूरे जीवन मुरुगन उस मोची को नहीं भूले, जिसने उस रात अपने घर में ठहरने के लिये जगह देकर आत्महत्या के विचार को सदा के लिये दफन कर दिया था।
सही मायनो में यह मुरुगन का नया जीवन शुरू होने जैसा था। इस बीच सिरुमुगई बस स्टॉप की एक घटना को मुरुगन नहीं भूलते जब सब भिखारियों ने भीख में मिले पैसे एकत्र करके मुरुगन को यह कहकर दिये कि वह अपने घर चेन्नई जाने के लिये टिकट खरीद ले। मगर तब तक मुरुगन नया जीवन जीने का मन बना चुके थे। उन्होंने उन भिखारियों का आभार व्यक्त किया और कहा कि नहीं, अब वे उनके साथ रहेंगे और समाज के लिय कुछ करेंगे।
इसके बाद मुरुगन ने काम की तलाश की। उसे एक होटल में खाना परोसने का काम मिला, जिसके बदले उसे तीन टाइम का खाना मिल पाता था। उसने फिर कई मुश्किल काम बदले। सुबह अखबार भी बांटे। वर्ष 2006 में उसे काम देने वाली कंपनी भी बंद हो गई। कामधंधा बंद होने के बाद उन्होंने ड्राइविंग लाइसेंस के लिये आवेदन किया और ऑटो चलाना शुरू किया। अपने खर्च के बाद जो पैसा बचता, उसे बेघरों को खाना खिलाने में खर्च करते। उसे तब तकरीबन तीन हजार रुपये महीने मिलते थे, जिसमें से वह कुछ पैसा अनाज, सब्जी और अन्य सामान खरीदने के लिये रखते। एक स्कूल के परिसर में खाना बनाकर बेघर लोगों को बांटते। फिर कुछ दोस्त और नेकदिल इनसान भी साथ जुटे। वे भी हर सप्ताह सौ-सौ रुपये मिलाते। वर्ष 2008 में मुरुगन ने एक संस्था बेघरों के कल्याण के लिये बनायी ‘निजल मैयम’, जिसका हिंदी में अर्थ होता है-‘बेघरों के लिये छाया।’
फिर बी. मुुरुगन ने सेवा के साथ अपनी गृहस्थी भी बसायी। अब पत्नी ऊषा और बेटा-बेटी भी इस काम में मदद करते हैं। शनिवार से ही वे खाने की तैयारी करते हैं और रविवार को हजार-बारह सौ लोगों को खाना हर सप्ताह खिलाते हैं लेकिन मुश्किलों का सिलसिला अभी भी जारी है। इतने लोगों का खाना बनाने से मकान मालिक को भी परेशानी होने लगी और जिसकी वजह से उन्होंने अब तक नौ घर बदले हैं लेकिन मुरुगन अपने काम से खुश हैं। पत्नी व बच्चे खाना बांटने व बनाने में मदद करते हैं। धीरे-धीरे सेवा का कारवां बढ़ता गया, उनके संगठन में आज पचास समर्पित कार्यकर्ता हैं। कई परोपकारी लोग उनके इस मिशन के लिये नियमित आर्थिक सहायता देते हैं। अकेले चले मुरुगन के साथ सेवा करने वालों का कारवां जुड़ता चला गया। हर सप्ताह निर्धन, बेसहारा और बेघर लोगों को खाना खिलाने में बीस हजार का खर्च आता है। कुछ लोग भी मदद करते हैं। घर चलाने और बच्चों की फीस के बाद जो पैसा बचता, उसे मुरुगन बेघरों को खाना खिलाने में लगा देते। उनका बेटा दसवीं में पढ़ता है और बेटी सातवीं में। पैसा जुटाने के लिये मुरुगन ने स्क्रीन प्रिंटिग और कपड़े के थैले बनाने का काम भी शुरू किया है ताकि सेवा का मिशन रुके नहीं।
लॉकडाउन के दौरान बेघरों को खाना खिलाने का काम बहुत बढ़ गया था। सप्ताह में करीब पंद्रह हजार लोग तक सांबर-चावल खाने आते थे। यहां तक कि इस काम को निर्बाध रूप से चलाने के लिये मुरुगन ने अपनी पत्नी के गहने तक बेचे, लेकिन मुरुगन और उनका संगठन उत्साह से जुटा रहा। उन्हें सेवा कार्य के लिये कई बार सम्मानित भी किया गया लेकिन उनका एक ही संकल्प है कि कोई भूखा न सोये।